श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 23 श्लोक 57-62
एकादश स्कन्ध: त्रयोविंशोऽध्यायः (23)
आत्मा प्रकृति के स्वरूप, धर्म, कार्य, लेश, सम्बन्ध और गन्ध से भी रहित है। उसे कभी कहीं किसी के द्वारा किसी भी प्रकार से द्वन्द का स्पर्श ही नहीं होता। वह तो जन्म-मृत्यु के चक्र में भटकने वाले अहंकार को ही होता है। जो इस बात को जान लेता है, वह फिर किसी भी भय के निमित्त से भयभीत नहीं होता । बड़े-बड़े प्राचीन ऋषि-मुनियों ने इस परमात्मनिष्ठा का आश्रय ग्रहण किया है। मैं ही इसी का आश्रय ग्रहण करूँगा और मुक्ति तथा प्रेम के दाता भगवान के चरणकमलों की सेवा के द्वारा ही इस दुरन्त अज्ञान सागर को अनायास ही पर कर लूँगा ।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी! उस ब्राम्हण का दान क्या नष्ट हुआ, उसका सारा क्लेश ही दूर हो गया। अब वह संसार से विरक्त हो गया था और संन्यास लेकर पृथ्वी में स्वच्छन्द विचर रहा था। यद्यपि दुष्टों ने उसे बहुत सताया, फिर भी वह अपने धर्म में अटल रहा, तनिक भी विचलित न हुआ। उस समय वह मौनी अवधूत मन-ही-मन इस प्रकार का गीत गाया करता था । उद्धवजी! इस संसार में मनुष्य को कोई दूसरा सुख या दुःख नहीं देता, यह तो उसके चित्त का भ्रम मात्र है। यह सारा संसार और इसके भीतर मित्र, उदासीन और शत्रु के भेद अज्ञानकल्पित हैं । इसलिये प्यारे उद्धव! अपनी वृत्तियों को मुझमें तन्मय कर दो और इस प्रकार अपनी सारी शक्ति लगाकर मन को वश में कर लो और फिर मुझमें ही नित्य युक्त होकर स्थित हो जाओ। बस, सारे योग साधन का इतना ही सार-संग्रह है । यह भिक्षुक का गीत क्या है, मुर्तिमान् ब्रम्हज्ञान-निष्ठा ही है। जो पुरुष एकाग्रचित्त से इसे सुनता, सुनाता और धारण करता है वह कभी सुख-दुःखादि द्वन्दों के वश में नहीं होता। उनके बीच में भी वह सिंह के समान दहाड़ता रहता है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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