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[[चित्र:Dancing-girl-mohenjo-daro.jpg|thumb|left|100px|नृत्यांगना [[मोहनजोदाड़ो]] 2500 ई.पू.]]


भारत में मानव का सबसे पहला प्रमाण [[केरल]] से मिला है जो सत्तर हज़ार साल पुराना होने की संभावना है। जिसका आधार [[अफ़्रीक़ा]] के प्राचीन मानव से जैविक गुणसूत्रों (जीन्स) का मिलना है। <ref>देखें: '''शोध ग्रंथ''' {{cite book |last=वेल्स|first=स्पेन्सर|url =http://books.google.ca/books?id=WAsKm-_zu5sC&lpg=PP1&dq=The%20Journey%20of%20Man&pg=PP1#v=onepage&q&f=true |title=अ जेनेटिक ओडिसी|year=2002|publisher=प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी प्रॅस, न्यू जर्सी, सं.रा.अमरीका|language=अंग्रेज़ी||id=ISBN 0-691-11532-X}} </ref> यह काल वह है जब अफ़्रीक़ा से आदि मानव ने विश्व के अनेक हिस्सों में बसना प्रारम्भ किया जो पचास से सत्तर हज़ार साल पहले का माना जाता है। कृषि संबंधी प्रथम साक्ष्य [[राजस्थान]] (साम्भर) में पौधे बोने का है जो ईसा से सातहज़ार वर्ष पुराना है। भारत का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से आरम्भ होता है। 3000 ई. पूर्व तथा 1500 ई. पूर्व के बीच [[सिंधु घाटी]] में एक उन्नत सभ्यता वर्तमान थी, जिसके अवशेष [[मोहन जोदड़ो]] (मुअन-जो-दाड़ो) और [[हड़प्पा]] में मिले हैं। विश्वास किया जाता है कि भारत में [[आर्य|आर्यों]] का प्रवेश बाद में हुआ। [[वेद|वेदों]] में हमें उस काल की सभ्यता की एक झाँकी मिलती है।
<blockquote>'''प्राचीन भारतीयों ने कोई तिथि क्रमानुसार इतिहास नहीं सुरक्षित रखा है।''' सबसे प्राचीन सुनिश्चित तिथि जो हमें ज्ञात है, 326 ई. पू. है, जब मक़दूनिया के राजा [[सिकन्दर]] ने भारत पर आक्रमण किया। इस तिथि से पहले की घटनाओं का तारतम्य जोड़ कर तथा साहित्य में सुरक्षित ऐतिहासिक अनुश्रुतियों का उपयोग करके भारत का इतिहास सातवीं शताब्दी ई. पू. तक पहुँच जाता है। इस काल में भारत [[क़ाबुल]] की घाटी से लेकर [[गोदावरी]] तक [[सोलह महाजनपद|षोडश जनपदों]] में विभाजित था।</blockquote>
मौर्य (तीसरी शताब्दी ई.पू.), शुंग (प्रथम शताब्दी ई.पू.), शक (प्रथम शताब्दी), कुषाण (द्वितीय शताब्दी), गुप्त (चौथी शताब्दी) और राजपूत (नौवीं शताब्दी) जब उत्तरी भारत में शासन कर रहे थे तब दक्षिण में सातवाहन, चालुक्य, चोल आदि का दौर चल रहा था। उसके बाद में मुस्लिम आक्रमण कारी आये और भारत में शासन करने लगे। जिनमें ग़ुलाम वंश, ख़िलजी, तुग़लक़, लोदी और मुग़लों का शासन रहा। सोलह-सत्रहवीं शती से पुर्तग़ाली
भारत का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से आरम्भ होता है। 3000 ई. पूर्व तथा 1500 ई. पूर्व के बीच [[सिंधु घाटी]] में एक उन्नत सभ्यता वर्तमान थी, जिसके अवशेष [[मोहन जोदड़ो]] (मुअन-जो-दाड़ो) और [[हड़प्पा]] में मिले हैं। विश्वास किया जाता है कि भारत में [[आर्य|आर्यों]] का प्रवेश बाद में हुआ। वेदों में हमें उस काल की सभ्यता की एक झाँकी मिलती है।
