चतुरसेन शास्त्री
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पूरा नाम | आचार्य चतुरसेन शास्त्री |
जन्म | 26 अगस्त, 1891 |
जन्म भूमि | बुलन्दशहर, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 2 फ़रवरी, 1960 |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | उपन्यासकार |
मुख्य रचनाएँ | वैशाली की नगरवधू, वयं रक्षाम, सोमनाथ, मन्दिर की नर्तकी, रक्त की प्यास आदि। |
विषय | सामाजिक, इतिहास, राजनीति |
भाषा | हिन्दी |
अन्य जानकारी | चतुरसेन शास्त्री ने उपन्यासों के अलावा कहानियाँ लिखी भी हैं, जिनकी संख्या प्राय: साढ़े चार सौ है। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
आचार्य चतुरसेन शास्त्री (अंग्रेज़ी: Acharya Chatursen Shastri, जन्म- 26 अगस्त, 1891, बुलन्दशहर, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 2 फ़रवरी, 1960) हिन्दी साहित्य के महान् उपन्यासकार थे। इनका अधिकांश लेखन ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित था। आचार्य चतुरसेन के उपन्यास रोचक और दिल को छूने वाले होते है। इनकी प्रमुख कृतियाँ 'गोली', 'सोमनाथ', 'वयं रक्षाम:' और 'वैशाली की नगरवधू' इत्यादि हैं।
जीवन परिचय
आचार्य चतुरसेन शास्त्री का जन्म 26 अगस्त, 1891 को चांदोख ज़िला बुलन्दशहर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। ऐतिहासिक उपन्यासकार के रूप में इनकी प्रतिष्ठा है। चतुरसेन शास्त्री की यह विशेषता है कि उन्होंने उपन्यासों के अलावा और भी बहुत कुछ लिखा है, कहानियाँ लिखी हैं, जिनकी संख्या प्राय: साढ़े चार सौ है। गद्य-काव्य, धर्म, राजनीति, इतिहास, समाजशास्त्र के साथ-साथ स्वास्थ्य एवं चिकित्सा पर भी उन्होंने अधिकारपूर्वक लिखा है।
द्विवेदी युग में देवकीनन्दन खत्री, गोपालराम गहमरी, किशोरीलाल गोस्वामी आदि रचनाकारों ने तिलस्मी एवं जासूसी उपन्यास लिखे जो कि उन दिनों अत्यन्त लोकप्रिय हुए। देवकीनन्दन खत्री जी की “चन्द्रकान्ता” उपन्यास तो लोगों को इतनी भायी कि लाखो लोगों ने उसे पढ़ने के लिए हिन्दी सीखा। तिलस्मी और जासूसी उपन्यासों के लेखकों के अतिरिक्त प्रेमचन्द, वृंदावनलाल वर्मा, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, विश्वम्भर नाथ कौशिक, चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’, सुदर्शन, जयशंकर ‘प्रसाद’ आदि द्विवेदी युग के साहित्यकार रहे।[1]
सन 1943-44 के आसपास जब हम लोग दिल्ली आए तो देश की राजधानी कहलाने वाली दिल्ली में हिन्दी भाषा और साहित्य का कोई विशेष प्रभाव नहीं था। यदाकदा धार्मिक अवसरों पर कवि-गोष्ठियां हो जाया करती थीं। एकाध बार हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन भी हुआ था। लेकिन उस समय आचार्य चतुरसेन शास्त्री और जैनेन्द्रकुमार के अतिरिक्त कोई बड़ा साहित्यकार दिल्ली में नहीं था। बाद में सर्वश्री गोपालप्रसाद व्यास, नगेन्द्र, विजयेन्द्र स्नातक आदि यहां आए।[2]
रचनायें
