श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 26-38
दशम स्कन्ध: दशमोऽध्यायः (पूर्वार्ध)
यह विचार करके भगवान श्रीकृष्ण दोनों वृक्षों के बीच में घुस गये।[1] वे तो दूसरी ओर निकल गये, परन्तु ऊखल टेढ़ा होकर अटक गया । दामोदर भगवान श्रीकृष्ण की कमर में रस्सी कसी हुई थी। उन्होंने अपने पीछे लुढ़कते हुए ऊखल को ज्यों ही तनिक जोर से खींचा, त्यों ही पेड़ों की सारी जड़ें उखड़ गयीं।[2] समस्त बल-विक्रम के केन्द्र भगवान का तनिक-सा ज़ोर लगते ही पेड़ों के तने, शाखाएँ, छोटी-छोटी डालियाँ और एक-एक पत्ते काँप उठे और वे दोनों बड़े ज़ोर से तड़तड़ाते हुए पृथ्वी पर गिर पड़े। उन दोनों वृक्षों में से अग्नि के समान तेजस्वी दो सिद्ध पुरुष निकले। उनके चमचमाते हुए सौन्दर्य से दिशाएँ दमक उठीं। उन्होंने सम्पूर्ण लोकों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण के पास आकर उनके चरणों में सर रखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर शुद्ध हृदय से वे उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे -
उन्होंने कहा - सच्चिदानन्दस्वरूप! सबको अपनी ओर आकर्षित करने वाले परम योगेश्वर श्रीकृष्ण! आप प्रकृति से अतीत स्वयं पुरुषोत्तम हैं। वेदज्ञ ब्राह्मण यह बात जानते हैं कि यह व्यक्त और अव्यक्त सम्पूर्ण जगत आपका ही रूप है। आप ही समस्त प्राणियों के शरीर, प्राण, अंतःकरण और इन्द्रियों के स्वामी हैं तथा आप ही सर्वशक्तिमान काल, सर्वव्यापक एवं अविनाशी ईश्वर हैं। आप ही महत्तत्त्व और वह प्रकृति हैं, जो अत्यन्त सूक्ष्म एवं सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुणरूपा है। आप ही समस्त स्थूल और सूक्ष्म शरीरों के कर्म, भाव, धर्म और सत्ता को जानने वाले सबके साक्षी परमात्मा हैं। वृत्तियों से ग्रहण किये जाने वाले प्रकृति के गुणों और विकारों के द्वार आप पकड़ में नहीं आ सकते।
स्थूल और सूक्ष्म शरीर के आवरण से ढका हुआ ऐसा कौन-सा पुरुष है, जो आपको जान सक? क्योंकि आप तो उन शरीरों के पहले भी एकरस विद्यमान थे । समस्त प्रपंच के विधाता भगवान वासुदेव को हम नमस्कार करते हैं। प्रभो! आपके द्वारा प्रकाशित होने वाले गुणों से ही आपने अपनी महिमा छिपा रखी है। परब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण! हम आपको नमस्कार करते हैं। आप प्राकृत शरीर से रहित हैं। फिर भी जब ऐसे पराक्रम प्रकट करते हैं, जो साधारण शरीरधारियों के लिए शक्य नहीं है और जिसने बढ़कर तो क्या जिनके समान भी कोई नहीं कर सकता, तब उनके द्वारा उन शरीरों में आपके अवतारों का पता चलता है।
प्रभो! आप ही समस्त लोकों के अभ्युदय और निःश्रेयसके लिए इस समय अपनी सम्पूर्ण शक्तियों से अवतीर्ण हुए हैं। आप समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले हैं। परम कल्याण (साध्य) स्वरूप! आपको नमस्कार है। परम मंगल (साधन) स्वरूप! आपको नमस्कार हैं। परम शान्त, सबके हृदय में विहार करनेवाले यदुवंश शिरोमणि श्रीकृष्ण को नमस्कार है। अनन्त! हम आपके दासानुदास हैं। आप यह स्वीकार कीजिये। देवर्षि भगवान नारद के परम अनुग्रह से ही हम अपराधियों को आपका दर्शन प्राप्त हुआ है।
प्रभो! हमारी वाणी आपके मंगलमय गुणों का वर्णन करती रहे। हमारे कान आपकी रसमयी कथा में लगे रहें। हमारे हाथ आपकी सेवा में और मन आपके चरण-कमलों की स्मृति में रम जाये। यह सम्पूर्ण जगत आपका निवास-स्थान है। हमारा मस्तक सबके सामने झुका रहे। संत आपके प्रत्यक्ष शरीर हैं। हमारी आँखें उनके दर्शन करती रहें।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वृक्षों के बीच में जाने का आशय यह है कि भगवान जिसके अन्तर्देश में प्रवेश करते हैं, उसके जीवन में क्लेश का लेश भी नहीं रहता। भीतर प्रवेश किये बिना दोनों का एक साथ उद्धार भी कैसे होता।
- ↑ जो भगवान के गुण (भक्त-वत्सल आदि सगुण या रस्सी) से बँधा हुआ है, यह तिर्यक गति (पशु-पक्षी या टेढ़ी चाल वाला) ही क्यों न हो - दूसरों का उद्धार कर सकता है।
अपने अनुयायी के द्वारा किया हुआ काम जितना यशस्कर होता है, उतना अपने हाथ से नहीं। मानो यही सोचकर अपने पीछे-पीछे चलने वाले ऊखल के द्वारा उनका उद्धार करवाया।
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