श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 12 श्लोक 49-57
द्वादश स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः (12)
जिस वचन के द्वारा भगवान के परम पवित्र यश का गान होता है, वही परम रमणीय, रुचिकर एवं प्रतिक्षण नया-नया जान पड़ता है। उससे अनन्त काल तक मन को परमानन्द की अनुभूति होती रहती है। मनुष्यों का सारा शोक, चाहे वह समुद्र के समान लंबा और गहरा क्यों न हो, उस वचन के प्रभाव से सदा के लिये सुख जाता है । जिस वाणी से—चाहे वह रस, भाव, अलंकर आदि से युक्त ही क्यों न हो—जगत् को पवित्र करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के यश का कभी गान नहीं होता, वह तो कौओं के लिये उच्छिष्ट फेंकने के स्थान के समान अत्यन्त अपवित्र है। मानसरोवर-निवासी हंस अथवा ब्रम्हधाम में विहार करने वाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परम हंस भक्त उसका कभी सेवन नहीं करते। निर्मल हृदय वाले साधुजन तो वही निवास करते हैं, जहाँ भगवान रहते हैं । इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है जो व्याकरण आदि की दृष्टि से दूषित शब्दों से युक्त भी है, परन्तु जिसके प्रत्येक श्लोक में भगवान के सुयश सूचक नाम जड़े हुए हैं, वह वाणी लोगों के सारे पापों का नाश का कर देती है; क्योंकि सत्पूरुष ऐसी ही वाणी का श्रवण, गान और कीर्तन किया करते हैं । वह निर्मल ज्ञान भी, जो मोक्ष की प्राप्ति का साक्षात् साधन है, यदि भगवान की भक्ति से रहित हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती। फिर जो कर्म भगवान को अर्पण नहीं किया गया है—वह चाहे कितना ही ऊँचा क्यों न हो—सर्वदा अमंगल रूप, दुःख देने वाली ही है; वह तो शोभन—वरणीय हो ही कैसे सकता है ? वर्णाश्रम के अनुकूल आचरण, तपस्या और अध्ययन आदि के लिये जो बहुत बड़ा परिश्रम किया जाता है, उसका फल है—केवल यश अथवा लक्ष्मी की प्राप्ति। परन्तु भगवान के गुण, लीला, नाम आदि का श्रवण, कीर्तन आदि तो उनके श्रीचरणकमलों की अविचल स्मृति प्रदान करता है । भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की अविचल स्मृति सारे पाप-ताप और अमंगलों को नष्ट कर देती और परम शान्ति का विस्तार करती है। उसी के द्वारा अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, भगवान की भक्ति प्राप्त होती है एवं परवैराग्य से युक्त भगवान के स्वरूप का ज्ञान तथा अनुभव प्राप्त होता है । शौनकादि ऋषियों! आप लोग बड़े भाग्यवान् हैं। धन्य हैं, धन्य हैं! क्योंकि आप लोग बड़े प्रेम से निरन्तर अपने हृदय में सर्वान्तर्यामी, सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् आदिदेव सबके आराध्यदेव एवं स्वयं दूसरे आराध्यदेव से रहित नारायण भगवान को स्थापित करके भजन करते रहते हैं । जिस समय राजर्षि परीक्षित् अनशन करके बड़े-बड़े ऋषियों की भरी सभा में सबके सामने श्रीशुकदेवजी महाराज से श्रीमद्भागवत की कथा सुन रहे थे, उस समय वहीं बैठकर मैंने भी उन्हीं परमर्षि के मुख से इस आत्मतत्व का श्रवण किया था। आप लोगों ने उसका स्मरण कराकर मुझ पर बड़ा अनुग्रह किया। मैं इसके लिये आप लोगों का बड़ा ऋणी हूँ । शौनकादि ऋषियों! भगवान वासुदेव की एक-एक लीला सर्वदा श्रवण-कीर्तन करने योग्य है। मैंने इस प्रसंग में उन्हीं की महिमा का वर्ना किया है; जो सारे अशुभ संस्कारों को धो बहाती है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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