सबद
'सबद' 'शब्द' का रूपान्तर है। सबद या शब्द का प्रयोग हिंदी के संत-साहित्य में बहुलता से हुआ है। बड़थ्वाल ने ग़रीबदास के आधार पर लिखा है कि- शब्द, गुरु की शिक्षा, सिचण, पतोला, कूची, बाण, मस्क, निर्भयवाणी, अनहद वाणी, शब्दब्रह्म और परमात्मा के रूप में प्रयुक्त हुआ है[1]।
अर्थ
वेद 'शब्दपरक' है और वेद का अर्थ हुआ ज्ञान। अत: शब्द का भी अर्थ हुआ ज्ञान। वैदिक शब्द अपौरुषेय माने गये हैं और सन्त तथा नाथ-सम्प्रदाय में गुरु की प्रतिष्ठा ब्रह्म के समान ही है, अत: गुरु की वाणी का नामकरण शब्द, सबद, सबदी है। वैदिक वाणी ही सर्वकर्मों की अधिष्ठातृ और सर्वतोभावेन पालनीय है, उसी प्रकार गुरु-वाणी सर्वज्ञान-सम्पन्न, सर्वकर्माधिष्ठात्री और अतर्क्य भाव से ग्राह्य है। इस परम्परा के कारण कबीर की वाणी को ही वेद-वाणी के रूप में स्वीकृत किया गया है, क्योंकि 'वाणी हमारी पूरब'- की टीका करते हुए टीकाकारों ने लिखा है कि 'पूर्व' का अर्थ आदि, अत: पूर्व की वाणी का अर्थ हुआ आदिकालीन वाणी, अर्थात वेद। 'गोरखबानी'[2] में सबदी का प्रयोग उपदेश के अर्थ में हुआ है- सबद एक पूछिबा कहो गुरुदयालं, बिरिधि थै क्यूँ करि होइबा बालं। सामान्य रूप से पद रचनाएँ राग-रागनियों में बँधी होती हैं। शब्दों के लिए यह विधान नहीं है। उपदेशात्मक और सिद्धान्त निरूपक गेय पदों को सबदी कहते हैं। 'गोरखबानी' की प्रथम सबदी है-
बसती न सुन्यं सुन्यं न बसती अगम अगोचर ऐसा।
गगन सिखर महि बालक बोले ताका नाँव धरहुगे कैसा।
- अनहद नाद की चर्चा करने वाली गीतियों के अर्थ में भी सबद का प्रयोग है, क्योंकि 'गोरखबानी' [3] के अनुसार 'सबद अनाहत' ही सबदी है।
- 'शब्दस्तोत्रमाला' के अनुसार-
सबद अखण्डित रूप, सबदु नहिं पण्डित होई। जैसा सबद अगाध, सकल घट रह्यो समोई।
सबदु करै आचार सबद रोये अरु गावै। निर्गुन सर्गुन बनरि सबद सबही मै पावै"।[4]
स्वरूप
सन्तों की 'सबद' (शब्द) अथवा पद नामक रचनाएँ अधिकतर गेय हुआ करती हैं और इनमें उनके आत्मनिवेदन जैसे व्यक्तिगत उद्गारों की ही प्रधानता रहती है। आकार की दृष्टि से ये पद छोटे या बड़े, सभी प्रकार के हो सकते हैं, किन्तु इनकी कोई-न-कोई पंक्ति ऐसी भी होती है, जो 'टेक' या 'रहाउ' के रूप में दोहराई जाती है। इन पदों को ही सन्तों की 'बानी' कहने की भी प्रथा है, यद्यपि इस शब्द का प्रयोग उनकी सभी प्रकार की रचनाओं के लिए भी किया गया मिलता है। पदों एवं साखियों की रचना केवल फुटकर पद्यों के रूप में की गयी दीख पड़ती है, किन्तु रमैनियों के विषय में हम ऐसा नहीं कह सकते। इनकी दोहा-चौपाइयाँ एक साथ क्रमिक रूप में आकर किसी विषय के विवरणात्मक वर्णन के लिए अधिक उपयुक्त ठहरती है।[5] 'सबद' या 'शब्द' प्राय: गेय होते हैं। अत: राग रागिनियों में बँधे पर 'सबद' या शब्द कहते जाते रहे हैं। सिद्धों से लेकर निर्गुणी, सगुणी सभी संप्रदाय के संत अथवा भक्तों ने विविध राग रागिनियों में पदरचना की है। परंतु प्रत्येक गेय पद सबद नहीं कहा जाता। संतों की अनुभूति 'सबद' कहलाती है। कबीर की रचनाओं में 'सबद' का बहुत प्रयोग हुआ है और भिन्न भिन्न अर्थों में हुआ है। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने 'हिंदी साहित्य का आदिकाल' शीर्षक ग्रंथ में लिखा है -
संवत् 1715 की लिखी हुई एक प्रति से संग्रहीत और गोरखबानी में उद्धृत पदों को 'सबदी' कहा गया है। कबीर ने संभवत: वहीं से 'सबद' ग्रहण किया होगा।' [6]
काव्यरूप
कबीर साहित्य में दूसरा प्रिय काव्य रूप है, पद जिसे 'सबद' कहा गया है। पदों में साखियों के भाव का विस्तार किया गया है। 'सबद' में शब्द ब्रह्म का भाव भी निहित है, सम्भवत: इसीलिए सन्तों ने इस संज्ञा का प्रयोग किया है। कबीर के पद पूर्णतया गेय हैं। पद शैली की रचना सिद्धों द्वारा चर्यापदों के रूप में आदिकाल से ही शुरू कर दी गयी थी। सन्तों द्वारा इस परम्परा का ग्रहण वहीं से हुआ। साखियों में पदों की अपेक्षा उपदेश की वृत्ति अधिक है। स्वानुभूत भावों के सहज उद्गार से इन पदों का सृजन हुआ है। इसीलिए इनमें वैयक्तिक अनुभूति की प्रधानता है। इसमें एक ही पद के अन्तर्गत कई छन्दों का समावेश कर लिया गया है, जैसे दोहा, सरसी आदि। जहाँ एक ही छन्द का प्रयोग हुआ है, वहाँ अधिकतर रूपमाला, तांटक, विष्णुपद में से कोई एक छन्द है। कबीर की रचनाओं के कुछ संग्रहों में पदों के साथ रागों का निर्देश भी किया गया है। इन्हें तरह-तरह से गाया जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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