मेरठ क्षेत्र की सुदीर्घ साहित्यिक परंपरा रही है। यहां के साहित्यकारों ने हिन्दी साहित्य में न केवल इस क्षेत्र के जनजीवन के सांस्कृतिक पक्ष को अभिव्यक्त किया, बल्कि इस अंचल की भाषिक संवेदना को भी पहचान दी। इन साहित्यकारों के बिना हिन्दी साहित्य का इतिहास पूरा नहीं हो सकता। 26 अगस्त, 1891 को बुलंदशहर के चंदोक में जन्मे आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने 32 उपन्यास, 450 कहानियां और अनेक नाटकों का सृजन कर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। ऐतिहासिक उपन्यासों के माध्यम से उन्होंने कई अविस्मरणीय चरित्र हिन्दी साहित्य को प्रदान किए। सोमनाथ, वयं रक्षाम:, वैशाली की नगरवधू, अपराजिता, केसरी सिंह की रिहाई, धर्मपुत्र, खग्रास, पत्थर युग के दो बुत, बगुला के पंख उनके महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं। चार खंडों में लिखे गए सोना और ख़ून के दूसरे भाग में 1857 की क्रांति के दौरान मेरठ अंचल में लोगों की शहादत का मार्मिक वर्णन किया गया है। गोली उपन्यास में राजस्थान के राजा-महाराजाओं और दासियों के संबंधों को उकेरते हुए समकालीन समाज को रेखांकित किया गया है। अपनी समर्थ भाषा शैली के चलते शास्त्रीजी ने अद्भुत लोकप्रियता हासिल की और वह जन साहित्यकार बने।[3]
इनकी प्रकाशित रचनाओं की संख्या 186 है, जो अपने ही में एक कीर्तिमान है। आचार्य चतुरसेन मुख्यत: अपने उपन्यासों के लिए चर्चित रहे हैं। इनके प्रमुख उपन्यासों के नाम हैं-
- वैशाली की नगरवधू
- वयं रक्षाम
- सोमनाथ
- मन्दिर की नर्तकी
- रक्त की प्यास
- सोना और ख़ून (चार भागों में)
- आलमगीर
- सह्यद्रि की चट्टानें
- अमर सिंह
- हृदय की परख
इनकी सर्वाधिक चर्चित कृतियाँ ‘वैशाली की नगरवधू’, ‘वयं रक्षाम’ और ‘सोमनाथ’ हैं। हम यहाँ ‘वैशाली की नगरवधू’ की विस्तृत चर्चा करेंगे, जो कि इन तीनों कृतियों में सर्वश्रेष्ठ है। यह बात कोई इन पंक्तियों का लेखक नहीं कह रहा, बल्कि स्वयं आचार्य शास्त्री ने इस पुस्तक के सम्बन्ध में उल्लिखित किया है - मैं अब तक की अपनी सारी रचनाओं को रद्द करता हूँ, और वैशाली की नगरवधू को अपनी एकमात्र रचना घोषित करता हूँ। भूमिका में उन्होंने स्वयं ही इस कृति के कथानक पर अपनी सहमति दी है -यह सत्य है कि यह उपन्यास है। परन्तु इससे अधिक सत्य यह है कि यह एक गम्भीर रहस्यपूर्ण संकेत है, जो उस काले पर्दे के प्रति है, जिसकी ओट में आर्यों के धर्म, साहित्य, राजसत्ता और संस्कृति की पराजय, मिश्रित जातियों की प्रगतिशील विजय सहस्राब्दियों से छिपी हुई है, जिसे सम्भवत: किसी इतिहासकार ने आँख उघाड़कर देखा नहीं है।
आचार्य चतुरसेन की पुस्तक वयं रक्षाम: का मुख्य पात्र रावण है न कि राम। यह रावण से संबन्धित घटनाओं का ज़िक्र करती है और उनका दूसरा पहलू दिखाती है। इसमें आर्य और संस्कृति के संघर्ष के बारे में चर्चा है। आर्य संस्कृति के बारे में यह कुछ इस प्रकार बताती है-
उन दिनों तक भारत के उत्तराखण्ड में ही आर्यों के सूर्य-मण्डल और चन्द्र मण्डल नामक दो राजसमूह थे। दोनों मण्डलों को मिलाकर आर्यावर्त कहा जाता था। उन दिनों आर्यों में यह नियम प्रचलित था कि सामाजिक श्रंखला भंग करने वालों को समाज-बहिष्कृत कर दिया जाता था। दण्डनीय जनों को जाति-बहिष्कार के अतिरिक्त प्रायश्चित जेल और जुर्माने के दण्ड दिये जाते थे। प्राय: ये ही बहिष्कृत जन दक्षिणारण्य में निष्कासित, कर दिये जाते थे। धीरे-धीरे इन बहिष्कृत जनों की दक्षिण और वहां के द्वीपपुंजों में दस्यु, महिष, कपि, नाग, पौण्ड, द्रविण, काम्बोज, पारद, खस, पल्लव, चीन, किरात, मल्ल, दरद, शक आदि जातियां संगठित हो गयी थीं।- वयं रक्षाम: से
