श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 38 श्लोक 11-17
दशम स्कन्ध: अष्टात्रिंशोऽध्यायः (38) (पूर्वार्ध)
भगवान इस कार्य-कारणरूप जगत् के द्रिष्टामात्र हैं, और ऐसा होने पर भी द्रष्टापन का अहंकार उन्हें छू तक नहीं गया है। उनकी चिन्मयी शक्ति से अज्ञान के कारण होने वाला भेदभ्रम अज्ञान सहित दूर से ही निरस्त रहता है। वे अपनी योगमाया से ही अपने-आपमें भ्रूविलास मात्र से प्राण, इन्द्रिय और बुद्धि आदि के सहित अपने अपने स्वरूप भूत जीवों की रचना कर लेते हैं और उनके साथ वृन्दावन की कुंजों में तथा गोपियों के घरों में तरह-तरह की लीलाएँ करते हुए प्रतीत होते हैं । जब समस्त पापों के नाशक उनके परम मंगलमय गुण, कर्म और जन्म की लीलाओं से युक्त होकर वाणी उनका गान करती है, तब उस गान से संसार में जीवन की स्फूर्ति होने लगती है, शोभा का संचार हो जाता है, सारी अपवित्रताएँ धुलकर पवित्रता का साम्राज्य छा जाता है; परन्तु जिस वाणी से उनके गुण, लीला और जन्म की कथाएँ नहीं गायी जातीं, वह तो मुर्दों को ही शोभित करने वाली है, होने पर भी नहीं के समान—व्यर्थ है । जिनके गुणगान का ही ऐसा माहात्म्य है, वे ही भगवान स्वयं यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं। किसलिये ? अपनी ही बनायी मर्यादा का पालन करने वाले श्रेष्ठ देवताओं का कल्याण करने के लिये। वे ही परम ऐश्वर्यशाली भगवान आज व्रज में निवास कर रहे हैं उनका यश कितना पवित्र है! अहो, देवतालोग भी उस सम्पूर्ण मंगलमय यश का गान करते रहते हैं । इसमें सन्देह नहीं कि आज मैं अवश्य ही उन्हें देखूँगा। वे बड़े-बड़े संतों और लोकपालों के भी एकमात्र आश्रय हैं। सबके परम गुरु हैं। और उनका रूप-सौन्दर्य तीनों लोकों के मन को मोह लेने वाला है। जो नेत्रवाले हैं उनके लिये वह आनन्द और रस की चरम सीमा है। इसी से स्वयं लक्ष्मीजी भी, जो सौन्दर्य की अधीश्वरी हैं, उन्हें पाने के लिये ललकती रहती हैं। हाँ, तो मैं उन्हें अवश्य देखूँगा। क्योंकि आज मेरा मंगल-प्रभात है, आज मुझे प्रातःकाल से ही अच्छे-अच्छे शकुन दीख रहे हैं । जब मैं उन्हें देखूँगा तब सर्वश्रेष्ठ पुरुष बलराम तथा श्रीकृष्ण के चरणों में नमस्कार करने के लिये तुरंत रथ से कूद पडूँगा। उनके चरण पकड़ लूँगा। ओह! उनके चरण कितने दुर्लभ हैं! बड़े-बड़े योगी-यति आत्म-साक्षात्कार के लिये मन-ही-मन अपने हृदय में उनके चरणों की धारणा करते हैं और मैं तो उन्हें प्रत्यक्ष पा जाऊँगा और लोट जाऊँगा उन पर। उन दोनों के साथ ही उनके वनवासी सखा एक-एक ग्वालबाल के चरणों की भी वन्दना करूँगा । मेरे अहोभाग्य! जब मैं उनके चरण-कमलों में गिर जाऊँगा, तब क्या वे अपना करकमल मेरे सिरपर रख देंगे ? उनके वे करकमल उन लोगों को सदा के लिये अभयदान दे चुके हैं, जो कामरूपी साँप के भय से अत्यन्त घबड़ाकर उनकी शरण चाहते और शरण में आ जाते हैं । इन्द्र तथा दैत्यराज बलि ने भगवान के उन्हीं करकमलों में पूजा की भेंट समर्पित करके तीनों लोकों का प्रभुत्व—इन्द्रपद प्राप्त कर लिया। भगवान के उन्हीं करकमलों ने, जिनमें से दिव्य कमलकी-सी सुगन्ध आया करती है, अपने स्पर्श से रासलीला के समय व्रजयुवतियों की सारी थकान मिटा दी थी ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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