त्रिशंकु

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त्रिशंकु सूर्यवंशी राजा निबंधन का पुत्र था। कहीं पर इसके पिता का नाम त्रय्यारुण भी दिया गया है। त्रिशंकु वास्तविक नाम सत्यव्रत था। यह प्रसिद्ध राजा हरिश्चंद्र का पिता था। इस प्रतापी किन्तु दुष्ट स्वभाव के राजा के संबंध में ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, देवी भागवत और वाल्मीकि रामायण में उल्लेख आया है। यह अपने पिता की भी अवज्ञा करता था। इसने एक ब्राह्मण की विवाहिता पत्नी का अपहरण कर लिया था। इस पर पिता ने इसे राज्य से बाहर निकाल दिया। सत्यव्रत जंगल में रहने लगा। वहां निकट ही विश्वामित्र का आश्रम था। उनकी अनुपस्थिति में इसने उनके परिवार की सेवा की। जब किसी पशु का मांस विश्वामित्र के बच्चों को खिलाने के लिए नहीं मिला तो इसने वसिष्ठ की गाय को मार डाला। इस पर वशिष्ठ पुत्रों ने इसे चांडाल होने का शाप दे दिया।

  • ब्राह्मण की पत्नी का अपहरण, पिता की आज्ञा न मानने और गोहत्या, इन तीन पापों के कारण वह त्रिशंकु कहलाया।
  • त्रिशंकु के मन में सशरीर स्वर्ग-प्राप्ति के लिए यज्ञ करने की कामना बलवती हुई तो वे वसिष्ठ के पास पहुचे। वसिष्ठ ने यह कार्य असंभव बतलाया। वे दक्षिण प्रदेश में वसिष्ठ के सौ तपस्वी पुत्रों के पास गये। उन्होंने कहा-'जब वसिष्ठ ने मना कर दिया है तो हमारे लिए कैसे संभव हो सकता है?' त्रिशंकु के यह कहने पर कि वे किसी और की शरण में जायेंगे, उनके गुरु-पुत्रों ने उन्हें चांडाल होने का शाप दिया। चांडाल रूप में वे विश्वामित्र की शरण में गये। विश्वामित्र ने उसके लिए यज्ञ करना स्वीकार कर लिया। यज्ञ में समस्त ऋषियों को आमन्त्रित किया गया। सब आने के लिए तैयार थे, किंतु वसिष्ठ के सौ पुत्र और महोदय नामक ऋषि ने कहला भेजा कि वे लोग नहीं आयेंगे क्योंकि जिस चांडाल का यज्ञ कराने वाले क्षत्रिय हैं, उस यज्ञ में देवता और ऋषि किस प्रकार हवि ग्रहण कर सकते हैं। विश्वामित्र ने क्रुद्ध होकर शाप दिया कि वे सब काल-पाश में बंधकर यमपुरी चले जायें तथा वहां सात सौ जन्मों तक मुर्दों का भक्षण करें। यज्ञ आरंभ हो गये। बहुत समय बाद देवताओं को आमन्त्रित किया गया पर जब वे नहीं आये तो क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने अपने हाथ में सुवा लेकर कहा-'मैं अपने अर्जित तप के बल से तुम्हें (त्रिशंकु को) सशरीर स्वर्ग भेजता हूं।' त्रिशंकु स्वर्ग की ओर सशरीर जाने लगे तो इन्द्र ने कहा-'तू लौट जा, क्योंकि गुरु से शापित है। तू सिर नीचा करके यहाँ से गिर जा।' वह नीचे गिरने लगा तो विश्वामित्र से रक्षा की याचना कीं। उन्होंने कहा-'वहीं ठहरो,' तथा क्रुद्ध होकर इन्द्र का नाश करने अथवा स्वयं दूसरा इन्द्र बनने का निश्चय किया। उन्होंने अनेक नक्षत्रों तथा देवताओं की रचना कर डाली। देवता, ऋषि, असुर विनीत भाव से विश्वामित्र के पास गये। अंत में यह निश्चय हुआ कि जब तक सृष्टि रहेगी, ध्रुव, सूर्य, पृथ्वी, नक्षत्र रहेंगे, तब तक विश्वामित्र का रचा नक्षत्रमंडल और स्वर्ग भी रहेंगे उस स्वर्ग में त्रिशंकु सशरीर, नतमस्तक विद्यमान रहेंगे। [1]
