स्वयंभू देव (आठवीं शताब्दी) अविवाद रूप से अपभ्रंश के सर्वश्रेठ कवि माने गये हैं। उनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए अपभ्रंश के ही परवर्ती कवि पुष्पदंत ने उन्हें व्यास, भास, कालिदास, भारवि, बाण आदि प्रमुख कवियों की श्रेणी में विराजमान कर दिया है। भारतीय संस्कृति के जाने माने समीक्षक राहुल सांकृत्यायन ने अपभ्रंश भाषा के काव्यों को आदिकालीन हिन्दी काव्य के अंतर्गत स्थान देते हुए कहा है - 'हमारे इसी युग में नहीं, हिन्दी कविता के पाँचों युगों के जितने कवियों को हमने यहाँ संग्रहित किया है, यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि उनमें स्वयंभू सबसे बड़े कवि थे। वस्तुत: वे भारत के एक दर्जन अमर कवियों में से एक थे।'
परिचय
स्वयंभू देव के पिता का नाम 'मारुतिदेव' और माता का नाम 'पद्मिनी' था। मारुतिदेव भी कवि थे। अपने पिता का संकेत करते हुए [1] वे स्वयंभू - व्याकरण में उनका एक दोहा उदाहरण के रूप में देते हैं।[2]स्वयंभू देव स्वयं अपभ्रंश के छंद शास्त्र और व्याकरण शास्त्र के आचार्य थे। वे अपने आचारों में भिक्षु या मुनि नहीं थे, वे एक श्रेष्ठ उपासक थे। 'पउम चरिउ' संधि (सर्ग) 42 और 20 के पदों में उनकी दो पत्नियों का उल्लेख मिलता है। प्रथम का नाम 'आइच्चंबा' (आदित्याम्बा) और दूसरी का नाम 'सामिअंब्बा' था। सम्भवत: उनकी और भी पत्नियाँ रही हों। इन पत्नियों से उनके अनेक पुत्र हुए जिनमें सबसे छोटे का नाम 'त्रिभुवन स्वयंभू' था। ये त्रिभुवन स्वयंभू भी कवि थे। इस प्रकार इस कुल में काव्य की परम्परा का विशेष मान था। त्रिभुवन कवि होने के साथ ही बड़े विद्वान और वैयाकरण थे। इन्होंने अपने पिता स्वयंभू देव की रचनाओं की सफलता के साथ पूर्ति की। यद्यपि यह पूर्ति पिता के अधूरे ग्रंथों की नहीं थी तथापि जहाँ कहीं प्रसंग स्पष्ट नहीं हुए, वहाँ उनकी स्पष्टता के लिए त्रिभुवन ने अनेक 'कड़वकों' और 'संधियों' की रचनाएँ की।[3]
उपाधियाँ
स्वयंभू देव 'महाकवि', 'कविराज', 'कविराज-चक्रवर्ती' आदि अनेक उपाधियों से सम्मानित थे।
रचनाएँ
स्वयंभू ने अपभ्रंश में 'पउमचरित' लिखकर जहाँ रामकथा परम्परा को समृद्ध बनाया है, वहीं 'रिट्ठणेमिचरिउ' प्रबन्ध काव्य लिखकर कृष्णकाव्य की परम्परा को आगे बढ़ाया है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि प्रबन्धकाव्य के क्षेत्र में स्वयंभू अपभ्रंश के आदि कवि हैं। वह अपभ्रंश के रामकथात्मक काव्य के यदि 'वाल्मीकि' हैं तो कृष्ण काव्य के व्यास हैं। अपभ्रंश का कोई भी परवर्ती कवि ऐसा नहीं है जो स्वयंभू से प्रभावित न हुआ हो। स्वयंभू देव ने चार ग्रंथों की रचना की है -
- पउम चरिउ - (पद्म चरित्र - जैन रामायण)
- रिट्ठणेमि चरिउ - (अरिष्टनेमि चरित्र - हरिवंश पुराण)
- पंचमि चरिउ - (नागकुमार चरित)
- स्वयंभू छंद
समय
हिन्दी के जैन कवियों में सबसे पहला नाम स्वयंभू देव का आता है। ये अपभ्रंश भाषा के महाकवि थे। किंतु इन्होंने अपना ग्रंथ 'पउम चरिउ' (पद्म चरित्र - जैन रामायण) में ऐसी अपभ्रंश भाषा का प्रयोग किया है जिसमें प्राचीन हिन्दी का रूप इंगित है। इनका समय विक्रम की आठवीं शताब्दी ज्ञात होता है। इसका कारण यह है कि इन्होंने अपने ग्रंथ 'पउम चरिउ' और 'रिट्ठिनेमि चरिउ' में अपने पूर्ववर्ती कवियों और उनकी रचनाओं का उल्लेख किया है। इन कवियों में एक 'रविषेणाचार्य' हैं। रविषेण के 'पद्म चरित' का लेखन काल विक्रम सम्वत 734 है। अत: स्वयंभू देव का समय सम्वत 734 के बाद है। सर्वप्रथम स्वयंभू देव का उल्लेख महाकवि 'पुष्पदंत' ने किया है। [4] महाकवि पुष्पदन्त ने अपने महापुराण का प्रारम्भ सं. 