श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 26-37
द्वादश स्कन्ध: दशमोऽध्यायः (10)
सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियों! चन्द्रभूषण भगवान शंकर की एक-एक बात धर्म के गुप्ततम सहस्य से परिपूर्ण थी। उसके एक-एक बात अक्षर में अमृत का समुद्र भरा हुआ था। मार्कण्डेय मुनि अपने कानों के द्वारा पूरी तन्मयता के साथ उसका पान करते रहे; परन्तु उन्हें तृप्ति न हुई । वे चिरकाल तक विष्णु भगवान की माया से भटक चुके थे और बहुत थके हुए भी थे। भगवान शिव की कल्याणी वाणी का अमृतपान करने से उनके सारे क्लेश नष्ट हो गये। उन्होंने भगवान शंकर से इस प्रकार कहा । मार्कण्डेय ने कहा—सचमुच सर्वशक्तिमान् भगवान की यह लीला सभी प्राणियों की समझ के परे हैं। भला, देखो तो सही—ये सारे जगत् के स्वामी होकर भी अपने अधीन रहने वाले मेरे-जैसे जीवों की वन्दना और स्तुति करते हैं । धर्म के प्रवचनकार प्रायः प्राणियों को धर्म का रहस्य और स्वरूप समझाने के लिये उसका आचरण और अनुमोदन करते हैं तथा कोई धर्म का आचरण करता है उसकी प्रशंसा भी करते हैं । जैसे जादूगर अनेकों खेल दिखलाता है और उन खेलों से उसके प्रभाव में कोई अन्तर नहीं पड़ता, वैसे ही आप अपनी स्वजनमोहिनी माया की वृत्तियों को स्वीकार करके किसी की वन्दना-स्तुति आदि करते हैं तो केवल इस काम के द्वारा आपकी महिमा में कोई त्रुटि नहीं आती । आपने स्वप्नद्रष्टा के समान अपने मन से ही सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि की है और इसमें स्वयं प्रवेश करके कर्ता न होने पर भी कर्म करने वाले गुणों के द्वारा कर्ता के समान प्रतीत होते हैं । भगवन्! आप त्रिगुणस्वरूप होने पर भी उनके परे उनकी आत्मा के रूप में स्थित हैं। आप ही समस्त ज्ञान के मूल, केवल, अद्वितीय ब्रम्हस्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ । अनन्त! आपके श्रेष्ठ दर्शन से बढ़कर ऐसी और कौन-सी वस्तु है, जिसे मैं वरदान के रूप में माँगू ? मनुष्य आपके दर्शन से ही पूर्णकाम और सत्यसंकल्प हो जाता है । आप स्वयं तो पूर्ण हैं ही, अपने भक्तों की भी समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। इसलिये मैं आपका दर्शन प्राप्त कर लेने पर भी एक वर और माँगता हूँ। वह यह कि भगवान में, उनके शरणागत भक्तों में और आपमें मेरी अविचल भक्ति सदा-सर्वदा बनी रहे । सूतजी कहते हैं—शौनकजी! जब मार्कण्डेय मुनि ने सुमधुर वाणी से इस प्रकार भगवान शंकर की स्तुति और पूजा की, तब उन्होंने भगवती पार्वती की प्रसाद-प्रेरणा से यह बात कही । महर्षे! तुम्हारी सारी कामनाएँ पूर्ण हों। इन्द्रियातीत परमात्मा में तुम्हारी अनन्य भक्ति सदा-सर्वदा बनी रहे। कल्प पर्यन्त तुम्हारा पवित्र यश फैले और तुम अजर एवं अमर हो जाओ । ब्रम्हन्! तुम्हारा ब्रम्हतेज तो सर्वदा अक्षुण्ण रहेगा ही। तुम्हें भूत, भविष्य और वर्तमान के समस्त विशेष ज्ञानों का एक अधिष्ठानरूप ज्ञान और वैराग्ययुक्त स्वरूप स्थिति की प्राप्ति हो जाय। तुम्हें पुराण का आचार्यत्व भी प्राप्त हो ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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