  • मांधाता के कुल में सत्यव्रत नामक पुत्र का जन्म हुआ। सत्यव्रत अपने पिता तथा गुरु के शाप से चांडाल हो गया था तथापि विश्वामित्र के प्रभाव से उसने सशरीर स्वर्ग प्राप्त किया। देवताओं ने उसे स्वर्ग से धकेल दिया। अत: वह सिर नीचे और पांव ऊपर किये आज भी लटका हुआ है, क्योंकि विश्वामित्र के प्रभाव से वह पृथ्वी पर नहीं गिर सकता। वही सत्यव्रत त्रिशंकु नाम से विख्यात हुआ। [2]
  • त्रैय्यारुणि के पुत्र का नाम सत्यव्रत था। चंचलता और कामुकतावश उसने किसी नगरवासी की कन्या का अपहरण कर लिया। त्रैय्यारुणि ने रुष्ट होकर उसे राज्य से निकाल दिया तथा स्वयं भी वन में चला गया। सत्यव्रत चांडाल के घर रहने लगा। इन्द्र ने बारह वर्ष तक उसके राज्य में वर्षा नहीं की। विश्वामित्र पत्नी को उसी राज्य में छोड़कर तपस्या करने गये हुए थे। अनावृष्टि से त्रस्त उनकी पत्नी अपने शेष कुटुंब का पालन करने के लिए मंझले पुत्र के गले में रस्सी बांधकर सौ गायों के बदले में उसे बेचने गयी। सत्यव्रत ने उसे छुड़ा दिया। गले में रस्सी पड़ने के कारण वह पुत्र गालव कहलाया। सत्यव्रत उस परिवार के निमित्त प्रतिदिन मांस जुटाता था। एक दिन वह वसिष्ठ की गाय को मार लाया। उसने तथा विश्वामित्र परिवार ने मांस-भक्षण किया। वसिष्ठ पहले ही उसके कर्मों से रुष्ट थे। गोहत्या के उपरांत उन्होंने उसे त्रिशंकु कहा। विश्वामित्र ने उससे प्रसन्न होकर उसका राज्यभिषेक किया तथा उसे सशरीर स्वर्ग जाने का वरदान दिया। देवताओं तथा वसिष्ठ के देखते-देखते ही वह स्वर्ग की ओर चल पड़ा। उसकी पत्नी ने निष्पाप राजा हरिश्चंद्र को जन्म दिया। [3][4]
  • त्रैय्यारुणि (मुचुकुंद के भाई) का एक पुत्र हुआ, जिसका नाम सत्यव्रत था। वह दुष्ट तथा मन्त्रों को भ्रष्ट करने वाला थां राजा ने क्रुद्ध होकर उसे घर से निकाल दिया। वह रसोईघर के पास रहने लगा। राजा राज्य छोड़कर वन में चला गया। एक दिन मुनि विश्वामित्र भी तपस्या करने चले गये। एक दिन मुनि पत्नी अपने बीच के लड़के के गले में रस्सी बांधकर उसे सौ गायों के बदले में बेचने के लिए ले जा रही थी। सत्यव्रत ने दयार्द्र होकर उसे बंधन मुक्त करके स्वयं पालना आरंभ कर दिया तब से उसका नाम गालव्य पड़ गया। सत्यव्रत अनेक प्रकार से विश्वामित्र के कुटुंब का पालन करने लगा, किंन्तु किसी ने उसको घर के भीतर नहीं बुलाया। एक बार क्षुधा से व्याकुल होकर उसने वसिष्ठ की एक गाय मारकर विश्वामित्र