श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 34 श्लोक 15-26

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दशम स्कन्ध: चतुस्त्रिंशोऽध्यायः (34) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुस्त्रिंशोऽध्यायः श्लोक 15-26 का हिन्दी अनुवाद

समस्त पापों का नाश करने वाले प्रभो! जो लोग जन्म-मृत्युरूप संसार से भयभीत होकर आपके चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें आप समस्त भयों से मुक्त कर देते हैं। अब मैं आपके श्रीचरणों के स्पर्श से शाप छुट गया हूँ और अपने लोक में लोक में जाने की अनुमति चाहता हूँ । भक्तवत्सल! महायोगेश्वर पुरुषोत्तम! मैं आपकी शरण में हूँ। इन्द्रादि समस्त लोकेश्वरों के परमेश्वर! स्वयंप्रकाश परमात्मन्! मुझे आज्ञा दीजिये । अपने स्वरूप में नित्य-निरन्तर एकरस रहने वाले अच्युत! आपके दर्शनमात्र से मैं ब्राम्हणों के शाप से मुक्त हो गया, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि जो पुरुष आपके नामों का उच्चारण करता है, वह अपने-आपको और समस्त श्रोताओं को भी तुरन्त पवित्र कर देता है। फिर मुझे तो आपने स्वयं अपने चरणकमलों से स्पर्श किया है। तब भला, मेरी मुक्ति में क्या सदेह हो सकता है ? इस प्रकार सुदर्शन ने भगवान श्रीकृष्ण से विनती की, परिक्रमा की और प्रणाम किया। फिर उनसे आज्ञा लेकर वह अपने लोक में चला गया और नन्दबाबा इस भारी संकट से छूट गये । राजन्! जब व्रजवासियों ने भगवान श्रीकृष्ण का यह अद्भुत प्रभाव देखा, तब उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। उन लोगों ने उस क्षेत्र में जो नियम ले रखे थे, उनके पूर्ण करके वे बड़े आदर और प्रेम से श्रीकृष्ण की उस लीला का गान करते हुए पुनः व्रज में लौट आये ।

एक दिन की बात है, अलौकिक कर्म करने वाले भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी रात्रि के समय वन में गोपियों के साथ विहार कर रहे थे । भगवान श्रीकृष्ण निर्मल पीताम्बर और बलरामजी नीलाम्बर धारण किये हुए थे। दोनों के गले में फूलों के सुन्दर-सुन्दर हार लटक रहे थे तथा शरीर के अंगराग, सुगन्धित चन्दन लगा हुआ था और सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहने हुए थे। गोपियाँ बड़े प्रेम और आनन्द से ललित स्वर में उन्हीं के गुणों का गान कर रही थीं । अभी-अभी सायंकाल हुआ था। आकाश में तारे उग आये थे और चाँदनी छिटक रही थी। बेला के सुन्दर गन्ध से मतवाले होकर भौंरें इधर-उधर गुनगुना रहे थे तथा जलाशय में खिली हुई कुमुदिनी का सुगन्ध लेकर वायु मन्द-मन्द चल रही थी। उस समय उनका सम्मान करते हुए भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी ने एक ही साथ मिलकर राग अलापा। उनका राग आरोह-अवरोह स्वरों के चढ़ाव-उतार से बहुत ही सुन्दर लग रहा था। वह जगत् के समस्त प्राणियों के मन और कानों का आनन्द से भर देने वाला था । उनका वह गान सुन्दर गोपियाँ मोहित हो गयीं। परीक्षित्! उन्हें अपने शरीर की भी सुधि नहीं रही कि वे उसपर से खिसकते हुए वस्त्रों और चोटियों से बिखरते हुए पुष्पों को सँभाल सकें ।

जिस समय बलराम और श्याम दोनों भाई इस प्रकार स्वच्छंद विहार कर रहे थे और उन्मत्त की भाँति गा रहे थे, उसी समय वहाँ शँखचूड नामक एक यक्ष आया। वह कुबेर का अनुचर था । परीक्षित्! दोनों भाइयों के देखते-देखते वह उन गोपियों को लेकर बेखटके उत्तर की ओर भाग चला। जिनके एकमात्र स्वामी भगवान श्रीकृष्ण ही हैं, वे गोपियाँ उस समय रो-रोकर चिल्लाने लगीं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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