श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 63 श्लोक 44-53
दशम स्कन्ध: त्रिषष्टितमोऽध्यायः(63) (उत्तरार्ध)
आप जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के कारण हैं। आप सब में सम, परम शान्त, सबके सुह्रद्, आत्मा और इष्टदेव हैं। आप एक,अद्वितीय और जगत् के आधार तथा अधिष्ठान हैं। हे प्रभो! हम सब संसार से मुक्त होने के लिये आपका भजन करते हैं ।
देव! यह बाणासुर मेरा परम प्रिय, कृपापात्र और सेवक है। मैंने इसे अभयदान दिया है। प्रभो! जिस प्रकार इसके परदादा दैत्यराज प्रह्लाद पर आपका कृपा प्रसाद है, वैसा ही कृपा प्रसाद आप इस पर भी करें ।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—भगवन्! आपकी बात मानकर—जैसा आप चाहते हैं, मैं इसे निर्भय किये देता हूँ। आपने पहले इसके सम्बन्ध में जैसा निश्चय किया था—मैंने इसकी भुजाएँ काटकर उसी का अनुमोदन किया है । मैं जानता हूँ कि बाणासुर दैत्यराज बलि का पुत्र है। इसलिये मैं भी इसका वध नहीं कर सकता; क्योंकि मैंने प्रह्लाद को वर दे दिया कि मैं तुम्हारे वंश में पैदा होने वाले किसी भी दैत्य का वध नहीं करूँगा । इसका घमंड चूर करने के लिये ही मैंने इसकी भुजाएँ काट दी हैं। इसकी बहुत बड़ी सेना पृथ्वी के लिये भार हो रही थी, इसीलिये मैंने उसका संहार कर दिया है । अब इसकी चार भुजाएँ बच रही हैं। ये अजर, अमर बनी रहेंगी। यह बाणासुर आपके पार्षदों में मुख्य होगा। अब इसको किसी से किसी प्रकार का भय नहीं है ।
श्रीकृष्ण से इस प्रकार अभयदान प्राप्त करके प्राप्त करके बाणासुर ने उनके पास आकर धरती में माथा टेका, प्रणाम किया और अनिरुद्धजी को अपनी पुत्री उषा के साथ रथ पर बैठाकर भगवान के पास ले आया । इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने महादेवीजी की सम्मति से वस्त्रालंकार विभूषित उषा और अनिरुद्धजी को एक अक्षौहिणी सेना के साथ आगे करके द्वारका के लिये प्रस्थान किया । इधर द्वारका में भगवान श्रीकृष्ण आदि के शुभागमन का समाचार सुनकर झंडियों और तोरणों से नगर का कोना-कोना सजा दिया गया। बड़ी-बड़ी सड़कों और चौराहों को चन्दन-मिश्रित जल से सींच दिया गया। नगर नागरिकों, बन्धु-बान्धवों और ब्राम्हणों ने आगे आकर खूब धूमधाम से भगवान का स्वागत किया। उस समय शंख, नगारों और ढोलों की तुमुल ध्वनि हो रही थी। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी राजधानी में प्रवेश किया । परीक्षित्! जो पुरुष श्रीशंकरजी के साथ भगवान श्रीकृष्ण का युद्ध और उनकी विजय की कथा का प्रातःकाल उठकर स्मरण करता है, उसकी पराजय नहीं होती ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-