<blockquote>'''प्राचीन भारतीयों ने कोई तिथि क्रमानुसार इतिहास नहीं सुरक्षित रखा है।''' सबसे प्राचीन सुनिश्चित तिथि जो हमें ज्ञात है, 326 ई. पू. है, जब मक़दूनिया के राजा [[सिकन्दर]] ने भारत पर आक्रमण किया। इस तिथि से पहले की घटनाओं का तारतम्य जोड़ कर तथा साहित्य में सुरक्षित ऐतिहासिक अनुश्रुतियों का उपयोग करके भारत का इतिहास सातवीं शताब्दी ई. पू. तक पहुँच जाता है। इस काल में भारत [[क़ाबुल]] की घाटी से लेकर गोदावरी तक [[सोलह महाजनपद|षोडश जनपदों]] में विभाजित था।</blockquote>
[[चन्द्रगुप्त मौर्य]] ने सारे उत्तरी भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उसने सम्भ्वतः दक्षिण भी विजय कर लिया। उसकी राजधानी [[पाटलिपुत्र]] वैभव और समृद्धि में सूसा और एकबताना नगरियों को भी मात करती थी। '''उसका पौत्र [[अशोक]] था, जिसने [[कलिंग]] ([[उड़ीसा]]) को जीता। उसका साम्राज्य [[हिमालय]] के पादमूल से लेकर दक्षिण में [[पन्नार नदी]] तक तथा उत्तर पश्चिम में हिन्दूकुश से लेकर उत्तर-पूर्व में [[असम|आसाम]] की सीमा तक विस्तृत था।'''
मौर्यवंश के पतन के बाद [[शुंग]] और [[कुषाण वंश]] रहा। [[कुषाण वंश]] '''इस वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा [[कनिष्क]] (लगभग 120-144 ई.) था। चौथी शताब्दी के आरम्भ में [[गुप्तवंश]] का उदय हुआ।
लगभग 320 ई. पू. में चन्द्रगुप्त ने गुप्तवंश को प्रचलित किया। और उन्होंने हिन्दू धर्म को राज्य धर्म बनाया, बौद्ध धर्म और जैन धर्म के प्रति सहिष्णुता बरती और ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला, वास्तुकला और चित्रकला की उन्नति की। इसी युग में [[कालिदास]], [[आर्यभट्ट]] तथा [[वराहमिहिर]] हुए। [[रामायण]], [[महाभारत]], [[पुराण|पुराणों]] तथा मनुसंहिता को भी इसी युग में वर्तमान रूप प्राप्त हुआ। चीनी यात्री [[फ़ाह्यान|फाह्यान]] ने 401 से 410 ई. के बीच भारत की यात्रा की और उसने उस काल का रोचक वर्णन किया है। उसका मत है कि उस काल में देश में पूरा रामराज्य था। '''स्वाभाविक रूप से गुप्त युग को भारतीय इतिहास का 'स्वर्णयुग' माना जाता है''' और उसकी तुलना एथेन्स के परीक्लीज युग से की जाती है। (पेरीक्लीज (लगभग 492-529 ई. पू.) एथेन्स का महान राजनेता तथा सेनापति था। उसके शासनकाल (460-429 ई. पू.) में एथेन्स उन्नति के शिखर पर पहुँच गया)। आंतरिक विघटन तथा हूणों के आक्रमणों के फलस्वरूप छठी शताब्दी में गुप्त वंश का पतन हो गया। परन्तु सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ में [[हर्षवर्धन]] ने एक दूसरा साम्राज्य खड़ा कर दिया, जिसकी राजधानी [[कन्नौज]] थी। यह साम्राज्य सारे उत्तरी भारत में विस्तृत था। दक्षिण में चालुक्य राजा [[पुलकेशी द्वितीय]] ने उसका साम्राज्य [[नर्मदा नदी|नर्मदा]] तट से आगे बढ़ने से रोक दिया था। चीनी यात्री [[हुएनसांग]] उसके राज्यकाल में भारत आया था और उसने अपनी यात्रा वर्णन में लिखा है कि हर्षवर्धन बड़ा प्रतापी और शक्तिशाली राजा है। वह 646 ई. में निस्संतान मर गया और उसके बाद सारे उत्तरी भारत में फिर से अव्यवस्था फैल गयी।
