श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 35 श्लोक 1-7
दशम स्कन्ध: पञ्चत्रिंशोऽध्यायः (35) (पूर्वार्ध)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण के गौओं को चराने के लिये प्रतिदिन वन में चले जाने पर उनके साथ गोपियों का चित्त भी चला जाता था। उनका मन श्रीकृष्ण का चिन्तन करता रहता और वे वाणी से उनकी लीलाओं का गान करती रहतीं। इस प्रकार वे बड़ी कठिनाई से अपना दिन बितातीं ।
गोपियाँ आपस में कहतीं—अरी सखी! अपने प्रेमीजनों को प्रेम वितरण करने वाले और द्वेष करने वालों—तक को मोक्ष दे देने वाले श्यामसुन्दर नटनागर जब अपने बायें कपोल को बायीं बाँह की लटका देते हैं और अपनी भौंहें नचाते हुए बाँसुरी को अधरों से लगाते हैं तथा अपनी सुकुमार अंगुलियों को उसके छेदों पर फिराते हुए मधुर तान छेड़ते हैं, उस समय सिद्धिपत्नियाँ आकाश में अपने पति सिद्धिगणों के साथ विमानों पर चढ़कर आ जाती हैं और उस तान को सुनकर अत्यन्त ही चकित तथा विस्मित हो जाती हैं। पहले तो उन्हें अपने पतियों के साथ रहने पर भी चित्त की यह दशा देखकर लज्जा मालूम होती है; परन्तु क्षणभर में ही उनका चित्त कामबाण से बिंध जाता है, वे विवश और अचेत हो जाती हैं। उन्हें इस बात की सुधि नहीं रहती कि उनकी नीवी खुल गयी है और उनके वस्त्र खिसक गये हैं ।
अरी गोपियों! तुम यह आश्चर्य की बात सुनो! ये नन्दनन्दन कितने सुन्दर हैं। जब वे हँसते हैं तब हास्यरेखाएँ हार का रूप धारण कर लेती हैं, शुभ्र मोती-सी चमकने लगती हैं। अरी वीर! उनके वक्षःस्थल पर लहराते हुए हार में हास्य की किरणें चमकने लगती हैं। उनके वक्षःस्थल पर जो श्रीवत्स की सुनहली रेखा है, वह तो ऐसी जान पड़ती है, मानो श्याम मेघ पर बिजली ही स्थिररूप से बैठ गयी है। वे जब दुःखीजनों क सुख देने के लिये, विरहियों के मृतक शरीर में प्राणों का संचार करने के लिये बाँसुरी बजाते हैं, तब व्रज के झुंड-के-झुंड बैल, गौएँ और हरिन उनके पास ही दौड़ आते हैं। केवल आते ही नहीं, सखी! दाँतों से चबाया हुआ घास का ग्रास उनके मुँह में ज्यों-का-त्यों पड़ा रह जाता है, वे उसे न निगल पाते और न तो उगल ही जाते हैं। दोनों कान खड़े करके इस प्रकार स्थिरभाव से खड़े हो जाते हैं, मानों सो गये हैं या केवल भीतपर लिखे हुए चित्र हैं। उनकी ऐसी दशा होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि यह बाँसुरी की तान उनके चित्त चुरा लेती है । हे सखि! जब वे नन्द के लाड़ले लाल अपने सिरपर मोरपंख का मुकुट बाँध लेते हैं, घुँघराली अलकों में फूल के गुच्छे खोंस लेते हैं, रंगीन धातुओं से अपना अंग-अंग रँग लेते हैं और नये-नये पल्लवों से ऐसा वेष सजा लेते हैं, जैसे कोई बहुत बड़ा पहलवान हो और फिर बलरामजी तथा ग्वालबालों के साथ बाँसुरी में गौओं का नाम ले-लेकर उन्हें पुकारते है; उस समय प्यारी सखियों! नदियों की गति भी रुक जाती है। वे चाहती हैं कि वायु उड़ाकर हमारे प्रियतम के चरणों की धूलि हमारे पास पहुँचा दे और उसे पाकर हम निहाल हो जायँ, परन्तु सखियों! वे भी हमारे ही जैसी मन्दभागिनी हैं। जैसे नन्दनन्दन श्रीकृष्ण का आलिंगन करते समय हमारी भुजाएँ काँप जाती है और जड़ता रूप संचारीभाव का उदय हो जाने से हम अपने हाथों को हिला भी नहीं पातीं, वैसे ही वे भी प्रेम के कारण काँपने लगती हैं। दो-चार बार अपनी तरंगरूप भुजाओं को काँपते-काँपते उठाती तो अवश्य हैं, परन्तु फिर विवश होकर स्थिर हो जाती हैं, प्रेमावेश से स्तंभित हो जाती हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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