1016 में किया। अत: स्वयंभू देव का समय सं. 734 से 1016 के बीच ठहरता है। लगभग 300 वर्षों की लम्बी अवधि में ठीक सम्वत खोजना कठिन है। श्री नाथूराम 'प्रेमी' इस अवधि में स्वयंभू देव का काल सम्वत 734 से 840 के बीच मानते हैं। राहुल सांकृत्यायन सं. 847 के लगभग अनुमान करते हैं। इस सम्बंध में पर्याप्त ऐतिहासिक साम्रगी प्राप्त नहीं है। अभी हमें इसी से संतोष करना चाहिए कि स्वयंभू देव विक्रम की आठवीं शताब्दी में हुए। स्वयंभू ने अपनी रचनाओं में अपने प्रदेश या जन्मस्थान का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है।
- स्व. डॉ. हीरालाल जैन का मत था कि 'हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेन तथा आदिपुराण के कर्ता जिनसेन की तरह कवि स्वयंभू भी दक्षिण प्रदेश के निवासी रहे होंगे क्योंकि उन्होंने अपने काव्यों में धनंजय, धवलइया और वन्दइया आदि जिन आश्रयदाताओं का उल्लेख किया है वे नाम से दक्षिणात्य प्रतीत होते हैं।'
- स्व. पं. नाथूराम प्रेमी का विचार था कि 'स्वयंभू कवि पुष्पदंत की तरह ही बरार की तरफ के रहे होंगे और वहाँ से वे राष्ट्रकूट की राजधानी में पहुँचे होंगे।'
- स्वयंभू की कृतियों में ऐसे अंतरंग साक्ष्य मिलते हैं जिससे उन्हें महाराष्ट्र या गोदावरी के निकट के किसी प्रदेश का माना जा सकता है।
कला सौष्ठव
स्वयंभू देव बहुत अच्छे कवि थे। उन्होंने जीवन की विविध दशाओं का बड़ा हृदयाकर्षक वर्णन किया है। 'पउम चरिउ' में वे विलाप और युद्ध लिखने में विशेष पटु हैं। उन्होंने नारी विलाप, बन्धु विलाप, दशरथ विलाप, राम विलाप, भरत विलाप, रावण विलाप, विभीषण विलाप आदि बड़े सुन्दर ढंग से लिखे हैं। युद्ध में वे योद्धाओं की उमंगें, रण यात्रा, मेघवाहन युद्ध, हनुमान युद्ध, कुम्भकर्ण युद्ध, लक्ष्मण युद्ध बड़े वीरत्व पूर्ण ढंग स्पष्ट करते हैं। प्रेम विरह गीत, प्रकृति वर्णन, नगर वर्णन और वस्तु वर्णन भी वे बड़े विस्तार और स्वाभाविक ढंग से लिखते हैं।
- रावण की मृत्यु पर मन्दोदरी विलाप (करुण रस)
आएहिं सोआरियहि, अट्ठारह हिव जुवह सहासेहिं।
णव घण माला डंबरेहि, छाइउ विज्जु जेम चउपासेहिं॥
रोवइ लंकापुर परमेसिर। हा रावण! तिहुयण जण केसरि॥
पइ विणु समर तुरु कहों वज्जइ। पइ विणु बालकील कहो छज्जइ॥
पइ विणु णवगह एक्कीकरणउ। को परिहेसइ कंठाहरणउ॥
पइविणु को विज्जा आराहइ। पइ विणु चन्द्रहासु को साहइ॥
को गंधव्व वापि आडोहइ। कण्णहों छवि सहासु संखोहइ॥
पण विणु को कुवेर भंजेसइ। तिजग विहुसणु कहों वसें होसइ॥
पण विणु को जमु विणवारेसई। को कइलासु द्धरण करेसई॥
सहस किरणु णल कुब्वर सक्कहु। को अरि होसइ ससि वरुणक्कहु॥
को णिहाण रयणइ पालेसइ। को वहुरूविणि विज्जां लएसइ॥
घत्ता - सामिय पइँ भविएण विणु, पुफ्फ विमापों चडवि गुरुभत्तिएँ।
मेरु सिहरें जिण मंदिरइँ, को मइ णेसइ वंदण हत्तिए।
- हनुमान का युद्ध वर्णन - (वीररस)
हणुवंत रणे परिवेडिज्जइ णिसियरेहिं। णं गयण यले बाल दिवायरु जलहरेहिं।
पर - वलु अणंतु हणुवंत एक्कु। गय जूहहों णाइ इंदु थक्कु॥
आरोक्कइ कोक्कइ समुहु धाइ। जहि जहि जेथट्ट तहि तहि जें थाइ।
गय - घड भड थड भंजुंतु जाइ। वंसत्थलें लग्गु दवग्गि णाइ॥
एक्कू रहु महाँहवें रस विसट्टु । परिभमइ णाइँ वलें भइय वट्ट।
सो णवि भडु जासु ण मलिउ माणु। सो ण धयउ जामु ण लग्णु वाणु।
सो णवि भडु जासु झा छिष्गु गत्तु। तं णवि विमाणु जहि सरु ण पत्तु॥
घत्ता - जगडंतु बलु मारुइ हिंडइ जहिं जें जहिं।
संगाम महिहें रुंड णिरंतर तहि जे तहिं॥
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