श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 20 श्लोक 13-25

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

दशम स्कन्ध: विंशोऽध्यायः (20) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: विंशोऽध्यायः श्लोक 13-25 का हिन्दी अनुवाद

नये बरसाती जल के सेवन से सभी जलचर और थलचर प्राणियों की सुन्दरता बढ़ गयी थी, जैसे भगवान की सेवा करने से बाहर और भीतर के दोनों ही रूप सुघड़ हो जाते हैं । वर्षा-ऋतु में हवा के झोकों से समुद्र एक तो यों ही उत्ताल तरंगों से युक्त हो रहा था, अब नदियों के संयोग से वह और भी क्षुब्ध हो उठा—ठीक वैसे ही जैसे वासनायुक्त योगी का चित्त विषयों का सम्पर्क होने पर कामनाओं के उभार से भर जाता है । मूसलधार वर्षा की चोट खाते रहने पर भी पर्वतों को कोई व्यथा नहीं होती थी—जैसे दुःखों की भरमार होने पर भी उन पुरुषों को किसी प्रकार की व्यथा नहीं होती, जिन्होंने अपना चित्त भगवान को ही समर्पित कर रखा है । जो मार्ग कभी साफ नहीं किये जाते थे, वे घास से ढक गये और उनको पहचानना कठिन हो गया—जैसे जब द्विजाति वेदों का अभ्यास नहीं करते, तब कालक्रम से वे उन्हें भूल जाते हैं । यद्यपि बादल बड़े लोकोपकारी हैं, फिर भी बिजलियाँ उनमें स्थिर नहीं रहतीं—ठीक वैसे ही, जैसे चपल अनुरागवाली कामिनी स्त्रियाँ गुणी पुरुषों के पास भी स्थिरस्वाभाव से नहीं रहतीं । आकाश मेघों के गर्जन-तर्जन से भर रहा था। उसमें निर्गुण (बिना डोरी के) इन्द्रधनुष की वैसी ही शोभा हुई, जैसी सत्व-रज आदि गुणों के क्षोभ से होने वाले विश्व के बखेड़े में निर्गुण ब्रम्ह की । यद्यपि चन्द्रमा की उज्ज्वल चाँदनी से बादलों का पता चलता था, फिर भी उन बादलों ने ही चन्द्रमा को ढककर शोभाहीन भी बना दिया था—ठीक वैसे ही, जैसे पुरुष के आभास से आभासित होने वाला अहंकार ही उसे ढककर प्रकाशित नहीं होने देता । बादलों के शुभागमन से मोरों का रोम-रोम खिल रहा था, वे अपनी कुहक और नृत्य के द्वारा आनन्दोत्सव मना रहे थे—ठीक वैसे ही, जैसे गृहस्थी के जंजाल में फँसे हुए लोग, जो अधिकतर तीनों तापों से जलते और घबराते रहते हैं, भगवान के भक्तों के शुभागमन से आनन्द-मग्न हो जाते हैं । जो वृक्ष जेठ-अषाढ़ में सूख गये थे, वे अब अपनी जड़ों से जल पीकर पत्ते, फूल तथा डालियों से खूब सज-धज गये—जैसे सकामभाव से तपस्या करने वाले पहले तो दुर्बल हो जाते हैं, परन्तु कामना पूरी होने पर मोटे-तगड़े हो जाते हैं । परीक्षित्! तालाबों के तट, काँटे-कीचड़ और जल के बहाव के कारण प्रायः अशान्त ही रहते थे, परन्तु सारस एक क्षण के लिये भी उन्हें नहीं छोड़ते थे—जैसे अशुद्ध हृदयवाले विषयी पुरुष काम-धंधों की झंझट से कभी छुटकारा नहीं पाते, फिर भी घरों में ही पड़े रहते हैं । वर्षा ऋतु में इन्द्र की प्रेरणा से मूसलधार वर्षा होती है, इससे नदियों के बाँध और खेतों की मेड़ें टूट-फूट जाती हैं—जैसे कलियुग में पाखण्डियों के तरह-तरह के मिथ्या मतवादों से वैदिक मार्ग की मार्ग की मर्यादा ढीली पड़ जाती है । वायु की प्रेरणा से घने बादल प्राणियों के लिये अमृतमय जल की वर्षा करने लगते हैं—जैसे ब्राम्हणों की प्रेरणा से धनी लोग समय-समय पर दान के द्वारा प्रजा की अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं ।

वर्षा ऋतु में विन्दावन इसी प्रकार शोभायमान और पके हुए खजूर तथा जामुनों से भर रहा था। उसी वन में विहार करने के लिये श्याम और बलराम ने ग्वालबाल और गौओं के साथ प्रवेश किया ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-