श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 61 श्लोक 1-14
दशम स्कन्ध: एकषष्टितमोऽध्यायः(61) (उत्तरार्ध)
भगवान की सन्तति का वर्णन तथा अनिरुद्ध के विवाह में रुक्मी का मारा जाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण की प्रत्येक पत्नी के गर्भ से दस-दस पुत्र उत्पन्न हुए। वे रूप, बल आदि गुणों में अपने पिता भगवान श्रीकृष्ण से किसी बात में कम न थे । राजकुमारियाँ देखतीं कि भगवान श्रीकृष्ण हमारे महल से कबी बाहर नहीं जाते। सदा हमारे ही पास बने रहते हैं। इससे वे यही समझतीं कि श्रीकृष्ण को मैं ही सबसे प्यारी हूँ। परीक्षित्! सच पूछो तो वे अपने पति भगवान श्रीकृष्ण का तत्व—उनकी महिमा नहीं समझती थीं । वे सुन्दरियाँ अपने आत्मानन्द में एकरस स्थित भगवान श्रीकृष्ण के कमल-कली के समान सुन्दर मुख, विशाल बाहु, कर्णस्पर्शी नेत्र, प्रेमभरी मुसकान, रसमयी चितवन और मधुर वाणी से स्वयं ही मोहित रहती थीं। वे अपने श्रृंगारसम्बन्धी हावभावों से उनके मन को अपनी ओर खींचने में समर्थ न हो सकीं । वे सोलह हजार से अधिक थीं। अपनी मन्द-मन्द मुसकान और तिरछी चितवन से युक्त मनोहर भौंहों के इशारे से ऐसे प्रेम के बाण चलाती थीं, जो काम-कला के भावों से परिपूर्ण होते थे, परन्तु किसी भी प्रकार से, किन्हीं साधनों के द्वारा वे भगवान के मन एवं इन्द्रियों में चंचलता नहीं उत्पन्न कर सकीं । परीक्षित्! ब्रम्हा आदि बड़े-बड़े देवता भी भगवान के वास्तविक स्वरूप को या उनकी प्राप्ति के मार्ग को नहीं जानते। उन्हीं रमारमण भगवान श्रीकृष्ण को उन स्त्रियों ने पति के रूप में प्राप्त किया था। अब नित्य-निरन्तर उनके प्रेम और आनन्द की अभिवृद्धि होती रहती थी और वे प्रेमभरी मुसकराहट, मधुर चितवन, नवसमागम की लालसा आदि से भगवान की सेवा करती रहती थीं । उनमें से सभी पत्नियों के साथ सेवा करने के लिये सैकड़ों दासियाँ रहतीं। फिर भी जब उनके महल में भगवान पधारते तब वे स्वयं आगे जाकर आदरपूर्वक उन्हें लिवा लातीं, श्रेष्ठ आसन पर बैठातीं, उत्तम सामग्रियों से उनकी पूजा करतीं, चरणकमल पखारतीं, पान खिलाकर खिलातीं, पाँव दबाकर थकावट दूर करतीं, पंखा झलतीं, इत्र-फुलेल, चन्दन आदि लगातीं, फूलों के हार पहनातीं, केश सँवारतीं, सुलातीं, स्नान करातीं और अनेक प्रकार के भोजन कराकर अपने हाथों भगवान की सेवा करतीं ।
परीक्षित्! मैं कह चुका हूँ कि भगवान श्रीकृष्ण की प्रत्येक पत्नी के दस-दस पुत्र थे। उन रानियों में आठ पटरानियाँ थीं, जिनके विवाह का वर्णन मैं पहले कर चुका हूँ। अब उनके प्रद्दुम्न आदि पुत्रों का वर्णन करता हूँ । रुक्मिणी के गर्भ से दस पुत्र हुए—प्रद्दुम्न, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, पराक्रमी चारुदेह, सुचारू, चारूगुप्त, भद्रचारु, चारूचन्द्र, विचारू और दसवाँ चारु। ये अपने पिता भगवान श्रीकृष्ण से किसी बात में कम न थे । सत्यभामा के भी दस पुत्र थे—भानु, सुभानु, स्वर्भानु, प्रभानु, भानुमान्, चन्द्रभानु, बृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु, और प्रतिभानु। जाम्बवती के भी भी साम्ब आदि दस पुत्र थे—साम्ब, सुमित्र, पुरुजित्, शतजित्, सहस्त्रजित्, विजय, चित्रकेतु, वसुमान्, द्रविड और क्रतु। ये सब श्रीकृष्ण को बहुत प्यारे थे । नाग्नजिती सत्या के भी दस पुत्र हुए—वीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रुग, वेगभाग्, वृष, आम, शंकु, वसु और परम तेजस्वी कुन्ति । कालिन्दी के दस पुत्र ये थे—श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शान्ति, दर्श, पूर्णमास और सबसे छोड़ा सोमक ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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