दिवस / वार / दिन
हिंदुओं के सात वार और उनके प्राय: वही नाम समस्त विश्व में प्रचलित हैं। रविवार को अपनी-अपनी भाषा में सब कहेंगे सूर्य वार ही। इस दिन को ही रविवार क्यों कहा जाता है और उसके पश्चात् सोमवार (चन्द्रमा का दिन) इस क्रम से ही क्यों दिन आते है? कैसे अनादिकाल से सब देशों में उसी दिन को रविवार कहा जाता है? क्यों कोई उसे चन्द्र का दिन नहीं कहता? तो विश्व के किसी दूसरे देश का ज्योतिषी केवल यह कहेगा कि 'दिनों के नाम और उनके क्रम का प्रचार भारत से ही विश्व में हुआ, चाहे जब हुआ हो। अत: सब कहीं ये नाम और क्रम एक-से हैं।' अनुकरण के अतिरिक्त कोई वैज्ञानिक कारण किसी दूसरे के पास नहीं हैं। काल माधव, ब्रह्म पुराण, सिद्धान्त-शिरोमणि, ज्योतिर्विदाभरणादि भारतीय शास्त्रीय ग्रन्थ इसका स्पष्ट कारण बतलाते हैं कि
- चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को जब सब ग्रह मेष राशि के आदि में थे, उस समय इस कल्प का प्रारम्भ हुआ। काल-गणना सृष्टि के आदि से ही चली। उसी दिन सर्वप्रथम सूर्योदय हुआ।
- एक सूर्योंदय से दूसरे सूर्योदय तक का काल अहोरात्र कहा जाता है। इसका प्रथम भाग दिन और द्वितीय भाग रात्रि कहलाती है।
- काल की सूक्ष्म गणना के लिये दिन और रात्रि में से प्रत्येक के छ:-छ: भाग माने गये है, जिन्हें लग्न कहते हैं। इस प्रकार 12 लग्नों का एक अहोरात्र हुआ। लग्न के आधे भाग को 'होरा' कहा जाता है।
- 'अहोरात्र' शब्द के मध्य के दोनों अक्षरों से ही यह शब्द बना है। इसी को पाश्चात्य-प्रणाली में घंटा कहते हैं। 'घंटा' जैसे निरर्थक शब्द की अपेक्षा 'होरा' सार्थक एवं प्राचीन शब्द है। अपने तेजोमय रूप के कारण सृष्टि के प्रथम 'होरा' का स्वामी सूर्य माना गया। इसके पश्चात् अपनी कक्षा के अनुसार ग्रह 'होरा' अधिपति माने गये। ग्रह-कक्षा के सम्बन्ध में ज्यौतिष-शास्त्र का कहना है- 'ब्रह्माण्ड के मध्य में आकाश है। उसमें सबसे ऊपर नक्षत्र-कक्षा है। फिर क्रम से शनि, बृहस्पति, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध और चन्द्रमा हैं। उनसे नीचे सिद्ध, विद्याधर और मेघ हैं। ऊपर के ग्रहों-की कक्षा नीचे के ग्रहों की अपेक्षा क्रमश: बड़ी है। जब प्रथम 'होरा' के स्वामी सूर्य हुए, तब क्रमश: शुक्र, बुध, चन्द्रमा, शनि, बृहस्पति, मंगल- ये छ: ग्रह अगली छ: होराओं के स्वामी हुए। आठवीं 'होरा' के स्वामी फिर क्रमानुपूर्वक सूर्य हुए। इस प्रकार क्रमश: ये ग्रह एक-एक 'होरा' के स्वामी होते गये। इस क्रम से चौबीसवीं होरा का स्वामी बुध होता है। और यहीं प्रथम अहोरात्र समाप्त हो जाता है। पचीसवीं होरा का स्वामी क्रम के अनुसार चन्द्रमा है। यह पचीसवीं होरा दूसरे अहोरात्र के दिन की प्रथम होरा है; अत: प्रथम होरा के अधिष्ठाता चन्द्रमा होने से इस अहोरात्र का