श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 1-11

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दशम स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्यायः(13) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

ब्रम्हाजी का मोह और उसका नाश

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! तुम बड़े भाग्यवान् हो। भगवान के प्रेमी भक्तों में तुम्हारा स्थान श्रेष्ठ है। तभी तो तुमने इतना सुन्दर प्रश्न किया है। यों तो तुम्हें बार-बार भगवान की लीला-कथाएँ सुनने को मिलती हैं, फिर भी तुम उनके सम्बन्ध में प्रश्न करके उन्हें और भी सरस—और भी नूतन बना देते हो । रसिक संतों की वाणी, कान और हृदय भगवान की लीला के गान, श्रवण और चिन्तन के लिये ही होते हैं—उनका यह स्वभाव ही होता है कि वे क्षण-प्रतिक्षण भगवान की लीलाओं को अपूर्व रसमयी और नित्य-नूतन अनुभव करते रहें—ठीक वैसे ही, जैसे लम्पट पुरुषों को स्त्रियों की चर्चा में नया-नया रस जान पड़ता है । परीक्षित्! तुम एकाग्र चित्त से श्रवण करो। यद्यपि भगवान की यह लीला अत्यन्त रहस्यमयी है, फिर भी मैं तुम्हें सुनाता हूँ। क्योंकि दयालु आचार्यगण अपने प्रेमी शिष्य को गुप्त सहस्य भी बतला दिया करते हैं । यह तो मैं तुमसे कह ही चुका हूँ कि भगवान श्रीकृष्ण ने अपने साथी ग्वालबालों को मृत्युरूप अघासुर के मुँह से बचा लिया। इसके बाद वे उन्हें यमुनाजी के पुलिनपर ले आये और उनसे कहने लगे— ‘मेरे प्यारे मित्रों! यमुनाजी का यह पुलिन अत्यन्त रमणीय है। देखो तो सही, यहाँ की बालू कितनी कोमल और स्वच्छ है। हम लोगों के लिए खेलने की तो यहाँ सभी सामग्री विद्यमान है। देखो, एक ओर रंग-बिरंगे कमल खिले हुए हैं और उनकी सुगन्ध से खिंचकर भौंरे गुंजार कर रहे हैं; तो दूसरी ओर सुन्दर-सुन्दर पक्षी बड़ा ही मधुर कलरव कर रहे हैं, जिसकी प्रतिध्वनि से सुशोभित वृक्ष इस स्थान की शोभा बढ़ा रहे हैं । अब हमलोगों को यहाँ भोजन कर लेना चाहिए; क्योंकि दिन बहुत चढ़ आया है और हम लोग भूख से पीड़ित हो रहे हैं। बछड़े पानी पीकर समीप ही धीरे-धीरे हरी-हरी घास चरते रहें’।

ग्वालबालों ने एक स्वर से कहा—‘ठीक है, ठीक है!’ उन्होंने बछड़ों को पानी पिलाकर हरी-हरी घास में छोड़ दिया और अपने-अपने छीके खोल-खोलकर भगवान के साथ बड़े आनन्द से भोजन करने लगे । सबके बीच में भगवान श्रीकृष्ण बैठ गये। उनके चारों ओर ग्वालबालों ने बहुत-सी मण्डलाकार पंक्तियाँ बना लीं और एक-से-एक सटकर बैठ गये। सबके मुँह श्रीकृष्ण की ओर थे और सबकी आँखें आनन्द से खिल रहीं थीं। वन-भोजन के समय श्रीकृष्ण के साथ बैठे हुए ग्वालबाल ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो कमल की कर्णिका के चारो ओर उसकी छोटी-बड़ी पंखुड़ियाँ सुशोभित हो रही हों । कोई पुष्प तो कोई पत्ते और कोई-कोई पल्लव, अंकुर, फल, छीके, छाल एवं पत्थरों के पात्र बनाकर भोजन करने लगे । भगवान श्रीकृष्ण और ग्वालबाल सभी परस्पर अपनी-अपनी भिन्न-भिन्न रुचि का प्रदर्शन करते। कोई किसी को हँसा देता, तो कोई स्वयं ही हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाता। इस प्रकार वे सब भोजन करने लगे । (उस समय श्रीकृष्ण की छटा सबसे निराली थी) उन्होंने मुरली को तो कमर की फेंट में आगे की ओर खोंस लिया था। सींगी और बेंत बगल में दबा लिये थे। बायें हाथ में बड़ा ही मधुर घृतमिश्रित दही-भात का ग्रास था और अँगुलियों में अदरक, नीबू आदि के अचार-मुरब्बे दबा रखे थे। ग्वालबाल उनको चारों ओर से घेरकर बैठे हुए थे और वे स्वयं सबके बीच में बैठकर अपनी विनोदभरी बातों से अपने साथी ग्वालबालों को हँसाते जा रहें थे। जो समस्त यज्ञों के एकमात्र भोक्ता हैं, वे ही भगवान ग्वालबालों के साथ बैठकर इस प्रकार बाल-लीला करते हुए भोजन कर रहे थे और स्वर्ग के देवता आश्चर्यचकित होकर यह अद्भुत लीला देख रहे थे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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