श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 20 श्लोक 12-21

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एकादश स्कन्ध : विंशोऽध्यायः (20)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: विंशोऽध्यायः श्लोक 12-21 का हिन्दी अनुवाद


यह विधि-निषेधरूप कर्म का अधिकारी मनुष्य-शरीर बहुत ही दुर्लभ है। स्वर्ग और नरक दोनों ही लोकों में रहने वाले जीव इसकी अभिलाषा करते रहते हैं; क्योंकि इसी शरीर में अन्तःकरण की शुद्धि होने पर ज्ञान अथवा भक्ति की प्राप्ति हो सकती है, स्वर्ग अथवा नरक का भोग प्रधान शरीर किसी भी साधन के उपयुक्त नहीं है। बुद्धिमान पुरुष को न तो स्वर्ग की अभिलाषा करनी चाहीये और न नरक की ही। और तो क्या, इस मनुष्य-शरीर में गुणबुद्धि और अभिमान हो जाने से अपने वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति के साधन में प्रमाद होने लगता है । यद्यपि यह मनुष्य-शरीर है तो मृत्युग्रस्त ही, परन्तु इसके द्वारा परमार्थ की—सत्य वस्तु की प्राप्ति हो सकती है। बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि यह बात जानकर मृत्यु होने के पूर्व ही सावधान होकर ऐसी साधना कर ले, जिससे वह जन्म-मृत्यु के चक्कर से सदा के लिये छूट जाय—मुक्त हो जाय । यह शरीर एक वृक्ष है। इसमें घोंसला बनाकर जीवरूप पक्षी निवास करता है। इसे यमराज के दूत प्रतिक्षण काट रहे हैं। जैसे पक्षी कटते हुए वृक्ष को छोड़कर उड़ जाता है, वैसे ही अनासक्त जीव भी इस शरीर को छोड़कर मोक्ष का भागी बन जाता है। परन्तु आसक्त जीव दुःख ही भोगता रहता है । प्रिय उद्धव! ये दिन और रात क्षण-क्षण में में शरीर की आयु को क्षीण कर रहे हैं। यह जानकर जो भय से काँप उठता है, वह व्यक्ति इसमें आसक्ति छोड़कर परमतत्व का ज्ञान प्राप्त कर लेता है और फिर इसके जीवन-मरण से निरपेक्ष होकर अपने आत्मा में ही शान्त हो जाता है । यह मनुष्य-शरीर समस्त शुभ फलों की प्राप्ति का मूल है और अत्यन्त दुर्लभ होने पर भी अनायास सुलभ हो गया है। इस संसार-सागर से पार जाने के लिये यह एक सुदृढ़ नौका है। शरण-ग्रहण मात्र से ही गुरुदेव इसके केवट बनकर पतवार का संचालन करने लगते हैं और स्मरणमात्र से ही मैं अनुकूल वायु के रूप में इसे लक्ष्य की ओर बढ़ाने लगता हूँ। इतनी सुविधा होने पर भी जो इस शरीर के द्वारा संसार-सागर से पार नहीं हो जाता, वह तो अपने हाथों अपने आत्मा का हनन—अधःपतन कर रहा है । प्रिय उद्धव! जब पुरुष दोषदर्शन के कारण कर्मों से उद्विग्न और विरक्त हो जाय, तब जितेन्द्रिय होकर वह योग में स्थित हो जाय और अभ्यास—आत्मानुसन्धान के द्वारा अपना मन मुझ परमात्मा में निश्चल रूप से धारण करे । जब स्थिर करते समय मन चंचल होकर इधर-उधर भटकने लगे, तब झटपट बड़ी सावधानी से उसे मनाकर, समझा-बुझाकर, फुसलाकर अपने वश में कर ले । इन्द्रियों और प्राणों को अपने वश में रखे और मन को एक क्षण के लिये भी स्वतन्त्र न छोड़े। उसकी एक-एक चाल, एक-एक हरकत को देखता रहे। इस प्रकार सत्वसम्पन्न बुद्धि के द्वारा धीरे-धीरे मन को अपने वश में कर लेना चाहिये । जैसे सवार घोड़े को अपने वश में करते समय उसे अपने मनोभाव की पहचान कराना चाहता है—अपनी इच्छा के अनुसार उसे चलाना चाहता है और बार-बार फुसलाकर उसे अपने वश में कर लेता है, वैसे ही मन को फुसलाकर, उसे मीठी-मीठी बातें सुनाकर वश में कर लेना ही परम योग है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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