नाम चन्द्रमा का दिन-सोमवार पड़ा। इसी क्रम से अहोरात्र की प्रथम 'होरा' के अधिष्ठाता ग्रह के नाम पर अहोरात्र के नाम पड़ते गये और फलत: सप्ताह के दिनों के नाम वर्तमान क्रम से हुए। यही क्रम सृष्टि के प्रारम्भ से अब तक चला आ रहा है। जिस दिन के प्रथम होरा का जो अधिष्ठाता ग्रह है, उस दिन का वही नाम है। होरा को 'क्षणवार' भी कहते हैं। जो कर्म जिस दिन करने का विधान है, उस कर्म को किसी भी दिन के उस 'क्षणवार' में भी किया जा सकता है। जैसे यदि सोमवार को रविवार का कोई कर्म करना है, तो सोमवार में जिस होरा के अधिष्ठाता सूर्य है, उस होरा में उस कर्म को किया जा सकता है।
- दिन-रात्रि में किसी भी समय कौन-सी होरा, कौन-सा क्षणवार है, यह जानने का नियम ज्यौतिष शास्त्र ने इस प्रकार बताया है- मेष, वृश्चिक, कुम्भ, मीन की संक्रान्ति में सायंकाल से वृष, धनु, कर्क, तुला की संक्रान्ति में अर्धरात्रि से और मिथुन, मकर, सिंह, कन्या की संक्रान्ति में प्रात:काल से वार प्रवेश मानकर उस दिन की गणना करके 'क्षणवार' निकालना चाहिये।
उपर्युक्त नियम में संक्रान्ति के हिसाब से वार-प्रवेश (दिन के आरम्भ) का समय बदलता रहता है।
- मुसलमान लोग दिन का प्रारम्भ सायंकाल से मानते हैं; किंतु हिन्दू-शास्त्रों में उपर्युक्त नियम को छोड़कर और कहीं सायंकाल से वार-प्रवेश (दिनारम्भ) का वर्णन नहीं है।
- इसी प्रकार व्याकरणशास्त्र में अद्यतन काल का प्रयोग मध्यरात्रि से दूसरी मध्यरात्रि तक के लिये होता है। ज्यौतिषशास्त्र के ग्रन्थ 'सिद्धान्त-शिरोमणि' तथा 'केशवार्क' के अनुसार देवताओं का अहोरात्र भी मध्यरात्रि से बदलता है; क्योंकि उत्तरायण देवताओं का दिन और दक्षिणायन देवताओं की रात्रि हैं मेष संक्रान्ति के समय देवताओं का वार-प्रवेश (दिनारम्भ) माना जाता है। इसी प्रकार पितृ-अहोरात्र भी मध्यरात्रि से बदलता है। 'पूर्णिमा को पितरों की अर्धरात्रि, अमावस्या को मध्याह्न, कृष्ण पक्ष की अष्टमी को प्रात:काल और शुक्ल पक्ष की अष्टमी को सायंकाल होता है।' यह 'सिद्धान्त शिरोमणि' का मत है। सूर्योदय से पूर्व सन्ध्यादि कर्मों के लिये सूर्योदय के समय आने वाली तिथि संकल्प में बोलने का विधान है। ऐसे कर्मों में वार-प्रवेश अर्धरात्रि से माना जाता हैं। निम्बार्क संप्रदाय में एकादशी यदि दशमी की अर्धरात्रि के समय न आकर कुछ बाद में आये तो वह दशमी विद्धा मानी जाती है। यहाँ भी मध्यरात्रि से ही वार-प्रवेश माना गया है। दूसरे वैष्णव-सम्प्रदाय एकादशी व्रत के सम्बन्ध में ब्राह्म मुहूर्त से वार प्रवेश मानते हैं।
सूर्योदय से वार-प्रवेश (दिनारम्भ)
