श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 18 श्लोक 37-48

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एकादश स्कन्ध :अष्टदशोऽध्यायः (18)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: अष्टदशोऽध्यायः श्लोक 37-48 का हिन्दी अनुवाद


क्योंकि ज्ञाननिष्ठ पुरुष को भेद की प्रतीति ही नहीं होती। जो पहले थी, वह भी मुझ सर्वात्मा के साक्षात्कार से नष्ट हो गयी। यदि कभी-कभी मरणपर्यन्त बाधित भेद की प्रतीति भी होती है, तब भी देहपात हो जाने पर वह मुझसे एक हो जाता है । उद्धवजी! (यह तो हुई ज्ञानवान् की बात, अब केवल वैराग्यवान् की बात सुनो।) जितेन्द्रिय पुरुष, जब यह निश्चय हो जाय कि संसार के विषयों के भोग का फल दुःख-ही-दुःख है, तब वह विरक्त हो जाय और यदि वह मेरी प्राप्ति के साधनों को न जानता हो तो भगवच्चिन्तन में तन्मय रहने वाले ब्रम्हनिष्ठ सद्गुरु की शरण ग्रहण करे । वह गुरु की दृढ़ भक्ति करे, श्रद्धा रखे और उसमें दोष कभी न निकाले। जब तक ब्रम्ह का ज्ञान हो, तब तक बड़े आदर से मुझे ही गुरु के रूप में समझता हुआ उनकी सेवा करे । किन्तु जिसने पाँच इन्द्रियाँ और मन, इन छहों पर विजय नहीं प्राप्त की है, जिसके इन्द्रियरूपी घोड़े और बुद्धिरूपी सारथि बिगड़े हुए हैं और जिसके हृदय में न ज्ञान है और न तो वैराग्य, वह यदि त्रिदण्डी सन्यासी का वेष धारणकर पेट पालता है तो वह संन्यासधर्म का सत्तानाश ही कर रहा है और अपने पूज्य देवताओं को, अपने-आपको और अपने हृदय में स्थित मुझको ठगने की चेष्टा करता है। अभी उस वेषमात्र के सन्यासी की वासनाएँ क्षीण नहीं हुई हैं; इसलिये वह इस लोक और परलोक दोनों से हाथ धो बैठता है । संन्यासी का मुख्य धर्म है—शान्ति और अहिंसा। वानप्रस्थी का मुख्य धर्म है—तपस्या और भगवद्भाव। गृहस्थ का मुख्य धर्म है—प्राणियों की रक्षा और यज्ञ-याग तथा ब्रम्हचारी का मुख्य धर्म है—आचार्य की सेवा । गृहस्थ भी केवल ऋतुकाल में ही अपनी स्त्री का सहवास करे। उसके लिये भी ब्रम्हचर्य, तपस्या, शौच, सन्तोष और समस्त प्राणियों के प्रति प्रेमभाव—ये मुख्य धर्म हैं। मेरी उपासना तो सभी को करनी चाहिये । जो पुरुष इस प्रकार अनन्यभाव से अपने वर्णाश्रमधर्म के द्वारा मेरी सेवा में लगा रहता है और समस्त प्राणियों में मेरी भावना करता रहता है, उसे मेरी अविचल भक्ति प्राप्त हो जाती है । उद्धवजी! मैं सम्पूर्ण लोकों को एकमात्र स्वामी, सबकी उत्पत्ति और प्रलय का परम कारण ब्रम्ह हूँ। नित्य-निरन्तर बढ़ने वाली अखण्ड भक्ति के द्वारा वह मुझे प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार वह गृहस्थ अपने धर्मपालन के द्वारा अन्तःकरण को शुद्ध करके मेरे ऐश्वर्य को—मेरे स्वरूप को जान लेता है और ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न होकर शीघ्र ही मुझे प्राप्त कर लेता है । मैंने तुम्हें यह सदाचाररूप वर्णाश्रमियों का धर्म बलताया है। यदि इस धर्मानुष्ठान में मेरी भक्ति का पुट लग जाय, तब तो इससे अनायास ही परम कल्याणस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति हो जाय । साधुस्वभाव उद्धव! तुमने मुझसे जो प्रश्न किया था, उसका उत्तर मैंने दे दिया और यह बतला दिया कि अपने धर्म का पालन करने वाला भक्त मुझ परब्रम्ह स्वरूप को किस प्रकार प्राप्त होता है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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