श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 17 श्लोक 14-25

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दशम स्कन्ध: सप्तदशोऽध्यायः (17) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तदशोऽध्यायः श्लोक 14-25 का हिन्दी अनुवाद

उनको देखकर सब-के-सब व्रजवासी इस प्रकार उठ खड़े हुए, जैसे प्राणों को पाकर इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं। सभी गोपों का हृदय आनन्द से भर गया। वे बड़े प्रेम और प्रसन्नता से अपने कन्हैया को हृदय से लगाने लगे । परीक्षित! यशोदारानी, रोहिणीजी, नन्दबाबा, गोपी और गोप—सभी श्रीकृष्ण को पाकर सचेत हो गये। उनका मनोरथ सफल हो गया । बलरामजी तो भगवान का प्रभाव जानते ही थे। वे श्रीकृष्ण को हृदय लगाकर हँसने लगे। पर्वत, वृक्ष, गाय, बैल, बछड़े—सब-के-सब आनन्दमग्न हो गये ।

गोपों के कुलगुरु ब्राम्हणों ने अपनी पत्नियों के साथ नन्दबाबा के पास आकर कहा—‘नन्दजी! तुम्हारे बालक को कालिय नाग ने पकड़ लिया था। सो छूटकर आ गया। यह बड़े सौभाग्य की बात है! श्रीकृष्ण के मृत्यु के मुख से लौट आने के उपलक्ष्य में तुम ब्राम्हणों को दान करो।’ परीक्षित! ब्राम्हणों की बात सुनकर नन्दबाबा को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने बहुत-सा सोना और गौएँ ब्राम्हणों को दान दीं । परम सौभाग्यवती देवी यशोदा ने भी काल के गाल से बचे हुए अपने लाल को गोद में लेकर हृदय से चिपका लिया। उनकी आँखों से आनन्द के आँसुओं की बूँदें बार-बार टपकी पड़ती थीं ।

राजेन्द्र! व्रजवासी और गौएँ सब बहुत ही थक गये थे। ऊपर से भूख-प्यास भी लग रही थी। इसलिये उस रात वे व्रज में नहीं गये, वहीँ यमुनाजी के तटपर सो रहे । गर्मी के दिन थे, उधर का वन सूख गया था। आधी रात के समय उसमें आग लग गयी। उस आगने सोये हुए व्रजवासियों को चारों ओर से घेर लिया और वह उन्हें जलाने लगी । आग की आँच लगने पर व्रजवासी घबड़ाकर उठ खड़े हुए और लीला-मनुष्य भगवान श्रीकृष्ण की शरण में गये । उन्होंने कहा—‘प्यारे श्रीकृष्ण! श्यामसुंदर! महाभाग्यवान् बलराम! तुम दोनों का बल-विक्रम अनन्त है। देखो, देखो, यह भयंकर आग तुम्हारे सगे-सम्बन्धी हम स्वजनों को जलाना ही चाहती है । तुममें सब सामर्थ्य है। हम तुम्हारे सुहृद् हैं, इसलिये इस प्रलय की अपार आग से हमें बचाओ। प्रभो! हम मृत्यु से नहीं डरते, परन्तु तुम्हारे अकुतोभय चरणकमल छोड़ने में हम असमर्थ हैं । भगवान अनन्त हैं; वे अनन्त शक्तियों को धारण करते हैं, उन जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने जब देखा कि मेरे स्वजन इस प्रकार व्याकुल हो रहे हैं तब वे उस भयंकर आग को पी गये[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अग्नि पान
    1. मैं सबका दाह दूर करने के लिये ही अवतीर्ण हुआ हूँ। इसलिये यह दाह दूर करना भी मेरा कर्तव्य है।
    2. रामावतार में श्रीजानकीजी को सुरक्षित रखकर अग्नि ने मेरा उपकार किया था। अब उसको अपने मुख में स्थापित करके उसका सत्कार करना कर्तव्य है।
    3. कार्य का कारण में लय होता है। भगवान के मुख से अग्नि प्रकट हुआ—मुखाद् अग्निर जायत। इसलिये भगवान ने उसे मुख में ही स्थापित किया।
    4. मुख के द्वारा अग्नि शान्त करके यह भाव प्रकट किया कि भव-दावाग्नि को शान्त करने में भगवान के मुख स्थानीय ब्राम्हण ही समर्थ हैं।

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