सांयकाल, मध्यरात्रि एवं ब्राह्ममुहूर्त से वार-प्रवेश केवल विशेष कार्यों के सम्बन्ध में विशेष अवसरों पर ही मानने की प्रथा और शास्त्रीय विधान प्राप्त होते हैं। जन्मपत्रादि सभी कार्यों में सूर्योदय से ही वार-प्रवेश माना जाता है। जन्मपत्र में तो सूर्योदय में 1 पल का भी विलम्ब रहा हो तो पूर्व दिन की तिथि, वार ही लिये जाते हैं। समस्त भारतीय पंचांगों में सूर्योदय से ही तिथि, वार, नक्षत्र, योग आदि का काल अंकित होता है। इष्टकाल भी सूर्योदय से ही बनता है। इष्टकाल से ही लग्न, मुहूर्तादि सब निर्णीत होते हैं। स्मार्त मत से सूर्योदय के पश्चात् 1 पल भी दशमी हो तो एकादशी दशमी-विद्धा मानी जाती है। यह नियम भी सूर्योदय से वार-प्रवेश मानकर ही स्थिर हुआ है। कालमाधव, ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त, ज्योतिर्विदाभरण प्रभृति शास्त्रीय ग्रन्थों में स्पष्ट कहा गया है कि 'विश्व की उत्पत्ति सूर्योदय के समय होती है। अत: वार-प्रवेश भी सूर्योदय से ही होता है।' सिद्धान्त-शिरोमणि, पुलस्तिसिद्धान्त तथा वशिष्ठसंहिता का असंदिग्ध मत है कि 'सूर्य के दर्शन का नाम दिन और अदर्शन का नाम रात्रि है; अत: दिन का आरम्भ सूर्योदय से ही होता है।' इस प्रमाणों से सिद्ध है कि सूर्यादय से पूर्व तथा अर्धरात्रि के पश्चात् होने वाले सन्ध्यादि धार्मिक कृत्यों में तो अर्धरात्रि से वार-प्रवेश माना जाता है, बाक़ी समस्त कर्मों में सूर्योदय से वार-प्रवेश का विधान है।
सूर्योदय
सूर्योदय अक्षांश और क्रान्ति भेद से भिन्न-भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न समय में होता है और वर्ष में दिन तथा रात्रि के मान में क्षय-बृद्धि भी होते रहते हैं; परंतु अहोरात्र 60 घटियों का ही रहता है। अतएव दिन-रात्रि के क्षय-बृद्धि की कठिनाई से बचने के लिये गणना में 'वार-प्रवृत्ति' से काम लिया जाता है। जब पूर्ण अर्थात् शून्य क्रान्ति के दिन सायन मान से सूर्य विषुवत रेखा अर्थात् मेष और तुला राशियों पर आता है, उस दिन विश्व में सब कहीं दिन और रात्रि बराबर होते हैं। अतएव इस दिन के सूर्योदय के समय को स्थिर मानकर उसी समय को 'वार-प्रवृत्ति' नाम दिया गया है। ज्यौतिषशास्त्र में इसका अच्छा स्पष्टीकरण है- उसका सारांश यह है कि अपने नगर या ग्राम के सूर्योदय समय से 6 होरा पर (6 बजे) 'वार-प्रवृत्ति' होती है। दुघड़िया मुहूर्त, काल होरा, नक्षत्र होरा, क्षण-वार आदि में यही 6 होरा पर वार-प्रवृत्ति मानी जाती है। इसके अनुसार भारत में वार-प्रवृत्ति का समय भारतीय विषुवत रेखा, जो उज्जैन से जाती हे, उसके अनुसार निश्चित होना चाहिये।
पाश्चात्य विधि
- ब्रिटेन के ग्रीनविच नगर की विषुवत रेखा से माना जाता है। अर्न्तराष्ट्रीय स्थिर समय से सम्बन्ध रखने के लिये भारतीय स्थिर समय और ग्रीनविच के समय में 5 घंटे, 30 मिनट का अन्तर है।
- ब्रिटेन के ग्रीनविच नगर में वार-प्रवृत्ति एक बजे से होती है।
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