श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 1-13
एकादश स्कन्ध: नवमोऽध्यायः (9)
अवधूतोपाख्यान—कुर से लेकर भृंगी तक सात गुरुओं की कथा
अवधूत दत्तात्रेयजी ने कहा—राजन्! मनुष्यों को जो वस्तुएँ अत्यन्त प्रिय लगती हैं, उन्हें इकठ्ठा करना ही उनके दुःख का कारण है। जो बुद्धिमान पुरुष यह बात समझकर अकिंचन भाव से रहता है—शरीर की तो बात ही अलग, मन से भी किसी वस्तु का संग्रह नहीं करता—उसे अनन्त सुखस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति होती है । एक कुरर पक्षी अपनी चोंच में मांस का टुकड़ा लिये हुए था। उस समय दूसरे बलवान् पक्षी, जिनके पास मांस नहीं था, उससे छिनने के लिये उसे घेरकर चोंचें मारने लगे। जब कुरर पक्षी ने अपनी चोंच से मांस का टुकड़ा फेंक दिया, तभी उसे सुख मिला । मुझे मान या अपमान का कोई ध्यान नहीं है और घर एवं परिवार वालों को चिन्ता होती है, वह मुझे नहीं है। मैं अपने आत्मा में ही रमता हूँ और अपने साथ ही क्रीडा करता हूँ। यह शिक्षा मैंने बालक से ली है। अतः उसी के समान मैं भी मौज से रहता हूँ । इस जगत् में दो ही प्रकार के व्यक्ति निश्चिन्त और परमानन्द में मग्न रहते हैं—एक तो भोला भाला निश्चेष्ट नन्हा-सा बालक और दूसरा वह पुरुष जो गुणातीत हो गया हो । एक बार किसी कुमारी कन्या के घर उसे वरण करने के लिये कई लोग आये हुए थे। उस दिन उसके घर के लोग कहीं बाहर गये हुए थे। इसलिए उसने स्वयं ही उनका आतिथ्यसत्कार किया । राजन्! उनको भोजन कराने के लिये वह घर के भीतर एकान्त में धान कूटने लगी। उस समय कलाई में पड़ी शंख की चूड़ियाँ जोर-जोर बज रही थीं । इस शब्द को निन्दित समझकर कुमार को बड़ी लज्जा मालूम हुई[1] और उसने एक-एक करके सब चूड़ियाँ तोड़ डाली और दोनों हाथों में केवल दो-दो चूड़ियाँ रहने दीं । अब वह फिर धान कूटने लगी। परन्तु वे दो-दो चूड़ियाँ भी बजने लगीं, तब उसने एक-एक चूड़ी और तोड़ दी। जब दोनों कलाईयों में केवल एक-एक चूड़ी रह गयी तब किसी प्रकार की आवाज नहीं हुई । रिपुदमन! उस समय लोगों का आचार-विचार निरखने-परखने के लिये इधर-उधर घूमता-घामता मैं भी वहाँ पहुँच गया था। मैंने उससे यह शिक्षा ग्रहण की कि जब बहुत लोग एक साथ रहते हैं तब कलह होता है और दो आदमी साथ रहते हैं तब भी बातचीत हो होती ही है; इसलिये कुमार कन्या की चूड़ी के समान अकेले ही विचरना चाहिये । राजन्! मैंने बाण बनाने वाले से यह सीखा है कि आसन और श्वास को जीतकर वैराग्य और अभ्यास के द्वारा अपने मन को वश कर ले और फिर बड़ी सावधानी के साथ उसे एक लक्ष्य में लगा दे । जब परमानन्दस्वरूप परमात्मा में मन स्थिर हो जाता है तब वह धीरे-धीरे कर्मवासनाओं की धूल को धो बहाता है। सत्वगुण की वृद्धि से रजोगुणी और तमोगुणी वृत्तियों का त्याग करके मन वैसे ही शान्त हो जाता है, जैसे ईंधन के बिना अग्नि , इस प्रकार जिसका चित्त अपने आत्मा में ही स्थिर—निरुद्ध हो जाता है, उसे बाहर-भीतर कहीं किसी पदार्थ का भान नहीं होता। मैंने देखा था कि एक बाण बनाने वाला कारीगर बाण बनाने में इतना तन्मय हो रहा था कि उसके पास से ही एक दलबल के साथ राजा की सवारी निकल गयी और उसे पता तक न चला ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ क्योंकि उससे उसका स्वयं धान कूटना सूचित होता था, जो कि उसकी दरिद्रता का द्दोतक था।
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