श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 75 श्लोक 31-40

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

दशम स्कन्ध: पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः(75) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पञ्चसप्ततितमोऽध्यायःश्लोक 31-40 का हिन्दी अनुवाद


एक दिन की बात है, भगवान के परम प्रेमी महाराज युधिष्ठिर के अन्तःपुर की सौन्दर्य-सम्पत्ति और राजसूय यज्ञ द्वारा प्राप्त महत्व को देखकर दुर्योधन का मन डाह से जलने लगा । परीक्षित्! पाण्डवों के लिये मय दानव ने जो महल बना दिये थे, उसमें नरपति, दैत्यपति और सुरपतियों की विविध विभूतियाँ तथा श्रेष्ठ सौन्दर्य स्थान-स्थान पर शोभायमान था। उनके द्वारा राजरानी द्रौपदी अपने पतियों की सेवा करती थीं। उस राजभवन में उन दिनों भगवान श्रीकृष्ण की सहस्त्रों रानियाँ निवास करती थीं। नितम्ब के भारी-भार के कारण जब वे उस राजभवन में धीरे-धीरे चलने लगती थीं, तब उनके पायजेबों की झनकार चारों ओर फ़ैल जाती थी। उनका कटिभाग बहुत ही सुन्दर था तथा उनके वक्षःस्थल पर लगी हुई केसर की लालिमा से मोतियों के सुन्दर श्वेत हार भी लाल-लाल जान पड़ते थे। कुण्डलों की और घुँघराली अलकों की चंचलता से उनके मुख की शोभा और भी बढ़ जाती थी। यह सब देखकर दुर्योधन के हृदय में बड़ी जलन होती। परीक्षित्! सच पूछो तो दुर्योधन का चित्त द्रौपदी में आसक्त था और यही उसकी जलन का मुख्य कारण भी था ।

एक दिन राजाधिराज महाराज युधिष्ठिर अपने भाइयों, सम्बन्धियों एवं अपने नयनों के तारे परम हितैषी भगवान श्रीकृष्ण के साथ मयदानव की बनायी सभा में स्वर्णसिंहासन पर देवराज इन्द्र के समान विराजमान थे। उनकी भोग-सामग्री, उनकी राज्यलक्ष्मी ब्रम्हाजी के ऐश्वर्य के समान थी। वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे थे । उसी समय अभिमानी दुर्योधन अपनी दुशासन आदि भाइयों के साथ वहाँ आया। उसके सिर पर मुकुट, गले में माला और हाथ में तलवार थी। परीक्षित्! वह क्रोधवश द्वारपालों और सेवकों को झिड़क रहा था ।उस सभा में मय दानव ने ऐसी माया फैला रखी थी कि दुर्योधन ने उससे मोहित हो स्थल को जल समझकर अपने वस्त्र समेट लिये और जल को स्थल समझकर वह उसमें गिर पड़ा । उसको गिरते देखकर भीमसेन, राजरानियाँ तथा दूसरे नरपति हँसने लगे। यद्यपि युधिष्ठिर उन्हें ऐसा करने से रोक रहे थे, परन्तु प्यारे परीक्षित्! उन्हें इशारे से श्रीकृष्ण का अनुमोदन प्राप्त हो चुका था ।इससे दुर्योधन लज्जित हो गया, उसका रोम-रोम क्रोध से जलने लगा। अब वह मुँह लटकाकर चुपचाप सभा भवन से निकलकर हस्तिनापुर चला गया। इस घटना को देखकर सत्पुरुषों में हाहाकार मच गया और धर्मराज युधिष्ठिर का मन भी कुछ खिन्न-सा हो गया। परीक्षित्! यह सब होने पर भी भगवान श्रीकृष्ण चुप थे। उनकी इच्छा थी कि किसी प्रकार पृथ्वी का भार उतर जाय; और सच पूछो तो उन्हीं की दृष्टि से दुर्योधन को वह भ्रम हुआ था ।परीक्षित्! तुमने मुझसे यह पूछा था कि उस महान् राजसूय-यज्ञ में दुर्योधन को डाह क्यों हुआ ? जलन क्यों हुई ? सो वह सब मैंने तुम्हें बतला दिया ।






« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-