आचार्य चतुरसेन शास्त्री के भी अपने लेखन के संबंध में कुछ ऐसे ही वक्तव्य मिल जाते हैं। 'सोमनाथ' के विषय में उन्होंने लिखा है कि कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के उपन्यास 'जय सोमनाथ' को पढ़ कर उनके मन में आकांक्षा जागी कि वे मुंशी के नहले पर अपना दहला मारें; और उन्होंने अपने उपन्यास 'सोमनाथ' की रचना की। 'वयंरक्षाम:' की भूमिका में उन्होंने स्वीकार किया है कि उन्होंने कुछ नवीन तथ्यों की खोज की है, जिन्हें वे पाठक के मुँह पर मार रहे हैं। परिणामत: नहले पर दहला मारने के उग्र प्रयास में 'सोमनाथ' अधिक से अधिक चामत्कारिक तथा रोमानी उपन्यास हो गया है; और अपने ज्ञान के प्रदर्शन तथा अपने खोजे हुए तथ्यों को पाठकों के सम्मुख रखने की उतावली में, उपन्यास विधा की आवश्यकताओं की पूर्ण उपेक्षा कर वे 'वयंरक्षाम:' और 'सोना और ख़ून' में पृष्ठों के पृष्ठ अनावश्यक तथा अतिरेकपूर्ण विवरणों से भरते चले गए हैं। किसी विशिष्ट कथ्य अथवा प्रतिपाद्य के अभाव ने उनकी इस प्रलाप में विशेष सहायता की है। ये कोई ऐसे लक्ष्य नहीं हैं, जो किसी कृति को साहित्यिक महत्व दिला सकें अथवा वह राष्ट्र और समाज की स्मृति में अपने लिए दीर्घकालीन स्थान बना सकें। 'सोना और ख़ून' लिखते हुए चतुरसेन शास्त्री, कदाचित् इतिहास की रौ में ऐसे बह गए कि भूल ही गए कि वे उपन्यास लिख रहे हैं, अत: सैकड़ों पृष्ठ इतिहास ही लिखते चले गए। इससे उपन्यास तत्व की हानि होती है; क्योंकि उपन्यास मात्र इतिहास नहीं है। 'वैशाली की नगरवधू' तथा अन्य अनेक ऐतिहासिक उपन्यास लिखने का लक्ष्य एक विशेष प्रकार के परिवेश का निर्माण करना भी हो सकता है; किंतु इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि अनेक लोग 'वैशाली की नगरवधू' में स्त्री की बाध्यता और पीड़ा देखते हैं। वैसे इतिहास का वह युग, एक ऐसा काल था, जिसमें साहित्यकार को अनेक आकर्षण दिखाई देते हैं। महात्मा बुद्ध, आम्रपाली, सिंह सेनापति तथा अजातशत्रु के आसपास हिन्दी साहित्य की अनेक महत्त्वपूर्ण कृतियों ने जन्म लिया है। उसमें स्त्री की असहायता देखी जाए, या गणतंत्रों के निर्माण और उनके स्वरूप की चर्चा की जाए, वात्सल्य की कथा कही जाए, या फिर मार्क्सवादी दर्शन का सादृश्य ढूँढा जाए - सत्य यह है कि वह परिवेश कई दृष्टियों से असाधारण रूप से रोमानी था।[4]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ द्विवेदी युग (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 22 अप्रॅल, 2011।
- ↑ हिन्दी भाषा और साहित्य के पुरोधा (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल)। । अभिगमन तिथि: 22 अप्रॅल, 2011।
- ↑ मेरठ अंचल ने दिए हिन्दी को अनमोल रतन (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल)। । अभिगमन तिथि: 22 अप्रॅल, 2011।
- ↑ हिन्दी ऐतिहासिक उपन्यासों की उपलब्धियाँ (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 22 अप्रॅल, 2011।
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