संकेतन

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संकेतन या संकेत संप्रेषण का युद्ध में दीर्घ काल से प्रयोग हो रहा है। साधारण जीवन में भी संदेश भेजने की आवश्यकता बहुधा पड़ती ही है, पर सेना की एक टुकड़ी से दूसरी को, अथवा एक पोत से अन्य को सूचनाएँ, आदेश आदि भेजने के कार्य का विशेष महत्त्व है। इसके लिए प्रत्येक संभव उपाय काम में लाए जाते हैं। पैदल और घुड़सवार, संदेशवाहकों के सिवाय, प्राचीन काल में झंडियों, प्रकाश तथा धुएँ द्वारा संकेतों से संदेश भेजने के प्रमाण मिलते हैं। अफ़्रीका में यही कार्य नगाड़ों से लिया जाता रहा है। आधुनिक काल में संकेतन का उपयोग सड़कों पर आवागमन तथा रेलगाड़ियों के नियंत्रण में भी किया जा रहा है।

प्रचलन

कहा जाता है कि ग्रीसवासियों ने ट्रॉय नगर की विजय (1194 ई. पू.) की सूचना प्रज्वलित अग्नि के प्रकाश द्वारा 300 मील दूर पहुँचाई थी। इंग्लैंड में स्पेन के जहाजी बेड़े, आर्मेडा, की चढ़ाई (1588 ई.) की सूचना, 6 से 8 मील की दूरी वाले स्थानों पर अग्नि जलाकर, समस्त दक्षिणी इंग्लैंड में भेजी गई। संकेतों द्वारा संदेशों के पहुँचाने के इसी प्रकार के अन्य अनेक उदाहरण इतिहास में उपस्थित हैं। कालांतर में जिस प्रकार स्थल पर संकेतन का विकास हुआ, उसी प्रकार और लगभग वैसे ही साधनों से सागर पर जहाजों के बीच भी संदेश भेजने की रीतियाँ प्रचलित हुईं।[1]

आविष्कार

सन्‌ 1666 में घड़ीमुख की सूइयों से मिलते-जुलते उपकरण की सहायता से आधुनिक सेमाफोर कूट सदृश संकेतन का आविष्कार इंग्लैंड में हुआ और सन 1792 में क्लॉड शाप नामक फ़्राँसीसी ने सेमाफोर संकेतन नियमों के अनुसार, लील और पेरिस के मध्य, दूरसंदेश भेजने का प्रबंध किया। आगे चलकर कई लोगों ने सेमाफोर पद्धति का विकास किया, किंतु इनमें सबसे सरल तथा उपयोगी दो बाँहों से सेमाफोर संकेतन प्रणाली थी, जिसको ऐडमिरल सर होम पॉर्फम ने सन्‌ 1803 में जन्म दिया और जो आज तक नौसेनाओं में प्रयुक्त होती है। दूरसंकेतन के लिए सूर्य के प्रकाश का उपयोग बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा है। कहते हैं, सिकंदर ने इस कार्य के लिए ढाल पर चमचमाती धातु की सतह का प्रयोग किया था, किंतु बाद में दर्पणों का तथा इन्हीं के समुन्नत रूप 'हीलियोग्राफ' का प्रयोग होना आरंभ हुआ। इस उपकरण द्वारा संदेश भारत में सन्‌ 1877-1878 में, सन्‌ 1879-1880 के अफ़फ़ान और जुलू युद्ध में, सन्‌ 1899-1901 के दक्षिणी अफ्रीकी युद्ध में और प्रथम विश्वयुद्ध के समय पूर्वी क्षेत्रों में, बराबर भेजे गए। संकेतन के लिए ऐसे लैंपों का, जिनके सम्मुख चलकपाट लगे होते हैं, प्रयोग सन्‌ 1914 तक होता रहा है। बिजली के लैंप बन जाने पर, इनके जलाने और बुझाने का काम चलकपाट के स्थान पर स्विचों से लिया जाने लगा। इनका भी प्रथम विश्वयुद्ध में बहुत प्रयोग हुआ।

ध्वनि संकेतन

सन्‌ 1852 में मॉर्स कूट के आविष्कार तथा बिजली के विकास के कारण, ध्वनि से संकेत भेजने की रीति निकली। सन्‌ 1854 के क्रीमिया युद्ध में क्षेत्रीय तार[2] का सर्वप्रथम उपयोग किया गया। दक्षिणी अफ़्रीका के युद्ध में विभिन्न मुख्यावासों को क्षेत्रीय टेलिग्राफों से संबंद्ध किया गया था, यद्यपि युद्ध के अग्र क्षेत्रों में संपर्क स्थापित करने का कार्य हीलियोग्राफ़ और झंडों से ही लिया जाता रहा। संदेश भेजने के लिए टेलिफोन का प्रयोग सर्वप्रथम सन्‌ 1904-1905 के रूस-जापान युद्ध में और सन्‌ 1907 से ब्रिटिश सेना में किया गया, पर सैन्य दलों में व्यापक रूप से इसका प्रयोग सन्‌ 1914 के विश्वयुद्ध से प्रारंभ हुआ।[1]

