श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 18 श्लोक 27-32
दशम स्कन्ध: अष्टादशोऽध्यायः (18) (पूर्वार्ध)
उसकी आँखें आग की तरह धधक रही थीं और दाढ़े भौंहों तक पहुँची हुई बड़ी भयावनी थीं। उसके लाल-लाल बाल इस तरह बिखर रहे थे, मानो आग की लपटें उठ रही हों। उसके हाथ और पाँवों में कड़े, सिपर मुकुट और कानों में कुण्डल थे। उनकी कान्ति से वह बड़ा अद्भुत लग रहा था! उस भयानक दैत्य को बड़े वेग से आकाश में जाते देख पहले तो बलरामजी कुछ घबड़ा-से गये । परन्तु दूसरे ही क्षण अपने स्वरूप की याद आते ही उनका भय जाता रहा। बलरामजी ने देखा कि जैसे चोर किसी का धन चुराकर ले जाय, वैसे ही यह शत्रु मुझे चुराकर आकाश-मार्ग से लिये जा रहा है। उस समय जैसे इन्द्र ने पर्वतों पर वज्र चलाया था, वैसे ही उन्होंने क्रोध करके उसके सिरपर एक घूँसा कस कर जमाया । घूँसा लगना था कि उसका सिर चूर-चूर हो गया। वह मुँह से खून उगलने लगा, चेतना जाती रही और बड़ा भयंकर शब्द करता हुआ इन्द्र के द्वारा वज्र से मारे हुए पर्वत के समान वह उसी समय प्राणहीन होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा ।
बलरामजी परम बलशाली थे। जब ग्वालबालों ने देखा कि उन्होंने प्रलम्बासुर को मार डाला, तब उनके आश्चर्य की सीमा रही। वे बार-बार ‘वाह-वाह’ करने लगे । ग्वालबालों का चित्त प्रेम से विह्वल हो गया। वे उनके लिये शुभकामनाओं की वर्षा करने लगे और मानो मरकर लौट आयें हों, इस भाव से आलिंगन करके प्रशंसा करने लगे। वस्तुतः बलरामजी इसके योग्य ही थे ।
प्रलम्बासुर मूर्तिमान् पाप था। उसकी मृत्यु से देवताओं को बड़ा सुख मिला। वे बलरामजी पर फूल बरसाने लगे और ‘बहुत अच्छा किया, बहुत अच्छा किया’ इस प्रकार कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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