श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 1-14
द्वादश स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्यायः (13)
विभिन्न पुराणों की श्लोक-संख्या और श्रीमद्भागवत की महिमा सूतजी कहते हैं—ब्रम्हा, वरुण, इन्द्र, रूद्र और मरुद्गण दिव्य स्तुतियों के द्वारा जिनके गुणगान में संलग्न रहते हैं; साम-संगीत के मर्मज्ञ ऋषि-मुनि अंग, पद, क्रम एवं उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते रहते हैं; योगी लोग ध्यान के द्वारा निश्चल एवं तल्लीन मन से जिनका भावमय दर्शन प्राप्त करते रहते हैं; किन्तु यह सब करते रहने पर भी देवता, दैत्य, मनुष्य—कोई भी जिनके वास्तविक स्वरूप को पूर्णतय न जान सका, उन स्वयं प्रकाश परमात्मा को नमस्कार है । जिस समय भगवान ने कच्छप रूप धारण किया था और उनकी पीठ पर बड़ा भारी मन्दराचल मथानी की तरह घूम रहा था, उस समय मन्दराचल की चट्टानों की नोक से खुजलाने के कारण भगवान को तनिक सुख मिला। वे सो गये और श्वास की गति तनिक बढ़ गयी। उस समय उस श्वास वायु से जो समुद्र के जल को धक्का लगा था, उसका संस्कार आज भी उसमें शेष है। आज भी समुद्र उसी श्वास वायु के थपेड़ों के फलस्वरूप ज्वार-भाटों के रूप में दिन-रात चढ़ता-उतरता रहता है, उसे अब तक विश्राम न मिला। भगवान की वही परम प्रभावशाली श्वास वायु आप लोगों की रक्षा करे । शौनकजी! अब पुराणों की अलग-अलग श्लोक-संख्या, उनका जोड़, श्रीमद्भागवत का प्रतिपाद्य विषय और उसका प्रयोजन भी सुनिये। इसके दान की पद्धति तथा दान और पाठ आदि की महिमा भी आप लोग श्रवण कीजिये । ब्रम्हपुराण में दस हजार श्लोक, पद्मपुराण में पचपन हजार, श्रीविष्णुपुराण में तेईस हजार और शिवपुराण की श्लोक संख्या चौबीस हजार है । श्रीमद्भागवत में अठारह हजार, नारदपुराण में पचीस हजार, मार्कण्डेयपुराण में नौ हजार तथा अग्निपुराण में पन्द्रह हजार चार सौ श्लोक हैं । भविष्यपुराण की श्लोक-संख्या चौदह हजार पाँच सौ है और ब्रम्हवैवर्तपुराण की अठारह हजार तथा लिंगपुराण में ग्यारह हजार श्लोक हैं । वराहपुराण में चौबीस हजार, स्कन्धपुराण की श्लोक संख्या इक्यासी हजार एक सौ है और वामनपुराण की दस हजार । कूर्मपुराण सत्रह हजार श्लोकों का और मत्स्यपुराण चौदह हजार श्लोकों का है। गरुड़पुराण में उन्नीस हजार श्लोक हैं और ब्रम्हाणपुराण में बारह हजार । इस प्रकार सब पुराणों की श्लोक संख्या कुल मिलाकर चार लाख होती है। उनमें श्रीमद्भागवत, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अठारह हजार श्लोकों का है । शौनकजी! पहले-पहल भगवान विष्णु ने अपने नाभिकमल पर स्थित एवं संसार से भयभीत ब्रम्हा पर परम करुणा करके इस पुराण को प्रकाशित किया था । इसके आदि, मध्य और अन्त में वैराग्य उत्पन्न करने वाली बहुत-सी कथाएँ हैं। इस महापुराण में जो भगवान श्रीहरि की लीला-कथाएँ हैं, वे तो अमृतस्वरूप हैं ही; उनके सेवन से सत्पुरुष देवताओं को बड़ा ही आनन्द मिलता है । आप लोग जानते हैं कि समस्त उपनिषदों का सार है। ब्रम्ह और आत्मा का एकत्वरूप अद्वितीय सद्वस्तु। वही श्रीमद्भागवत का प्रतिपाद्य विषय है। इनके निर्माण प्रयोजन है एकमात्र कैवल्य-मोक्ष । जो पुरुष भाद्रपद मास की पूर्णिमा के दिन श्रीमद्भागवत को सोने के सिंहासन पर रखकर उसका दान करता है, उसे परमगति प्राप्त होती है । संतों की सभा में तभी तक दूसरे पुराणों की शोभा होती है, जब तक सर्वश्रेष्ठ स्वयं श्रीमद्भागवत महापुराण के दर्शन नहीं होते ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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