[[चित्र:Kirti-Stambh-Chittorgarh.jpg|thumb|100px|कीर्ति स्तम्भ, चित्तौड़गढ़]]
====<u>राजपूत आदि राजवंश</u>====
इस अव्यवस्था के फलस्वरूप राजवंशों का उदय हुआ, जो अपने को [[राजपूत]] कहते थे। इनमें पंजाब का हिन्दूशाही राजवंश, [[गुजरात]] का गुर्जर-प्रतिहार राजवंश, [[अजमेर]] का [[चौहान वंश]], [[कन्नौज]] का [[गहड़वाल वंश]] तथा मगध और बंगाल का [[पाल वंश]] था। दक्षिण में भी [[सातवाहन वंश]] के पतन के बाद इसी प्रकार सत्ता का विघटन हो गया। [[उड़ीसा]] के [[गंग वंश]] जिसने पुरी का प्रसिद्ध [[जगन्नाथ मंदिर पुरी|जगन्नाथ मन्दिर]] बनवाया, [[वातापी कर्नाटक|वातापी]] के [[चालुक्य वंश]], जिसके राज्यकाल में [[अजन्ता की गुफ़ाएँ|अजन्ता]] के कुछ गुफ़ा चित्र बने तथा कांची के [[पल्लव वंश]] ने, जिसकी स्मृति उस काल में बनवाये गये कुछ प्रसिद्ध मन्दिरों में सुरक्षित है, दक्षिण को आपस में बांट लिया और परस्पर युद्धों में एक दूसरे का नाश कर दिया। इसके बाद [[मान्यखेट]] अथवा [[मालखड़]] के [[राष्ट्रकूट वंश]] का उदय हुआ, जिसका उच्छेद पुर के चालुक्य वंश की एक नवीन शाखा ने कर दिया। जिसने [[कल्याणी कर्नाटक|कल्याणी]] को अपनी राजधानी बनाया। उसका उच्छेद [[देवगिरि]] के यादवों तथा द्वारसमुद्र के [[होयसल वंश]] ने कर दिया। सुदूर दक्षिण में चेर, पांड्य और चोल राज्यों का उदय हुआ, जिनमें से अंतिम राज्य सबसे अधिक चला। इस तरह सारे भारत में अनैक्य व्याप्त हो गया।
{{राज्य सीमा मानचित्र सूची1}}
=====<u>आर्यों के आदि स्थल सूची</u>=====
{{आदिकाल सूची1}}
=====<u>महाजनपद सूची</u>=====
{{महाजनपद सूची1}}
====<u>इस्लाम का प्रवेश</u>====
{{seealso|चंगेज़ ख़ाँ|महमूद ग़ज़नवी}}
इस बीच 712 ई. में भारत में इस्लाम का प्रवेश हो चुका था। [[मुहम्मद-इब्न-क़ासिम]] के नेतृत्व में [[मुसलमान]] अरबों ने [[सिंध]] पर हमला कर दिया और वहाँ के [[ब्राह्मण]] राजा दाहिर को हरा दिया। इस तरह भारत की भूमि पर पहली बार [[इस्लाम]] के पैर जम गये और बाद की शताब्दियों के [[हिन्दू धर्म|हिन्दू]] राजा उसे फिर हटा नहीं सके। परन्तु सिंध पर अरबों का शासन वास्तव में निर्बल था और 1176 ई. में [[शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी]] ने उसे आसानी से उखाड़ दिया। इससे पूर्व सुबुक्तगीन के नेतृत्व में मुसलमानों ने हमले करके [[पंजाब]] छीन लिया था और ग़ज़नी के [[महमूद ग़ज़नवी|सुल्तान महमूद]] ने 997 से 1030 ई. के बीच भारत पर सत्रह हमले किये और हिन्दू राजाओं की शक्ति कुचल डाली, फिर भी हिन्दू राजाओं ने मुसलमानी आक्रमण का जिस अनवरत रीति से प्रबल विरोध किया, उसका महत्व कम करके नहीं आंकना चाहिए।
====<u>पृथ्वीराज चौहान और ग़ोरी</u>====
{{seealso|महमूद ग़ोरी}}
[[चित्र:Qutub Minar Delhi.jpg|thumb|क़ुतुब मीनार]]
