श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 80 श्लोक 13-29
दशम स्कन्ध: एशीतितमोऽध्यायः(80) (उत्तरार्ध)
यही विचार करके उन्होंने जाने का निश्चय किया और अपनी पत्नी से बोले—‘कल्याणी! घर में कुछ भेंट देने योग्य वस्तु भी है क्या ? यदि हो तो दे दो’ । तब उस ब्राम्हणी ने पास-पड़ोस के ब्राम्हणों के घर से चार मुट्ठी चिउड़े माँगकर एक कपड़े में बाँध दिया और भगवान को भेंट देने के लिये अपने पतिदेव को दे दिये । इसके बाद वे ब्राम्हणदेवता उन चिउड़ों को लेकर द्वारका के लिये चल पड़े। वे मार्ग में यह सोचते जाते थे कि ‘मुझे भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन कैसे प्राप्त होंगे ?’
परीक्षित्! द्वारका में पहुँचने पर वे ब्राम्हणदेवता दूसरे ब्राम्हणों के साथ सैनिकों की तीन छावनियाँ और तीन ड्योढ़ियाँ पार करके भगवद्धर्म का पालन करने वाले अन्धक और वृष्णिवंशी यादवों के महलों में, जहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन है, जा पहुँचे ।उनके बीच भगवान श्रीकृष्ण की सोलह हजार रानियों के महल थे। उनमें से एक में उन ब्राम्हणदेवता ने प्रवेश किया। वह महल खूब सजा-सजाया—अत्यन्त शोभा—युक्त था। उसमें प्रवेश करते समय उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मानो वे ब्रम्हानन्द के समुद्र में डूब-उतरा रहे हों!
उस समय भगवान श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिया रुक्मिणीजी के पलंग पर विराजे हुए थे। ब्राम्हणदेवता को दूर से ही देखकर वे सहसा उठ खड़े हुए और उनके पास आकर बड़े आनन्द से उन्हें अपने भुजपाश में बाँध लिया । परीक्षित्! परमानन्दस्वरूप भगवान अपने प्यारे सखा ब्राम्हणदेवता के अंग-स्पर्श से अत्यन्त आनन्दित हुए। उनके कमल के समान कोमल नेत्रों से प्रेम के आँसू बरसने लगे । परीक्षित्! कुछ समय के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें ले जाकर अपने पलंग पर बैठा दिया और स्वयं पूजन की सामग्री लाकर उनकी पूजा की। प्रिय परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण सभी को पवित्र करने वाले हैं; फिर भी उन्होंने अपने हाथों ब्राम्हणदेवता के पाँव पखारकर उनका चरणोंदक अपने सिर पर धारण किया और उनके शरीर में चन्दन, अरगजा, केसर आदि दिव्य गन्धों का लेपन किया । फिर उन्होंने बड़े आनन्द से सुगन्धित धूप और दीपावली से अपने मित्र की आरती उतारी। इस प्रकार पूजा करके पान एवं गाय देकर मधुर वचनों से ‘भले पधारे’ ऐसा कहकर उनका स्वागत किया । ब्राम्हणदेवता फटे-पुराने वस्त्र पहने हुए थे। शरीर अत्यन्त मलिन और दुर्बल था। देह की सारी नसें दिखायी पड़ती थीं। स्वयं भगवती रुक्मिणीजी चँवर डुलाकर उनकी सेवा करने लगीं । निन्दनीय और निकृष्ट भिखमंगे ने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है, जिससे त्रिलोकी-गुरु श्रीनिवास श्रीकृष्ण स्वयं इसका आदर-सत्कार कर रहे हैं। देखो तो सही, इन्होंने अपने पलंग पर सेवा करती हुई स्वयं लक्ष्मीरूपिणी रुक्मिणीजी को छोड़कर इस ब्राम्हण को अपने बड़े भाई बलरामजी के समान हृदय से लगाया है’ । प्रिय परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण और वे ब्राम्हण दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़कर अपने पूर्व जीवन की उन आनन्द दायक घटनाओं का स्मरण और वर्णन करने लगे और गुरुकुल में में रहते समय घटित हुई थीं । भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—धर्म के मर्मज्ञ ब्राम्हणदेव! गुरुदक्षिणा देकर जब आप गुरुकुल से लौट आये, तब आपने अपने अनुरूप स्त्री से विवाह किया या नहीं ? मैं जानता हूँ कि आपका चित्त गृहस्थी में रहने पर भी प्रायः विषय-भोगों में आसक्त नहीं है। विद्वान! यह भी मुझे मालूम है कि धन आदि में भी आपकी कोई प्रीति नहीं है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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