श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 27 श्लोक 1-15

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

एकादश स्कन्ध: सप्तविंशोऽध्यायः (27)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तविंशोऽध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


क्रिया योग का वर्णन

उद्धवजी ने पूछा—भक्तवत्सल श्रीकृष्ण! जिस क्रिया योग का आश्रय लेकर जो भक्तजन जिस प्रकार से जिस उद्देश्य से आपकी अर्चा-पूजा करते हैं, आप अपने उस आराधना रूप क्रिया योग का वर्णन कीजिये । देवर्षि नारद, भगवान व्यासदेव और आचार्य बृहस्पति आदि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि यह बात बार-बार कहते हैं कि क्रिया योग के द्वारा आपकी आराधना ही मनुष्यों के परम कल्याण की साधना है । यह क्रिया योग पहले-पहल आपके मुखारविन्द से ही निकला था। आपसे ही ग्रहण करके इसे ब्रम्हाजी ने अपने पुत्र भृगु आदि महर्षियों को और भगवान शंकर ने अपनी अर्द्धांगिनी भगवती पार्वतीजी को उपदेश किया था । मर्यादा रक्षक प्रभो! यह क्रिया योग ब्राम्हण-क्षत्रिय आदि वर्णों और ब्रम्हचारी-गृहस्थ आदि आश्रमों के लिये भी परम कल्याणकारी है। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि स्त्री-शुद्रादि के लिये भी यही सबसे श्रेष्ठ साधना-पद्धति है । कमलनयन श्यामसुन्दर! आप शंकर आदि जगदीश्वरों के भी ईश्वर हैं और मैं आपके चरणों का प्रेमी भक्त हूँ। आप कृपा करके मुझे यह कर्मबन्धन से मुक्त करने वाली विधि बतलाइये । भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धवजी! कर्मकाण्ड का इतना विस्तार है कि उसकी कोई सीमा नहीं है; इसलिये मैं उसे थोड़े में ही पूर्वापर क्रम से विधिपूर्वक वर्णन करता हूँ । मेरी पूजा की तीन विधियाँ हैं—वैदिक, तान्त्रिक और मिश्रित। इन तीनों में से मेरे भक्त को जो भी अपने अनुकूल जान पड़े, उसी विधि से मेरी आराधना करनी चाहिये । पहले अपने अधिकारानुसार शास्त्रोक्त विधि से समय पर यज्ञोपवीत-संस्कार के द्वारा संस्कृत होकर द्विजत्व प्राप्त करे, फिर श्रद्धा और भक्ति के साथ वह किस प्रकार मेरी पूजा करे, इसकी विधि तुम मुझसे सुनो । भक्तिपूर्वक निष्कपट भाव से अपने पिता एवं गुरुरूप मुझ परमात्मा का पूजा की सामग्रियों के द्वारा मूर्ति में, वेदी में, अग्नि में, सूर्य में, जल में, हृदय में अथवा ब्राम्हण में—चाहे किसी में भी आराधना करे । उपासक को चाहिये कि प्रातःकाल दतुअन करके पहले शरीर शुद्धि के लिये स्नान करे और फिर वैदिक और तान्त्रिक दोनों प्रकार के मन्त्रों से मिट्टी और भस्म आदि का लेप करके पुनः स्नान करे । इसके पश्चात् देवोक्त सन्ध्या-वन्दनादि नित्यकर्म करने चाहिये। उसके बाद मेरी आराधना का ही सुदृश संकल्प करके वैदिक और तान्त्रिक विधि से कर्मबन्धनों से छुड़ाने वाली मेरी पूजा करे । मेरी मूर्ति आठ प्रकार की होती है—पत्थर की, लकड़ी की, धातु की, मिट्टी और चन्दन आदि की, चित्रमयी, बालुकामयी, मनोमयी और मणिमयी । चल और अचल भेद से दो प्रकार की प्रतिमा ही मुझ भगवान का मन्दिर है। उद्धवजी! अचल प्रतिमा के पूजन में प्रतिदिन आवाहन और विसर्जन नहीं करना चाहिये । चल प्रतिमा के सम्बन्ध में विकल्प है। चाहे करे और चाहे न करे। परन्तु बालुकामयी प्रतिमा में तो आवाहन और विसर्जन प्रतिदिन करना ही चाहिये। मिट्टी और चन्दन की तथा चित्रमयी प्रतिमाओं को स्नान न करावे, केवल मार्जन कर दे; परन्तु और सबको स्नान कराना चाहिये । प्रसिद्ध-प्रसिद्ध पदार्थों से प्रतिमा आदि में मेरी पूजा की जाती है, परन्तु जो निष्काम भक्त हैं, वह अनायास प्राप्त पदार्थों से और भावना मात्र से ही हृदय में मेरी पूजा कर ले ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-