बेतार के तार का प्रयोग

बेतार के तार का उपयोग भी सर्वप्रथम दक्षिणी अफ़्रीका के युद्ध में हुआ, पर सन्‌ 1918 तक यह दल की स्वतंत्र टुकड़ियों तक सीमित रहा। युद्ध के अग्रिम क्षेत्रों में उपयोग के लिए, सन्‌ 1919 से 1939 तक के काल में, बेतार के टेलिफोन बनाए गए और इन्हें कवचित टुकड़ियों के उपयोग के लिए विकसित किया गया। सन्‌ 1941 से 1944 के बीच सब सैन्य दलों में रेडियो टेलिफोन का प्रयोग होने लगा। तार वाले टेलिफोनों का प्रयोग निश्चल स्थिति के समय तथा बेतार के टेलिफोनों का चल कार्यवाहियों में सामान्य हो गया। बेतार के तार या टेलिफोन के प्रयोग का फल यह हुआ कि भेजे हुए संदेश शत्रु सैन्य द्वारा भी प्राप्य हो गए और इस कारण सुरक्षा के विचार से संदेशों को कूट रूप में भेजना आवश्यक हो गया तथा संकेत विभाग के कर्तव्यों में कूटों तथा बीजांकों को तैयार करने, संबंधित अनुभागों तथा सैन्य टुकड़ियों में इनका वितरण करने, और बेतार के तार की श्रृंखलाओं की जाँच करने का कार्य बढ़ गया।

अनुसमुद्री संकेतन

एक जहाज से दूसरे जहाज के बीच संकेतन की सबसे अधिक आवश्यकता होती है। यह कार्य प्राचीन काल से प्रकाश, पाल और झंडों के, विविध प्रयोगों, या तोपों की बाढ़ से किया जाता रहा, किंतु ये पुरातन रीतियाँ सर्वथा संतोषजनक सिद्ध नहीं हुई। सन्‌ 1777 में ब्रिटिश जहाजी बेड़े के प्रधान, लॉर्ड हाउ ने झंडों द्वारा संदेश भेजने की प्रणाली पर एक पुस्तक तैयार की। बाद में इसके दिए संकेतों में अनेक सुधार हुए, किंतु फिर भी ये संकेत पूर्णत: संतोषजनक नहीं सिद्ध हुए। आगे चलकर जिन संदेशों के लिए निर्देश उपर्युक्त पुस्तक में नहीं थे, उनके लिए 19वीं शती में सेमाफोर तथा स्फुरित लैंपों का प्रयोग किया जाने लगा। सर्च लाइटों में चलकपाट लगाकर और बादलों से प्रकाश का परावर्तन कराकर, संदेश अधिक स्पष्ट और बहुत दूर तक भेजना संभव हो गया।[1]

20वीं शती के प्रारंभ में यह स्पष्ट हो गया कि समुद्र पर संवादवहन के लिए बेतार का तार बड़े काम की चीज है। इसमें शीघ्र प्रगति हुई और सन्‌ 1914 तक बेतार के तार से संकेतन का सब जगह प्रचलन हो गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जहाजी बेड़ों में संकेतन तथा तोपों की मार यिंत्रण के लिए बेतार के तार का प्रयोग पूर्ण रूप से विकसित हो गया और सब जहाजों पर प्रशिक्षित कूटज्ञ, बेतार के तार का प्रयोग जानने वाले नाविक तथा उच्च योग्यता वाले संकेतज्ञ नियुक्त किए गए।

अंतर्राष्ट्रीय संकेतन

19वीं शती के आरंभ में अंतर्राष्ट्रीय प्रयोग के लिए संकेत प्रणालियाँ तैयार और प्रकाशित की गईं। इनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध कैप्टेन मैरयैट की प्रणाली थी, जिसमें किसी भी संकेतन के लिए अधिक से अधिक चार झंडों का प्रयोग कर 9,000 संकेत भेजे जा सकते थे। सन्‌ 1855 में एक समिति ने ऐसा कूट तैयार किया, जिसमें 70,000 संकेत थे और 18 झंडों का प्रयोग अंग्रेज़ी वर्णमाला के सब व्यंजनों का निरूपण हो जाता था। सन्‌ 1889 में वाशिंगटन में हुई अंतर्राष्ट्रीय परिषद ने अंग्रेज़ी वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर के लिए एक झंडा अर्थात्‌ कुल 26 झंडों का, एक कूट तथा जवाबी पताका स्थिर की। इस कूट का प्रयोग प्रथम विश्वयुद्ध में किया गया, पर यह भी असंतोषजनक सिद्ध हुआ। इसलिए सन्‌ 1927 वाली विभिन्न राष्ट्रों की वाशिंगटन परिषद ने सुधार के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए-