[[फ़ारस]] तथा पश्चिम एशिया के दूसरे राज्यों की तरह मुसलमानों को भारत में शीघ्रता से सफलता नहीं मिली। यद्यपि सिंध पर अरब मुसलमानों का शीघ्रता से क़ब्ज़ा हो गया, परन्तु वहाँ से वे लगभग चार शताब्दियों तक आगे नहीं बढ़ पाये। '''उत्तर-पश्चिम के मुसलमान आक्रमणकारियों को भी भारत ने लगभग तीन शताब्दियों तक रोके रखा'''। शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी का [[दिल्ली]] जीतने का पहला प्रयास विफल हुआ और [[पृथ्वीराज चौहान|पृथ्वीराज]] ने 1190 ई. में [[तराइन का युद्ध|तराईन]] की पहली लड़ाई में उसे हरा दिया। वह 1193 ई. में तराईन की दूसरी लड़ाई में ही पृथ्वीराज को हराने में सफल हुआ। इस विजय के बाद शहाबुद्दीन और उसके सेनापतियों ने उत्तरी भारत के दूसरे हिन्दू राजाओं को भी हरा दिया और वहाँ मुसलमानी शासन स्थापित कर दिया। इस तरह तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में दिल्ली के सुल्तानों की अधीनता में उत्तरी भारत की राजनीतिक एकता फिर से स्थापित हो गई।
====<u>तैमूर</u>====
{{seealso|तैमूर लंग|विजय नगर साम्राज्य|बहमनी वंश|चंगेज़ ख़ाँ|अलाउद्दीन ख़िलजी}}
दक्षिण एक और शताब्दी तक स्वतंत्र रहा, किन्तु [[अलाउद्दीन ख़िलजी|सुल्तान ख़िलजी]] के राज्यकाल में दक्षिण भी दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गया और इस तरह चौदहवीं शताब्दी में कुछ काल के लिए सारे भारत का शासन फिर से एक केन्द्रीय सत्ता के अंतर्गत आ गया। परन्तु [[दिल्ली सल्तनत]] का शीघ्र ही पतन शुरू हो गया और 1336 ई. में दक्षिण में हिन्दुओं का एक विशाल राज्य स्थापित हुआ, जिसकी राजधानी [[विजय नगर साम्राज्य]] थी। बंगाल (1338 ई.), [[जौनपुर]] (1393 ई.), [[गुजरात]] तथा दक्षिण के मध्यवर्ती भाग में भी [[बहमनी सल्तनत]] (1347 ई.) के नाम से स्वतंत्र मुसलमानी राज्य स्थापित हो गया। 1398 ई. में [[तैमूर]] ने भारत पर हमला किया और दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया और उसे लूटा। उसके हमले से दिल्ली की सल्तनत जर्जर हो गयी।
====<u>मुग़ल</u>====
[[चित्र:Akbar.jpg|thumb|100px|[[अकबर]]]]
{{seealso|बाबर|हुमायूँ|अकबर|जहाँगीर|शाहजहाँ|औरंगज़ेब|शेरशाह सूरी साम्राज्य|शेरशाह सूरी}}
[[चित्र:Tajmahal-03.jpg|thumb|left|100px|[[ताजमहल]]]]
दिल्ली की सल्तनत वास्तव में कमज़ोर थी, क्योंकि सुल्तानों ने अपनी विजित हिन्दू प्रजा का ह्रदय जीतने का कोई प्रयास नहीं किया। वे धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त कट्टर थे और उन्होंने बलपूर्वक हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का प्रयास किया। इससे हिन्दू प्रजा उनसे कोई सहानुभूति नहीं रखती थी। इसक फलस्वरूप 1526 ई. में [[बाबर]] ने आसानी से दिल्ली की सल्तनत को उखाड़ फैंका। उसने [[पानीपत]] की  [[पानीपत युद्ध प्रथम |पहली लड़ाई]] में अन्तिम सुल्तान [[इब्राहीम लोदी]] को हरा दिया और [[मुग़ल वंश]] की प्रतिष्ठित किया, जिसने 1526 से 1858 ई. तक भारत पर शासन किया। तीसरा [[मुग़ल]] बादशाह [[अकबर]] असाधारण रूप से योग्य और दूरदर्शी शासक था। उसने अपनी विजित हिन्दू प्रजा का ह्रदय जीतने की कोशिश की और विशेष रूप से युद्ध प्रिय राजपूत राजाओं को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया। '''अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता तथा मेल-मिलाप की नीति बरती, हिन्दुओं पर से [[जज़िया]] उठा लिया और राज्य के ऊँचे पदों पर बिना भेदभाव के सिर्फ योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ कीं'''।
