शाह नवाज़ ख़ान

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शाह नवाज़ ख़ान
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पूरा नाम शाह नवाज़ ख़ान
जन्म 24 जनवरी, 1914
मृत्यु 9 दिसम्बर, 1983
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि आज़ाद हिन्द फ़ौज के जनरल
संबंधित लेख आज़ाद हिन्द फ़ौज, सुभाष चन्द्र बोस, कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लों

शाह नवाज़ ख़ान (अंग्रेज़ी: Shah Nawaz Khan, जन्म- 24 जनवरी, 1914; मृत्यु- 9 दिसम्बर, 1983) भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध 'आज़ाद हिन्द फ़ौज' के अधिकारी थे। जब द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो गया, उसके बाद जनरल शाह नवाज़ ख़ान, कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लों तथा कर्नल प्रेम सहगल के ऊपर अंग्रेज़ सरकार द्वारा मुकदमा चलाया गया था। शाह नवाज़ ख़ान बॉलीवुड फिल्म अभिनेता शाहरुख ख़ान के नाना थे।

तत्कालीन घटनाक्रम

शाह नवाज़ ख़ान राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारतीय राष्ट्रीय सेना में एक अधिकारी के रूप में अपनी सेवाएँ दी थीं। युद्ध के बाद, उन्हें देशद्रोह के लिए दोषी ठहराया गया और ब्रिटिश भारतीय सेना द्वारा किए गए एक सार्वजनिक न्यायालय-मार्शल में मौत की सजा सुनाई गई। भारत में अशांति और विरोध के बाद भारतीय सेना के कमांडर-इन-चीफ ने सजा को कम कर दिया। द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने पर भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक नाटकीय बदलाव आया। 15 अगस्त, 1947 भारत को आज़ादी मिलने तक, भारतीय राजनैतिक मंच विविध जनान्दोलनों का गवाह रहा। इनमें से सबसे अहम् आन्दोलन 'आज़ाद हिन्द फौज' के 17 हजार जवानों के खिलाफ चलने वाले मुकदमे के विरोध में जनाक्रोश के सामूहिक प्रदर्शन थे।

शाह नवाज़ ख़ान को मुस्लिम लीग और कर्नल गुरुबख्श सिंह ढिल्लों को अकाली दल ने अपनी ओर से मुकदमा लड़ने की पेशकश की, लेकिन इन देशभक्त सिपाहियों ने कांग्रेस द्वारा जो डिफेंस टीम बनाई गई थी, उसी टीम को ही अपना मुकदमा पैरवी करने की मंजूरी दी। मजहबी भावनाओं से ऊपर उठकर प्रेम सहगल, गुरबख्श सिंह ढिल्लों और शाह नवाज़़ ख़ान का यह फैसला सचमुच प्रशंसा के योग्य था।

लाल क़िला ट्रायल

भारतीय इतिहास में 'लाल क़िला ट्रायल' का अहम स्थान है। लाल क़िला ट्रायल के नाम से प्रसिद्ध 'आज़ाद हिन्द फौज' के ऐतिहासिक मुकदमे के दौरान उठे इस नारे 'लाल क़िले से आई आवाज-सहगल, ढिल्लन, शहनवाज़' ने उस समय हिन्दुस्तान की आज़ादी के हक के लिए संघर्ष रहे लाखों नौजवानों को एक सूत्र में बांध दिया। वकील भूलाभाई देसाई इस मुकदमे के दौरान जब लाल क़िले में बहस करते तो सड़कों पर हजारों नौजवान नारे लगा रहे होते। पूरे देश में देशभक्ति का एक वार-सा उठता। 15 नवम्बर, 1945 से 31 दिसम्बर, 1945 हिन्दुस्तान की आज़ादी के संघर्ष में महत्त्वपूर्ण समय था। यह मुकदमा कई मोर्चों पर हिन्दुस्तानी एकता को मजबूत करने वाला साबित हुआ। लाल क़िला ट्रायल ने पूरी दुनिया में अपनी आज़ादी के लिए लड़ रहे लाखों लोगों के अधिकारों को जागृत किया।

प्रेम सहगल, गुरबख्श सिंह ढिल्लों और शाह नवाज़ ख़ान के अलावा आज़ाद हिन्द फौज के अनेक सैनिक जो जगह-जगह गिरफ्तार हुए थे और जिन पर सैकड़ों मुकदमे चल रहे थे, वे सभी रिहा हो गए। 3 जनवरी, 1946 को आज़ाद हिन्द फौज के जांबाज सिपाहियों की रिहाई पर 'राईटर एसोसिएशन ऑफ़ अमेरिका' तथा ब्रिटेन के अनेक पत्रकारों ने अपने समाचार पत्रों में मुकदमे के विषय में जमकर लिखा। इस तरह यह मुकदमा अंतर्राष्ट्रीय रूप से चर्चित हो गया। अंग्रेज़ सरकार के कमाण्डर-इन-चीफ सर क्लॉड अक्लनिक ने इन जवानों की उम्र कैद की सजा माफ कर दी। हवा का रुख भांपकर वे समझ गए थे कि अगर इनको सजा दी गई तो हिन्दुस्तानी फौज में बगावत हो जाएगी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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