सांख्य दर्शन और उपनिषद

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द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥
समाने वृक्षे पुरुषों निमग्नोऽनाशया शोचति मुह्यमान:।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोक:॥
यदा पश्य: पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्।
तदा विद्वान्पुण्यपापे विधूय निरंजन: परमं साम्यमुपैति॥ - मुण्डकोपनिषद 3/1/1-3

  • दो सुन्दर वर्ण वाले पक्षी एक ही वृक्ष पर सखा-भाव से सदा साथ-साथ रहते हैं। उनमें से एक तो फल भोग करता है और दूसरा भोग न करते हुए देखता रहता है। एक ही वृक्ष पर रहने पर भी वृक्ष पर 'ईशत्व' न होने से मोहित होकर चिन्तित रहता है। वह जिस समय अपने से भिन्न ईश्वर और उसकी महिमावान शोकरहित पक्षी देखता है, जब जगत्कर्ता ईश्वर पुरुष को देखता है तब वह विद्वान पुण्य-पाप त्याग कर उसके समान शुद्ध और परम साम्य को प्राप्त हो जाता है।
  • आलंकारिक काव्यमय रूप से महाभारत में प्रस्तुत त्रैतवादी सांख्य का इस मन्त्र में स्पष्ट निरूपण दीखता है। वृक्ष(प्रकृति) पर बैठे दो पक्षी हैं। एक वृक्ष के फलों का भोग कर रहा है। (जीवात्मा) दूसरा शोक रहित भाव से देख रहा है परमात्मा। इस तरह प्रकृति और परमात्मा-जीवात्मा निरूपण ही वास्तव में कपिल सांख्य का आधार बना। इस त्रैत को श्वेताश्वतर उपनिषद में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया- 'यहाँ दो चेतन तत्त्वों का उल्लेख है एक अनीश और भोक्ता है और दूसरा विश्व का ईश, भर्ता है। एक प्रकृति है जो जीवात्मा के भोग के लिए नियुक्त है। इस तरह तीन अज अविनाशी तत्त्व हैं, शाश्वत तत्त्व (ब्रह्म) है इन्हें जानकर (व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात्) मुक्ति प्राप्त होती है। श्वेताश्वतर में इस प्रसंग में एक अन्य रूप से सांख्य सम्मत त्रैतावाद का उल्लेख है-

अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां वह्वी: प्रजा सृजामानां सरूपा:।
अजो हि एको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्य:॥[1]

यहाँ लोहित शुक्ल कृष्ण वर्ण क्रमश: रजस, सत्त्व तथा तमस-त्रिगुण के लिए प्रयुक्त है। इन तीन गुणों से युक्त एक अजा (अजन्मा) तत्त्व है। इसका भोग करता हुआ एक अज तत्त्व है तथा भोग रहित एक और अज तत्त्व (परमात्मा) है। इस प्रकार यह उपनिषदवाक्य त्रिगुणात्मक प्रसवधर्मि (सृजन करने वाली) प्रकृति का उल्लेख भी करती है। परमात्मा को मायावी कहकर प्रकृति को ही माया कहा गया है।[2] इस प्रसंग में पुन: मायावी और माया से बन्धे हुए अन्य तत्त्व जीवात्मा का उल्लेख भी है।[3]

  • सांख्यसम्मत तत्त्वों का सांख्य परम्परा की पदावली में ही 'कठोपतिषद' इस प्रकार वर्णन करती है।[4]

इन्द्रियेम्य: परं मनो मनस: सत्त्वमुत्तमम्।
सत्त्वादधिमहानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम्।
अव्यक्तात्तु पर: पुरुषो व्यापकोऽलिंग एव च॥
यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्त्वं च गच्छति। (कठोपनिषद- 2।3।7-8)

  • इन समस्त इन्द्रियों से युक्त आत्मा-जीवात्मा-को भोक्ता कहा गया है। सांख्य दर्शन में तो पुरुष के अस्तित्व हेतु दी गई युक्तियों में भोक्तृत्व को पुरुष का लक्षण भी माना गया है। इन शब्दों के प्रयोग से तथा उक्त वर्णन से इन उपनिषदों पर सांख्यदर्शन के प्रभाव का पता चलता है।
  • छान्दोग्योपनिषद में सृष्टि रचना के संदर्भ में कहा गया है कि पहले सत ही था। उसने ईक्षण किया- 'मैं बहुत हो जाऊँ' य उसने तेज़ का सृजन किया। इसी तरह तेज़ से अप् तथा अप् से अन्न के सृजन का वर्णन है। इस वर्णन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सत् तेज़ या अप् नहीं हो गया वरन् सत् सृजन किया। अत: उसे ही उपादान मान लेने का कोई ठोस आधार नहीं है। वास्तव में सत् में अव्यक्त भाव से स्थित तेज़ अप् अन्न का सृजन किया- ऐसा भाव है। तेज़ अप्, अन्न क्रमश: सांख्योक्त सत्त्व, रजस व तमस ही है। इस प्रसंग में बताया गया तेजस अग्निरूप रक्त वर्ण का, अप् शुक्ल वर्ण का तथा अन्न कृष्ण वर्ण का है। प्रत्येक पदार्थ में ये तीनों ही सत्य हैं। शेष वाचारम्मणं विकार मात्र हैं। इन तीन का सृजन करके वह जीवात्मा से उसमें प्रविष्ट हुआ। प्रवेश से चेतन-अचेतन द्वैत की सांख्यसम्मत मान्यता की स्थापना ही होती है।
  • आचार्य उदयवीर शास्त्री ने इस प्रसंग को 'अनेन तथा अनुप्रवेश्य' शब्दों के आधार पर परमात्मा तथा जीवात्मा दो चेतन तत्त्वों का अर्थ ग्रहण किया।[5] इसी प्रसंग में जिस 'त्रिवृत' की चर्चा की गई है वह त्रिगुण की परस्पर क्रिया के रूप में ही समझी जा सकती है।
  • मैत्र्युपनिषद में तो सांख्य तत्त्वों का उन्हीं शब्दों में उल्लेख है। पुरुषश्चेता प्रधानानान्त:स्थ: स एव भोक्ता प्राकृतमन्नं भुङक्ता इति... प्राकृतमन्न त्रिगुणभेद परिणामात्मान्महदाद्यं विशेषान्तं लिंगम्, आदि उपनिषदों में सांख्य सिद्धान्तों का मिलना इस बात का सूचक है कि सांख्य पर उपनिषत प्रभाव है और सांख्य शास्त्र का उपनिषदों पर प्रभाव है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्वेताश्वतर उपनिषद 4/5
  2. श्वेताश्वतर उपनिषद 4/10
  3. श्वेताश्वतर उपनिषद 4/10 4/9
  4. कठोपनिषद 2/3/6,8
  5. सां.सि. पृष्ठ 50

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