वाजपेय एक प्रकार का श्रौतयज्ञ है। 'शतपथ ब्राह्मण' के अनुसार यह यज्ञ केवल ब्राह्मण या क्षत्रियों के द्वारा ही करणीय है। यह यज्ञ 'राजसूय यज्ञ' से भी श्रेष्ठ माना गया है। अन्य ग्रन्थों के मत से यह पुरोहित के लिए बृहस्पति सत्र का एवं राजा के लिए राजसूय का पूर्वकृत्य है।
यज्ञ पद्धति
इस यज्ञ का एक आवश्यक अंग रथों की दौड़ है, जिसमें यज्ञकर्ता विजयी होता है। हिलब्रैण्ट ने इसकी तुलना ओलम्पिक खेलों के साथ की है, किन्तु इस विषय में प्रमाणों का अभाव है। यह यज्ञ प्रारम्भिक रथ-दौड़ से ही विकसित हुआ जान पड़ता है, जो यज्ञ के रूप में दिव्य शक्ति की सहायता से यज्ञकर्ता को सफलता प्रदान करता है। एगेलिंग का कथन ठीक जान पड़ता है कि यह यज्ञ ब्राह्मण द्वारा पुरोहित पद ग्रहण करने का पूर्व संस्कार तथा तथा राजाओं के लिए राज्याभिषेक का पूर्व संस्कार था।
इतिहास
ब्राह्मणों के जाने-पहचाने उपनामों या कुल गोत्रों में एक वाजपेयी भी है। कहीं-कहीं इसे बाजपेई, बाजपायी भी लिखा जाता है, लेकिन इसका सही रूप वाजपेयी ही है। वाजपेयी उपनाम भी ज्ञान परम्परा से जुड़ा है और इसका रिश्ता वैदिक संस्कृति के एक प्रमुख अनुष्ठान 'वाजपेय यज्ञ' से है, जो पूर्व-वैदिक काल की कृषि-संस्कृति की देन है। ब्राह्मण ग्रंथों के मुताबिक़ वाजपेय अनुष्ठान कराने का अधिकार सिर्फ ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्णों को ही था। यह तो स्पष्ट है कि आर्यों में यज्ञ की परिपाटी जनमंगल और जनकल्याण की भावना से थी, बाद में इसने रूढ़ अनुष्ठानों का रूप लिया। पुरोहित और ब्राह्मण वर्ग के लगातार शक्तिशाली होते जाने और महत्वाकांक्षा बढ़ने के परिणामस्वरूप इस वर्ग में भी कई वर्ग, उपवर्ग विकसित हो गए थे, जो अपने स्तर पर वैदिक संहिताओं और संचित ज्ञान की व्याख्या करने लगे। इनका उद्धेश्य सामंत और श्रेष्ठी वर्ग में अपना वर्चस्व क़ायम करना था। पुराणोपनिषद काल में इस विवाद प्रारम्भ हुआ और फिर इतना बढ़ा कि उसकी प्रतिक्रियास्वरूप हिन्दुत्व के भीतर से ही बौद्ध धर्म का जन्म हुआ, जो मूलतः 'ब्राह्मणवाद' के विरुद्ध था।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
हिन्दू धर्मकोश |लेखक: डॉ. राजबली पाण्डेय |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 581 |
- ↑ शब्दों का सफर (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल.)। । अभिगमन तिथि: 28 मार्च, 2012।
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