के पुत्र के साथ बैठकर खा ली। वसिष्ठ को पता चला तो वे बहुत रुष्ट हुए। विश्वामित्र घर लौटे तो स्वकुटुंब पालन के कारण इतने प्रसन्न हुए कि उसे राजा बना दिया तथा सशरीर उसे स्वर्ग में बैठा दिया। वसिष्ठ ने उसे पतित होकर नीचे गिरने का शाप दिया तथा विश्वामित्र ने वहीं रुके रहने का आशीर्वाद दिया, अत: वह आकाश और पृथ्वी के बीच आज भी ज्यों का त्यों लटक रहा है। वह तभी से त्रिशंकु कहलाया[5]
  • विष्णु पुराण की कथा से अंतर यहाँ उल्लिखित है। अरुण के पुत्र का नाम सत्यव्रत था। उसने ब्राह्मण कन्या का अपहरण किया थां प्रजा ने अरुण से कहा कि उसने ब्राह्मण भार्या का अपहरण किया है, अत: राजा ने उसे चांडाल के साथ रहने का शाप देकर राज्य से निर्वासित कर दिया। वसिष्ठ को ज्ञात था कि वह ब्राह्मण कन्या थी, भार्या नहीं किंतु उन्होंने राजा की वर्जना नहीं की, अत: सत्यव्रत उनसे रुष्ट हो गया। वन में उसने विश्वामित्र के परिवार की सेवा की। एक दिन शिकार न मिलने पर वसिष्ठ की गाय का वध करके उन्हें मांस दिया। वसिष्ठ ने रुष्ट होकर उसे कभी स्वर्ग न प्राप्त कर पाने का शाप दिया तथा ब्राह्मण कन्या के अपहरण, राज्य भ्रष्ट होने तथा गोहत्या करने के कारण उसके मस्तक पर तीन शंकु (कुष्ठवात्) का चिह्न वन गया, तभी से वह त्रिशंकु कहलाया। इस सबसे दुखी हो वह आत्महत्या के लिए तत्पर हुआ, किंतु महादेवी ने प्रकट होकर उसकी वर्जना की। विश्वामित्र के वरदान तथा महादेवी की कृपा से उसे पिता का राज्य प्राप्त हुआ। उसके पुत्र का नाम हरिश्चन्द्र रखा गया। हरिश्चन्द्र को युवराज घोषित करके वह सदेह स्वर्ग-प्राप्ति के लिए यज्ञ करना चाहता थां वसिष्ठ ने उसका यज्ञ कराना अस्वीकार कर दिया। वह किसी और ब्राह्मण पुरोहित की खोज करने लगा तो रुष्ट होकर वसिष्ठ ने उसे श्वपचाकृति पिशाच होने तथा कभी स्वर्ग प्राप्त न करने का शाप दिया। विश्वामित्र त्रिशंकु से विशेष प्रसन्न थे क्योंकि उसने उनके परिवार का पालन किया था, अत: उन्होंने अपने समस्त पुण्य उसे प्रदान करे स्वर्ग भेज दिया। श्वपचाकृति के व्यक्ति को इन्द्र ने स्वर्ग में नहीं घुसने दिया। वहां से पतित होकर उसने विश्वामित्र को स्मरण किया। विश्वामित्र ने उसे पृथ्वी पर नहीं गिरने दिया, अत: वह मध्य में रूका रह गयां विश्वामित्र उसके लिए दूसरे स्वर्ग का निर्माण करने में लग गये। यह जानकर इन्द्र स्वयं उसे स्वर्ग ले गये।[6]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वाल्मीकि रामायण, बाल कांड, सर्ग 57, पद 9-22, सर्ग 58, 1-24, सर्ग 59, 1-22, सर्ग 60, 1-34
  2. श्रीमद् भागवत, नवम स्कंध, अध्याय 7, श्लोक 4-6
  3. विष्णु पुराण, 4।3।18-24
  4. ब्रह्माण्ड पुराण, 7।97-109, ब्रह्माण्ड पुराण 8।–
  5. शिव पुराण, 11। 20
  6. भागवत, 7 । 10-13