श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 23 श्लोक 26-39

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एकादश स्कन्ध: त्रयोविंशोऽध्यायः (23)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रयोविंशोऽध्यायः श्लोक 26-39 का हिन्दी अनुवाद


मुझे मालूम नहीं होता कि बड़े-बड़े विद्वान् भी धन की व्यर्थ तृष्णा से निरन्तर क्यों दुःखी रहते हैं ? हो-न-हो, अवश्य ही यह संसार किसी की माया से अत्यन्त मोहित हो रहा है । यह मनुष्य-शरीर काल के विकराल गाल में पड़ा है। इसको धन से, धन देने वाले देवताओं और लोगों से, भोगवासनाओं और उनको पूर्ण करने वालों से तथा पुनः-पुनः जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालने वाले सकाम कर्मों से लाभ ही क्या है ? इसमें सन्देह नहीं कि सर्वदेवस्वरूप भगवान मुझ पर प्रसन्न हैं। तभी तो उन्होंने मुझे इस दशा में पहुँचाया है और मुझे जगत् के प्रति यह दुःख-बुद्धि और वैराग्य दिया है। वस्तुतः वैराग्य ही इस संसार-सागर से पार होने के लिये नौका के समान है । मैं अब ऐसी अवस्था में पहुँच गया हूँ। यदि मेरी आयु शेष हो तो मैं आत्मलाभ में ही सन्तुष्ट रहकर अपने परमार्थ के सम्बन्ध में सावधान हो जाऊँगा और अब जो समय बच रहा है, उसमें अपने शरीर को तपस्या के द्वारा सुखा डालूँगा । तीनों लोकों के स्वामी देवगण मेरे इस संकल्प का अनुमोदन करें। अभी निराश होने की कोई बात नहीं है, क्योंकि राजा खट्वांग ने तो दो घड़ी में ही भगवद्धाम की प्राप्ति कर ली थी । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी! उस उज्जैन निवासी ब्राम्हण ने मन-ही-मन इस प्रकार निश्चय करके ‘मैं’ और ‘मेरे’ पन की गाँठ खोल दी। इसके बाद वह शान्त होकर मौनी सन्यासी हो गया । अब उसके चित्त में किसी भी स्थान, वस्तु या व्यक्ति के प्रति आसक्ति न रही। उसने अपने मन, इन्द्रिय और प्राणों को वश में कर लिया। वह पृथ्वी पर स्वच्छन्द रूप से विचरने लगा। वह भिक्षा के लिये नगर और गाँवों में जाता अवश्य था, परन्तु इस प्रकार जाता था कि कोई उसे पहचान न पाता था । उद्धवजी! वह भिक्षुक अवधूत बहुत बूढ़ा हो गया था। दुष्ट उसे देखते ही टूट पड़ते और तरह-तरह से उसका तिरस्कार करके उसे तंग करते । कोई उसका दण्ड छीन लेता, तो कोई भिक्षापात्र ही झटक ले जाता। कोई कमण्डलु उठा ले जाता तो कोई आसन, रुद्राक्षमाला और कन्था ही लेकर भाग जाता। कोई तो उसकी लँगोटी और वस्त्र को ही इधर-उधर डाल देते । कोई-कोई वे वस्तुएँ देकर और कोई दिखला-दिखलाकर फिर छीन लेते। जब वह अवधूत मधुकरी माँग कर लता और बाहर नदी-तट पर भोजन करने बैठता, तो पापी लोग कभी उसके सिर पर मूत देते, तो कभी थूक देते। वे लोग उस मौनी अवधूत को तरह-तरह से बोलने के लिये विवश करते और जब वह इस पर भी न बोलता तो उसे पिटते । कोई उसे चोर कहकर डाँटने-डपटने लगता। कोई कहता ‘इसे बाँध लो, बाँध लो’ और फिर उसे रस्सी से बाँधने लगते । कोई उसका तिरस्कार करके इस प्रकार ताना कसते कि ‘देखो-देखो, अब इस कृपण ने धर्म का ढोंग रचा है। धन-सम्पत्ति जाती रही, स्त्री-पुत्रों ने घर से निकाल दिया; तब इसने भीख माँगने का रोजगार लिया है । ओहो! देखो तो सही, यह मोटा-तगड़ा भिखारी धैर्य में बड़े भारी पर्वत के समान है। यह मौन रहकर अपना काम बनाना चाहता है। सचमुच यह बगुले से भी बढ़कर ढ़ोंगी और दृढ़निश्चयी है’ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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