श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 23-34
द्वादश स्कन्ध: नवमोऽध्यायः (9)
काली-काली घुँघराली अलकें कपोलों पर लटक रही थीं और श्वास लगने से कभी-कभी हिल भी जाती थीं। शंख के समान घुमावदार कानों में अनार के लाल-लाल फूल शोभायमान हो रहे थे। मूँगे के समान लाल-लाल होंठों की कान्ति से उनकी सुधामयी श्वेत मुसकान कुछ लालिमामिश्रित हो गयी थी । नेत्रों के कोने कमल के भीतरी भाग के समान तनिक लाल-लाल थे। मुसकान और चितवन बरबस हृदय को पकड़ लेती थी। बड़ी गम्भीर नाभि थी। छोटी-सी तोंद पीपल के पत्ते के समान जान पड़ती और श्वास लेने के समय उस पर पड़ी हुई बलें तथा नाभि भी हिल जाया करती थी । नन्हें-नन्हें हाथों में बड़ी सुन्दर-सुन्दर अँगुलियाँ थीं। वह शिशु अपने दोनों करकमलों से एक चरणकमल को मुख में डालकर चूस रहा था। मार्कण्डेयजी मुनि यह दिव्य दृश्य देखकर विस्मित हो गये । शौनकजी! उस दिव्य शिशु को देखते ही मार्कण्डेयजी मुनि की सारी थकावट जाती रही। आनन्द से उनके हृदय-कमल और नेत्रकमल खिल गये। शरीर पुलकित हो गया। उस नन्हें-से शिशु के इस अद्भुत भाव को देखकर उनके मन में तरह-तरह की शंकाएँ—‘यह कौन है’ इत्यादि—आने लगीं और वे उस शिशु से ये बातें पूछने के लिये उसके सामने सरक गये । अभी मार्कण्डेयजी पहुँच भी न पाये थे कि उस शिशु के श्वास के साथ उसके शरीर के भीतर उसी प्रकार घुस गये, जैसे कोई मच्छर किसी के पेट में चला जाय। उस शिशु के पेट में जाकर उन्होंने सब-की-सब वही सृष्टि देखी, जैसी प्रलय के पहले उन्होंने देखी थी। वे वह सब विचित्र दृश्य देखकर आश्चर्यचकित हो गये। वे मोहवश कुछ सोच-विचार भी न सके । उन्होंने उस शिशु के उदर में आकाश, अन्तरिक्ष, ज्योतिर्मण्डल, पर्वत, समुद्र, द्वीप, वर्ष, दिशाएँ, देवता, दैत्य, वन, देश, नदियाँ, नगर, खानें, किसानों के गाँव, अहीरों की बस्तियाँ, आश्रम, वर्ण, उनके आचार-व्यवहार, पंचमहाभूत, भूतों से बने हुए प्राणियों के शरीर तथा पदार्थ, अनेक युग और कल्पों के भेद से युक्त काल आदि सब कुछ देखा। केवल इतना ही नहीं जिन देशों, वस्तुओं और कालों के द्वारा जगत् का व्यवहार सम्पन्न होता है, वह सब कुछ वहाँ विद्यमान था। कहाँ तक कहें, यह सम्पूर्ण विश्व न होने पर भी वहाँ सत्य के समान प्रतीत होते देखा । हिमालय पर्वत, वही पुष्पभद्रा नदी, उसके तट पर अपना आश्रम और वहाँ रहने वाले ऋषियों को भी मार्कण्डेयजी ने प्रत्यक्ष ही देखा। इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व को देखते-देखते ही वे उस दिव्य शिशु के श्वास के द्वारा ही बाहर आ गये और फिर प्रलयकालीन समुद्र में गिर पड़े । अब फिर उन्होंने देखा कि समुद्र के बीच में पृथ्वी के टीले पर वही बरगद का पेड़ ज्यों-का-त्यों विद्यमान है और उसके पत्ते के दोने में वही शिशु सोया हुआ है। उसके अधरों पर प्रेमामृत से परिपूर्ण मन्द-मन्द मुसकान है और अपनी प्रेमपूर्ण चितवन से वह मार्कण्डेयजी की ओर देख रहा है । अब मार्कण्डेयजी मुनि इन्द्रियातीत भगवान को जो शिशु के रूप में क्रीड़ा कर रहे थे और नेत्रों के मार्ग से पहले ही हृदय में विराजमान हो चुके थे, आलिंगन करने के लिये बड़े श्रम और कठिनाई से आगे बढ़े । परन्तु शौनकजी! भगवान केवल योगियों के ही नहीं, स्वयं योग के भी स्वामी और सबके हृदय में छिपे रहने वाले हैं। अभी मार्कण्डेयजी मुनि उसके पास पहुँच भी न पाये थे कि वे तुरंत अन्तर्धान हो गये—ठीक वैसे ही, जैसे अभागे और असमर्थ पुरुषों के परिश्रम का पता नहीं चलता कि वह फल दिये बिना ही क्या हो गया । शौनकजी! उस शिशु के अन्तर्धान होते ही वह बरगद का वृक्ष तथा प्रलयकालीन दृश्य एवं जल भी तत्काल लीन हो गया और मार्कण्डेयजी मुनि ने देखा कि मैं तो पहले के समान ही अपने आश्रम में बैठा हुआ हूँ ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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