श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 1-11
एकादश स्कन्ध :पञ्चदशोऽध्यायः (15)
भिन्न-भिन्न सिद्धियों के नाम और लक्षण भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव! जब साधक इन्द्रिय, प्राण और मन को अपने वश में करके अपना चित्त मुझमें लगाने लगता है, मेरी धारणा करने लगता है, तब उसके सामने बहुत-सी सिद्धियाँ उपस्थित होती हैं । उद्धवजी ने कहा—अच्युत! कौन-सी धारणा करने से किस प्रकार कौन-सी सिद्धि प्राप्त होती है और उनकी संख्या कितनी है, आप ही योगियों को सिद्धियाँ देते हैं, अतः आप इनका वर्णन कीजिये । भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय उद्धव! धारणा योग के पारगामी योगियों ने अठारह प्रकार की सिद्धियाँ बतलायी हैं। उसमें आठ सिद्धियाँ तो प्रधान रूप से मुझमें ही रहती हैं और दूसरों में न्यून; तथा दस सत्वगुण के विकास से भी मिल जाती हैं । उनमें तीन सिद्धियाँ तो शरीर की हैं—‘अणिमा’, ‘महिमा’ और ‘लघिमा’। इन्द्रियों की एक सिद्धि है—‘प्राप्ति’। लौकिक और पारलौकिक पदार्थों का इच्छानुसार अनुभव करने वाली सिद्धि ‘प्राकाम्य’ हैं। माया और उसके कार्यों को इच्छानुसार संचालित करना ‘ईशिता’ नाम की सिद्धि है । विषयों में रहकर भी उनमें आसक्त न होना ‘वशिता’ है और जिस-जिस सुख की कामना करे, उसकी सीमा तक पहुँच जाना ‘कामावसायिता’ नाम की आठवीं सिद्धि है। ये आठों सिद्धियाँ मुझमें स्वभाव से ही रहती हैं और जिन्हें मैं देता हूँ, उन्हीं को अंशतः प्राप्त होती हैं । इनके अतिरिक्त और भी कई सिद्धियाँ हैं। शरीर में भूख-प्यास आदि वेगों का न होना, बहुत दूर की वस्तु देख लेना और बहुत दूर की बात सुन लेना, मन के साथ ही शरीर का उस स्थान पर पहुँच जाना, जो इच्छा हो वही रूप बना लेना; दूसरे शरीर में प्रवेश करना, जब इच्छा हो तभी शरीर छोड़ना, अप्सराओं के साथ होने वाली देवक्रीड़ा का दर्शन, संकल्प की सिद्धि, सब जगह सबके द्वारा बिना ननु-नच के आज्ञा पालन—ये दस सिद्धियाँ सत्वगुण के विशेष विकार से होती हैं । भूत, भविष्य और वर्तमान की बात जान लेना; शीत-उष्ण, सुख-दुःख और राग-द्वेष आदि द्वन्दों के वश में न होना, दूसरे के मन आदि की बात जान लेना; अग्नि, सूर्य, जल, विष आदि की शक्ति को स्तम्भित कर देना और किसी से भी पराजित न होना—ये पाँच सिद्धियाँ भी योगियों को प्राप्त होती हैं । प्रिय उद्धव! योग-धारणा करने से जो सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, उनका मैंने नाम-निर्देश के साथ वर्णन कर दिया। अब किस धारणा से कौन-सी सिद्धि कैसे प्राप्त होती है, यह बतलाता हूँ, सुनो । प्रिय उद्धव! पंच भूतों की सूक्ष्मतम मात्राएँ मेरा ही शरीर है। जो साधक केवल मेरे उसी शरीर की उपासना करता है और अपने मन को तदाकार बनाकर उसी में लगा देता है अर्थात् मेरे तन्मात्रात्मक शरीर के अतिरिक्त और किसी भी वस्तु का चिन्तन नहीं करता, उसे ‘अणिमा’ नाम की सिद्धि अर्थात् पत्थर की चट्टान आदि में प्रवेश करने की शक्ति—अणुता प्राप्त हो जाती है । महतत्व के रूप में भी मैं ही प्रकाशित हो रहा हूँ और उस रूप में समस्त व्यावहारिक ज्ञानों का केन्द्र हूँ। जो मेरे उस रूप में अपने मन को महतत्वाकार करके तन्मय कर देता है, उसे ‘महिमा’ नाम की सिद्धि प्राप्त होती है, और इसी प्रकार आकाशादि पंच भूतों में—जो मेरे ही शरीर हैं—अलग-अलग मन लगाने से उन-उनकी महत्ता प्राप्त हो जाती है, यह भी ‘महिमा’ सिद्धि के ही अन्तर्गत है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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