श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 63 श्लोक 18-31
दशम स्कन्ध: त्रिषष्टितमोऽध्यायः(63) (उत्तरार्ध)
परीक्षित्! रणोंन्मत्त बाणासुर ने अपने एक हजार हाथों से एक साथ ही पाँच सौ धनुष खींचकर एक-एक पर दो-दो बाण चढ़ाये ।परन्तु भगवान श्रीकृष्ण ने एक साथी ही उसके सारे धनुष काट डाले और सारथि, रथ तथा घोड़ों को भी धराशायी कर दिया एवं शंखध्वनि की । कोटरा नाम की एक देवी बाणासुर की धर्ममाता थी। वह अपने उपासक पुत्र के प्राणों की रक्षा के लिये बाल बिखेरकर नंग-धडंग भगवान श्रीकृष्ण के सामने आकर खड़ी हो गयी । भगवान श्रीकृष्ण ने इसलिये कि कहीं उस पर दृष्टि न पड़ जाय, अपना मुँह फेर लिया और वे दूसरी ओर देखने लगे। तब तक बाणासुर धनुष कट जाने और रथ हीन हो जाने के कारण अपने नगर में चला गया । इधर जब भगवान शंकर के भूतगण इधर-उधर भाग गये, तब उनका छोड़ा हुआ तीन सिर और तीन पैर वाला ज्वर दासों दिशाओं को जलाता हुआ-सा भगवान श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा । भगवान श्रीकृष्ण ने उसे अपनी ओर आते देखकर उसका मुकबला करने के लिये अपना ज्वर छोड़ा। अब वैष्णव और माहेश्वर दोनों ज्वर आपस में लड़ने लगे । अन्त में वैष्णव ज्वर के तेज से माहेश्वर ज्वर पीड़ित होकर चिल्लाने लगा और अत्यन्त भयभीत हो गया। जब उसे अन्यत्र कहीं त्राण न मिला, तब वह अत्यन्त नम्रता से हाथ जोड़कर शरण में लेने के लिये भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करने लगा ।
ज्वर ने कहा—प्रभो! आपकी शक्ति अनन्त है। आप ब्रम्हादि ईश्वरों के भी परम महेश्वर हैं। आप सबके आत्मा और सर्वस्वरूप हैं। आप अद्वितीय और केवल ज्ञानस्वरूप हैं। संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के कारण आप ही हैं। श्रुतियों के द्वारा आपका ही वर्णन और अनुमान किया जाता है। आप समस्त विकारों से रहित स्वयं ब्रम्ह हैं। मैं आपको प्रणाम करता हूँ । काल, दैव (अदृष्ट), कर्म, जीव, स्वभाव, सूक्ष्मभूत, शरीर, सुत्रात्मा प्राण, अहंकार, एकादश इन्द्रियाँ और पंचभूत-इन सबका संघात लिंगशरीर और बीजांकुर-न्याय के अनुसार उससे कर्म और कर्म से फिर लिंग-शरीर की उत्पत्ति—यह सब आपकी माया है। आप माया के निषेध की परम अवधि हैं। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ । प्रभो! आप अपनी लीला से ही अनेकों रूप धारण कर लेते हैं और देवता, साधु तथा लोकमर्यादाओं का पालन-पोषण करते हैं। साथ ही उन्मार्गगामी और हिंसक असुरों का संहार भी करते हैं। आपका यह अवतार पृथ्वी का भार उतारने के लिये ही हुआ है । प्रभो! आपके शान्त, उग्र और अत्यन्त भयानक दुस्सह तेज ज्वर से मैं अत्यन्त सन्तप्त हो रहा हूँ। भगवन्! देहधारी जीवों को तभी तक ताप-सन्ताप रहता है, जब तक वे आशा के फंदों में फँसे रहने के कारण आपके चरण-कमलों की शरण नहीं ग्रहण करते ।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘त्रिशिर! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। अब तुम मेरे ज्वर से निर्भय हो जाओ। संसार में जो कोई हम दोनों के संवाद का स्मरण करेगा, उसे तुमसे कोई भय न रहेगा’। भगवान श्रीकृष्ण के इस प्रकार कहने पर माहेश्वर ज्वर उन्हें प्रणाम करके चला गया। तब तक बाणासुर रथ पर सवार होकर भगवान श्रीकृष्ण से युद्ध करने के लिये फिर आ पहुँचा । परीक्षित्! बाणासुर ने अपने हजार हाथों में तरह-तरह हथियार ले रखे थे। अब वह अत्यन्त क्रोध में भरकर चक्रपाणि भगवान पर बाणों की वर्षा करने लगा ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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