सूरदास की मृत्यु
सूरदास की मृत्यु
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पूरा नाम | महाकवि सूरदास |
जन्म | संवत् 1540 विक्रमी (सन् 1483 ई.) अथवा संवत 1535 विक्रमी (सन् 1478 ई.) |
जन्म भूमि | रुनकता, आगरा |
मृत्यु | संवत् 1642 विक्रमी (सन् 1585 ई.) अथवा संवत् 1620 विक्रमी (सन् 1563 ई.) |
मृत्यु स्थान | पारसौली |
अभिभावक | रामदास (पिता) |
कर्म भूमि | ब्रज (मथुरा-आगरा) |
कर्म-क्षेत्र | सगुण भक्ति काव्य |
मुख्य रचनाएँ | सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य-लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो आदि |
विषय | भक्ति |
भाषा | ब्रज भाषा |
पुरस्कार-उपाधि | महाकवि |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | सूरदास जी वात्सल्य रस के सम्राट माने जाते हैं। उन्होंने श्रृंगार और शान्त रसों का भी बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
सूरदास हिन्दी साहित्य में भक्ति काल में कृष्ण के भक्त कवियों में अग्रणी हैं। महाकवि सूरदास वात्सल्य रस के सम्राट माने जाते हैं। उन्होंने श्रृंगार और शान्त रसों का भी बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। हिन्दी कविता कामिनी के इस कमनीय कांत ने हिन्दी भाषा को समृद्ध करने में जो योगदान दिया, वह अद्वितीय है। सूरदास की मधुर कविताएँ और भक्तिमय गीत लोगों को भगवान की तरफ़ आकर्षित करते थे। धीरे-धीरे उनकी ख्याति बढ़ती गयी और मुग़ल शासक अकबर भी उनके दर्शक बन गये। सूरदास ने अपने संग्रह 'सूरसागर' में तक़रीबन हज़ार से भी ज्यादा गीतों की रचना की है, जिनमें से 8000 आज भी विद्यमान हैं। उन्हें एक सगुण भक्ति का कवि कहा जाता था और वे संत सूरदास के नाम से प्रसिद्ध थे। उनके नाम का अर्थ भी 'मधुर संगीत का संत' होता है।
मृत्यु
पारसौली वह स्थान है, जहाँ पर कहा जाता है कि कृष्ण ने रासलीला की थी। एक समय आचार्य वल्लभ, श्रीनाथ जी और गोसाई विट्ठलनाथ ने श्रीनाथ जी की आरती करते समय सूरदास को अनुपस्थित पाकर जान लिया कि सूरदास का अन्त समय निकट आ गया है। उन्होंने अपने सेवकों से कहा कि- "पुष्टिमार्ग का जहाज़ जा रहा है, जिसे जो लेना हो ले ले।" आरती के उपरान्त गोसाई जी रामदास, कुम्भनदास, गोविंदस्वामी और चतुर्भुजदास के साथ सूरदास के निकट पहुँचे और सूरदास को, जो अचेत पड़े हुए थे, चैतन्य होते हुए देखा। सूरदास ने गोसाई जी का साक्षात् भगवान के रूप में अभिनन्दन किया और उनकी भक्तवत्सलता की प्रशंसा की। चतुर्भुजदास ने इस समय शंका की कि सूरदास ने भगवद्यश तो बहुत गाया, परन्तु आचार्य वल्लभ का यशगान क्यों नहीं किया।
सूरदास ने बताया कि उनके निकट आचार्य जी और भगवान में कोई अन्तर नहीं है, जो भगवद्यश है, वही आचार्य जी का भी यश है। गुरु के प्रति अपना भाव उन्होंने "भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो" वाला पद गाकर प्रकट किया। इसी पद में सूरदास ने अपने को "द्विविध आन्धरो" भी बताया। गोसाई विट्ठलनाथ ने पहले उनके 'चित्त की वृत्ति' और फिर 'नेत्र की वृत्ति' के सम्बन्ध में प्रश्न किया तो उन्होंने क्रमश: 'बलि बलि बलि हों कुमरि राधिका नन्द सुवन जासों रति मानी' तथा 'खंजन नैन रूप रस माते' वाले दो पद गाकर सूचित किया कि उनका मन और आत्मा पूर्णरूप से राधा भाव में लीन है। इसके बाद सूरदास ने शरीर त्याग दिया।
सूरदास का स्थान
धर्म, साहित्य और संगीत के सन्दर्भ में महाकवि सूरदास का स्थान न केवल हिन्दी भाषा के क्षेत्र, बल्कि सम्पूर्ण भारत में मध्य युग की महान् विभूतियों में अग्रगण्य है। यह सूरदास की लोकप्रियता और महत्ता का ही प्रमाण है कि 'सूरदास' नाम किसी भी अन्धे भक्त गायक के लिए रूढ़-सा हो गया है।
मध्य युग में इस नाम के कई भक्त कवि और गायक हो गये हैं, अपने विषय में मध्य युग के ये भक्त कवि इतने उदासीन थे कि उनका जीवन-वृत्त निश्चित रूप से पुन: निर्मित करना असम्भव प्राय है, परन्तु इतना कहा जा सकता है कि 'सूरसागर' के रचयिता सूरदास इस नाम के व्यक्तियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध और महान् थे और उन्हीं के कारण कदाचित यह नाम उपर्युक्त विशिष्ट अर्थ के द्योतक सामान्य अभिधान के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ये सूरदास विट्ठलनाथ द्वारा स्थापित 'अष्टछाप' के अग्रणी भक्त कवि थे और 'पुष्टिमार्ग' में उनकी वाणी का आदर बहुत कुछ सिद्धान्त वाक्य के रूप में होता है।
सूरदास की मृत्यु |
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