  1. रेडियो टेलिग्राफी तथा चाक्षुष संकेतन के लिए अलग-अलग संकेत पुस्तकें तैयार की जाएँ
  2. अंकों के लिए दस झंडे तथा तीन प्रतिस्थापित झंडे और बढ़ा दिए जाएँ
  3. मॉर्स के संकेतन को रेडियो टेलिग्राफी के अनुकूल कर दिया जाए
  4. दूरसंकेत और अचल सेमाफोर को बंदल कर दिया जाए
  5. जहाजों के संकेताक्षर वे ही होने चाहिए, जो रेडियो बुलाने के हों तथा ये चार अक्षरों से बनने चाहिए।

इन सुझावों के अनुसार स्थिर निश्चयों में भी आवश्यकतानुसार सामान्य परिवर्तन किए गए। सेमाफोर वर्णमाला का, जिसका उपयोग हाथ में लिए झंड़ो द्वारा किया जाता है तथा मॉर्स कोड का, जिसको स्फुर प्रकाश ध्वनि, या बेतार के तार द्वारा संकेतन के काम में लाया जाता है, प्रयोग सभी देश समान रूप में करते हैं। महत्व के सब बंदरगाहों में तूफानों के तथा ज्वार-भाटा के आने की सूचनाओं के लिए विशिष्ट संकेत ऊँचाई पर या मस्तूलों पर प्रदर्शित किए जाते हैं।

वैमानिकीय संकेत

वैमानिकी में चाक्षुष संकेतन का स्थान रेडियो टेलिफोन तथा रेडियो टेलिग्राफी ने ले लिया है, किंतु एयरोड्रोम की कार्यविधि का निर्देश करने वाले कुछ चाक्षुष संकेत एयरोड्रोम की भूमि पर तथा ऊँचे ध्वजदंड पर प्रदर्शित किए जाते हैं। जिन वायुयानों में रेडियो टेलिफोन नहीं होता, उनको एयरोड्रोम नियंत्रक के आदेश मॉर्स कूट में एक विशेष प्रकार के लैंप द्वारा दिए जाते हैं। अन्य संदेशों और संकेतों के लिए रेडियो टेलिफोन का प्रयोग किया जाता है।[1]

रेलवे संकेतन

ग्रिगरी ने सन्‌ 1841 में यातायात की सुरक्षा के लिए यंत्र चालित सेमाफोर संकेतन की युक्ति निकाली थी, पर बाद में इसका स्थान अन्य रीतियों ने, जैसे- रंगीन प्रकाश द्वारा संकेतन, मार्ग परिपथ तथा स्वयं चालित गाड़ी नियंत्रण उपस्कर ने ले लिया। रंगीन प्रकाश द्वारा संकेतन की एक विधि में तीन रंगों के प्रकाश का प्रयोग किया जाता है। लाल रंग से 'रुक जाओ', पीले से 'आगे के सिग्नल पर रुकने के लिए तैयार रहते हुए आगे बड़ो' तथा हरे प्रकाश से 'आगे बढ़े जाओ' का संकेत किया जाता है। चार प्रकार की प्रकाशवली विधि में एक के ऊपर दूसरा, ऐसे दो पीले प्रकाशों का प्रयोग भी किया जाता है, जिसका अर्थ होता है कि 'सावधानी से आगे बढ़ो और आगे एक पीले, अथवा दो पीले प्रकाशों पर अन्य संकेत के लिए तैयार रहो।' मार्गपरिपथवली रीति में लाइन पर गाड़ी का आगमन एक रिले स्विच द्वारा संकेत प्रचालन परिपथ को खोल देता है। स्वयं चालित गाड़ी नियंत्रण उपस्कर में, रेलपथ पर स्थित ऐसी युक्ति होती है, जो रेल के इंजन तथा गाड़ी के बाहर रहते हुए भी, रेल के इंजन के नियंत्रकों का आवश्यकतानुसार परिचालन करती है। उपर्युक्त रीतियों के सिवाय संदेश प्रेषण के लिए अब उच्चावृत्ति, लघुपरास रेडियो के तथा रेडार के उपयोग की संभावनाओं की जाँच की जा रही है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 संकेतन (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 25 अगस्त, 2014।
  2. टेलिग्राफ

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