श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 1-9
दशम स्कन्ध: षोडशोऽध्यायः(16) (पूर्वार्ध)
कालिया पर कृपा
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि महाविषधर कालिय नाग ने यमुनाजी का जल विषैला कर दिया है। तब यमुनाजी को शुद्ध करने के विचार से उन्होंने वहाँ से सर्प को निकाल दिया ।
राजा परीक्षित् ने पूछा—ब्रम्हन! भगवान श्रीकृष्ण ने यमुनाजी के अगाध जल में किस प्रकार उस सर्प का दमन किया ? फिर कालिय नाग तो जलचर जीव नहीं था, ऐसी दशा में वह अनेक युगों तक जल में क्यों और कैसे रहा ? सो बतलाइये । ब्रम्हस्वरूप महात्मन्! भगवान अनन्त हैं। वे अपनी लीला प्रकट करके स्वच्छन्द विहार करते हैं। गोपालरूप से उन्होंने जो उदार लीला की है, वह तो अमृतस्वरूप है। भला, उसके सेवन से कौन तृप्त हो सकता है ?
श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित्! यमुनाजी में कालिय नाग का एक कुण्ड था। उसका जल विष की गर्मी से खौलता रहता था। यहाँ तक कि उसके ऊपर उड़ने वाले पक्षी भी झुलसकर उसमें गिर जाया करते थे उसके विषैले जल की उत्ताल तरंगों का स्पर्श करके तथा उसकी छोटी-छोटी बूँदे लेकर जब वायु बाहर आती और तट के घास-पात, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि का स्पर्श करती, तब वे उसी समय मर जाते थे । परीक्षित्! भगवान का अवतार तो दुष्टों का दमन करने के लिये होता ही है। जब उन्होंने देखा कि उस साँप के विष का वेग बड़ा प्रचण्ड (भयंकर) है और वह भयानक विष ही उसका महान् बल है तथा उसके कारण मेरे विहार का स्थान यमुनाजी भी दूषित हो गयी हैं, तब भगवान श्रीकृष्ण अपनी कमर का फेंटा कसकर एक बहुत ऊँचे कदम्ब के वृक्ष पर चढ़ गये और वहाँ से ताल ठोंककर उस विषैले जल में कूद पड़े । यमुनाजी का जल साँप के विष के कारण पहले से ही खौल रहा था। उसकी तरंगें लाल-पीली और अत्यन्त भयंकर उठ रहीं थीं। पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के कूद पड़ने से उसका जल और भी उछलने लगा। उस समय तो कालियदह का जल इधर-उधर उछलकर चार सौ हाथ तक फ़ैल गया। अचिन्त्य अनन्त बलशाली भगवान श्रीकृष्ण के लिये इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । प्रिय परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण कालियादह में कूदकर अतुल बलशाली मतवाले गजराज के समान जल उछालने लगे। इस प्रकार जल-क्रीड़ा करने पर उनकी भुजाओं की टक्कर से जल में बड़े जोर का शब्द होने लगा। आँख से ही सुनने वाले कालिय नाग ने वह आवाज सुनी और देखा कि कोई मेरे निवासस्थान का तिरस्कार कर रहा है। उसे यह सहन न हुआ। वह चिढ़कर भगवान श्रीकृष्ण के सामने आ गया । उसने देखा कि सामने एक साँवला—सलोना बालक है। वर्षाकालीन मेघ के समान अत्यन्त सुकुमार शरीर है, उसमें लगकर आँखें हटने का नाम ही नहीं लेतीं। उसके वक्षःस्थल पर एक सुनहली रेखा—श्रीवत्स का चिन्ह है और वह पीले रंग का वस्त्र धारण किये हुए हैं। बड़े मधुर एवं मनोहर मुख पर मन्द-मन्द मुसकान अत्यन्त शोभायमान हो रही है। चरण इतने सुकुमार और सुन्दर हैं, मानो कमल की गद्दी हो। इतना आकर्षक रूप होने पर भी जब कालिय नाग ने देखा कि बालक तनिक भी न डरकर इस विषैले जल में मौज से खेल रहा है, तब उसका क्रोध और भी बढ़ गया। उसने श्रीकृष्ण को मर्मस्थानों में डंसकर अपने शरीर के बन्धन से उन्हें जकड़ लिया ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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