श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 41 श्लोक 26-35
दशम स्कन्ध: एकचत्वारिंशोऽध्यायः (41) (पूर्वार्ध)
यदुवंशशिरोमणे! आप देवताओं के भी आराध्यदेव हैं। जगत् के स्वामी हैं। आपके गुण और लीलाओं का श्रवण तथा कीर्तन बड़ा ही मंगलकारी है। उत्तम पुरुष आपके गुणों का कीर्तन करते रहते हैं। नारायण! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।
कई रमणियाँ तो भोजन कर रही थीं, वे हाथ का कौर फेंककर चल पड़ी। सबका मन उत्साह और आनन्द से भर रहा था। कोई-कोई उबटन लगवा रही थीं, वे बिना स्नान किये ही दौड़ पड़ी। जो सो रही थीं, वे कोलाहल सुनकर उठ खड़ी हुईं और उसी अवस्था में दौड़ चलीं। जो माताएँ बच्चों को दूध पिला रही थीं, वे उन्हें गोद से हटाकर भगवान श्रीकृष्ण को देखने के लिये चल पड़ी । कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण मत-वाले गजराज के समान बड़ी मस्ती से चल रहे थे। उन्होंने लक्ष्मी को भी आनन्दित करने वाले अपने श्यामसुन्दर विग्रह से नगरनारियों के नेत्रों को बड़ा आनन्द दिया और अपनी विलासपूर्ण प्रगल्भ हँसी तथा प्रेमभरी चितवन से उनके मन चुरा लिये । मथुरा की स्त्रियाँ बहुत दिनों से भगवान श्रीकृष्ण की अद्भुत लीलाएँ सुनती आ रही थीं। उनके चित्त-चिरकाल से श्रीकृष्ण के लिये चंचल, व्याकुल हो रहे थे। आज उन्होंने उन्हें देखा। भगवान श्रीकृष्ण ने भी अपनी प्रेमभरी चितवन और मन्द मुसकान की सुधा से सींचकर उनका सम्मान किया। परीक्षित्! उन स्त्रियों ने नेत्रों के द्वारा भगवान को अपने हृदय में ले जाकर उनके आनन्दमय स्वरूप का आलिंगन किया। उनका शरीर पुलकित हो गया और बहुत दिनों की विरह-व्याधि शान्त हो गयी । मथुरा की नारियाँ अपने-अपने महलों की अटारियों पर चढ़कर बलराम और श्रीकृष्ण पर पुष्पों की वर्षा करने लगीं। उस समय उन स्त्रियों के मुखकमल प्रेम के आवेग से खिल रहे थे । ब्राम्हण, क्षत्रिय और वेश्यों ने स्थान-स्थान पर दही, अक्षत, जल से भरे पात्र, फूलों के हार, चन्दन और भेंट की सामग्रियों से आनन्दमग्न होकर भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी की पूजा की । भगवान को देखकर सभी पुरवासी आपस में कहने लगे—‘धन्य हैं! धन्य हैं!’ गोपियों ने ऐसी कौन-सी महान् तपस्या की है, जिसके कारण वे मनुष्यमात्र को परमानन्द देने वाले इन दोनों मनोहर किशोरों को देखती रहती हैं ।
इसी समय भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि एक धोबी, जो कपड़े रँगने का भी काम करता था, उनकी ओर आ रहा है। भगवान श्रीकृष्ण ने उससे धुले हुए उत्तम-उत्तम कपड़े माँगे । भगवान ने कहा—‘भाई! तुम हमें ऐसे वस्त्र हो, जो हमारे शरीर में पूरे-पूरे आ जायँ। वास्तव में हमलोग उन वस्त्रों के अधिकारी हैं। इसमें सन्देह नहीं कि यदि तुम हम लोगों को वस्त्र दोगे तो तुम्हारा परम कल्याण होगा’ । परीक्षित्! भगवान सर्वत्र परिपूर्ण हैं। सब कुछ उन्हीं का है। फिर भी उन्होंने इस प्रकार माँगने की लीला की। परन्तु वह मूर्ख राजा कंस का सेवक होने के कारण मतवाला हो रहा था। भगवान की वस्तु भगवान को देना तो दूर रहा, उसने क्रोध में भरकर आपेक्ष करते हुए कहा— ‘तुम लोग रहते हो सदा पहाड़ और जंगलों में। क्या वहाँ ऐसे ही वस्त्र पहनते हो ? तुम लोग बहुत उदण्ड हो गये हो तभी तो ऐसे बढ़-बढ़कर बातें करते हो। अब तुम्हें राजा का धन लूटने की इच्छा हुई है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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