श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 19 श्लोक 38-45
एकादश स्कन्ध : एकोनविंशोऽध्यायः (19)
इसी प्रकार सत्य और मधुर भाषण को ही महात्माओं ने ‘ऋत’ कहा है। कर्मों में आसक्त न होना ही ‘शौच’ है। कामनाओं का त्याग ही सच्चा ‘संन्यास’ है । धर्म ही मनुष्यों का अभीष्ट ‘धन’ है। परमेश्वर ही ‘यज्ञ’ हूँ। ज्ञान का उपदेश देना ही दक्षिणा’ है। प्राणायाम ही श्रेष्ठ ‘बल’ है । मेरा ऐश्वर्य ही ‘भग’ है, मेरी श्रेष्ठ भैक्ति ही उत्तम ‘लाभ’ है, सच्ची ‘विद्या’ वही है जिससे ब्रम्हा और आत्मा का भेद मिट जाता है। पाप करने से घृणा होने का नाम ही ‘लज्जा’ है । निरपेक्षता आदि गुण ही शरीर का सच्चा सौन्दर्य—‘श्री’ है, दुःख और सुख दोनों की भावना का सदा के लिये नष्ट हो जाना ही ‘सुख’ है। विषय भोगों की कामना ही ‘दुःख’ है। जो बन्धन और मोक्ष का तत्व जानता है, वही ‘पण्डित’ है । शरीर आदि में जिसका मैंपन है, वही ‘मूर्ख’ है। जो संसार की ओर से निवृत करके मुझे प्राप्त करा देता है, वही सच्चा ‘सुमार्ग’ है। चित्त की बहिर्मुखता ही ‘कुमार्ग’ है। सत्वगुण की वृद्धि ही ‘स्वर्ग’ और सखे! तमोगुण की वृद्धि ही ‘नरक’ है। गुरु ही सच्चा ‘भाई-बन्धु’ है और वह गुरु मैं हूँ। यह मनुष्य-शरीर ही सच्चा ‘घर’ है तथा सच्चा ‘धनी’ वह है, जो गुणों से सम्पन्न है, जिसके पास गुणों का खजाना है । जिसके चित्त में असन्तोष है, अभाव का बोध है, वही ‘दरिद्र’ है। जो जितेन्द्रिय नहीं है, वही ‘कृपण’ है। समर्थ, स्वतन्त्र और ‘ईश्वर’ वह है, जिसकी चित्तवृत्ति विषयों में आसक्त नहीं है। इसके विपरीत जो विषयों में आसक्त है, वही सर्वथा ‘असमर्थ’ है । प्यारे उद्धव! तुमने जितने प्रश्न पूछे थे, उनका उत्तर मैंने दे दिया; इनको समझ लेना मोक्ष-मार्ग के लिये सहायक हैं। मैं तुम्हें गुण और दोषों का लक्षण अलग-अलग कहाँ तक बताऊँ ? सबका सारांश इतने में समझ लो कि गुणों और दोषों पर दृष्टि जाना ही सबसे बड़ा दोष है और गुण-दोषों पर दृष्टि न जाकर अपने शान्त निःसंकल्प स्वरूप में स्थित रहे—वही सबसे बड़ा गुण है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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