{{मुग़ल काल}}
====<u>मराठा</u>====
{{seealso|मराठा साम्राज्य|शिवाजी|तानाजी|अहिल्याबाई होल्कर|जाटों का इतिहास}}
[[चित्र:Chatrapati Shivaji-2.jpg|thumb|left|100px|[[शिवाजी]]]]
राजपूतों और मुग़लों के योग से उसने अपना साम्राज्य [[कन्दहार]] से [[आसाम]] की सीमा तक तथा [[हिमालय]] की तलहटी से लेकर दक्षिण में [[अहमदनगर]] तक विस्तृत कर दिया। उसके पुत्र [[जहाँगीर]] जहाँ पौत्र [[शाहजहाँ]] कि राज्यकाल में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार जारी रहा। शाहजहाँ ने [[ताजमहल]] का निर्माण कराया, परन्तु कन्दहार उसके हाथ से निकल गया। अकबर के प्रपौत्र औरंगज़ेब के राज्यकाल में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार अपने चरम शिखर पर पहुँच गया और कुछ काल के लिए सारा भारत उसके अंतर्गत हो गया। परन्तु [[औरंगज़ेब]] ने जान-बूझकर अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति त्याग दी और हिन्दुओं को अपने विरुद्ध कर लिया। उसने हिन्दुस्तान का शासन सिर्फ मुसलमानों के हित में चलाने की कोशिश की और हिन्दुओं को ज़बर्दस्ती मुसलमान बनाने का असफल प्रयास किया। इससे राजपूताना, [[बुंदेलखण्ड]] तथा [[पंजाब]] के हिन्दू उसके विरुद्ध उठ खड़े हुए। [[महाराष्ट्र]] में [[शिवाजी]] ने 1707 ई. में औरंगज़ेब की मृत्यु से पूर्व ही एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य स्थापित कर दिया। औरंगज़ेब अन्तिम शक्तिशाली मुग़ल बादशाह था। उसके उत्तराधिकारी अत्यन्त निर्बल और अयोग्य थे, उनके वज़ीर विश्वासघाती थे। फ़ारस के [[नादिरशाह]] ने मुग़ल बादशाहत पर सबसे सांघातिक प्रहार किया। उसने 1739 ई. में भारत पर चढ़ाई की और दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया और उसे निर्दयता से पूरी तरह लूटा। उसके हमले से मुग़ल साम्राज्य पूरी तरह जर्जर हो गया और इसके बाद शीघ्रता से उसका विघटन हो गया। [[अवध]], [[अखण्डित बंगाल]] तथा दक्षिण के मुसलमान सूबेदारों ने अपने को स्वतंत्र कर लिया। राजपूत राजा भी अर्द्ध-स्वतंत्र हो गये। [[पेशवा बाजीराव प्रथम]] के नेतृत्व में [[मराठा|मराठों]] ने [[मुग़ल काल|मुग़ल साम्राज्य]] के खंडहरों पर हिन्दू पद पादशाह की स्थापना का प्रयास किया।
====<u>अंग्रेज़</u>====
{{seealso|वास्को द गामा}}
[[फ़िरंगी]] लोग '''समुद्री मार्गों से भारत की ज़मीन पर पैर जमा चुके थे'''। [[अकबर]] से लेकर [[औरंगज़ेब]] तक '''मुग़ल बादशाहों ने भारत के इस नये मार्ग का महत्व नहीं समझा'''। इनमें से कोई इन नवांगतुकों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का अनुमान नहीं लगा सका और उनके जंगी बेड़े का मुक़ाबला करने के लिए एक शक्तिशाली भारतीय जंगी बेड़ा तैयार करने की आवश्यकता को अनुभव नहीं कर सका। इस तरह भारतीयों की ओर से किसी प्रतिरोध का सामना किये बग़ैर सबसे पहले [[पुर्तग़ाली]] भारत पहुँचे। उसके बाद [[डच]], [[अंग्रेज़]], [[फ्राँसीसी]] आये। सोलहवीं शताब्दी में इन फिरंगियों में आपस में लड़ाइयाँ होती रही, जो अधिकांश समुद्र में हुई। डच और अंग्रेजों ने मिलकर सबसे पहले पुर्तग़ालियों की सामुद्रिक शक्ति को समाप्त किया। इसके बाद डच लोगों को पता चला कि उनके लिए भारत की अपेक्षा मसाले वाले द्वीपों से व्यापार करना अधिक लाभदायी है। इस तरह भारत में सिर्फ अंग्रेज और फ्राँसीसी लोगों के बीच प्रतिद्वन्द्विता हुई।
====<u>ईस्ट इंडिया कम्पनी</u>====
{{seealso|मैसूर युद्ध|टीपू सुल्तान}}
[[चित्र:Tipu-Sultan.jpg|thumb|150px|left|[[टीपू सुल्तान]]]]
अठारहवीं शताब्दी के शुरू में अंग्रेजों की [[ईस्ट इंडिया कम्पनी]] ने बम्बई (मुम्बई), मद्रास (चेन्नई) तथा कलकत्ता (कोलकाता) पर क़ब्ज़ा कर लिया। उधर फ्राँसीसियों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने [[माहे]], [[पुदुचेरी|पांडिचेरी]] तथा [[चंद्रानगर]] पर क़ब्ज़ा कर लिया। उन्हें अपनी सेनाओं में भारतीय सिपाहियों को भरती करने की भी इजाज़त मिल गयी। वे इन भारतीय सिपाहियों का उपयोग न केवल अपनी आपसी लड़ाइयों में करते थे बल्कि इस देश के राजाओं के विरुद्ध भी करते थे। इन राजाओं की आपसी प्रतिद्वन्द्विता और कमज़ोरी ने इनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को जाग्रत कर दिया और उन्होंने कुछ देशी राजाओं के विरुद्ध दूसरे देशी राजाओं से संधियाँ कर लीं। 1744-49 ई. में मुग़ल बादशाह की प्रभुसत्ता की पूर्ण उपेक्षा करके उन्होंने आपस में [[कर्नाटक]] की दूसरी लड़ाई छेड़ी। एक साल के बाद कर्नाटक की दूसरी लड़ाई शुरू हुई। जिसमें फ्राँसीसी गवर्नर डूप्ले ने पहली लड़ाई से सबक़ लेते हुए न केवल कर्नाटक के प्रशासन पर, बल्कि [[निज़ामशाही वंश|निज़ाम]] के राज्य पर भी [[फ़्राँस]] का राजनीतिक नियत्रंण स्थापित करने की कोशिश की। परन्तु अंग्रेजों ने उसकी महत्वाकांक्षा पूरी नहीं होने दी। अंग्रेजों को बंगाल में भारी सफलता मिली थी। बादशाह औरंगज़ेब की मृत्यु के केवल पचास वर्ष बाद 1757 ई. में राबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में अंग्रेजों ने [[नवाब सिराजुद्दौला]] के विरुद्ध विश्वासघातपूर्ण राजद्रोहात्मक षड़यंत्र रचकर [[प्लासी]] की लड़ाई जीत ली और बंगाल को एक प्रकार से अपनी मुट्ठी में कर लिया। उन्होंने बंगाल की गद्दी पर एक कठपुतली नवाब [[मीर ज़ाफ़र]] को बिठा दिया। इसके बाद एक के बाद, तेज़ी से कई घटनाएँ घटीं।
====<u>पानीपत</u>====
[[अहमद शाह अब्दाली]] ने 1748 से 1760 ई. के बीच भारत पर चढ़ाइयाँ कीं और 1761 ई. में [[पानीपत]] की [[पानीपत युद्ध तृतीय|तीसरी लड़ाई]] जीत कर मुग़ल साम्राज्य का फ़ातिहा पढ़ दिया। उसने दिल्ली पर दख़ल करके उसे लूटा। पानीपत की तीसरी लड़ाई में सबसे अधिक क्षति मराठों को उठानी पड़ी। कुछ समय के लिए उनकी बाढ़ रुक गयी और इस प्रकार वे मुग़ल बादशाहों की जगह ले लेने का मौका खो बैठे। यह लड़ाई वास्तव में मुग़ल साम्राज्य के पतन की सूचक है। इसने भारत में मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना में मदद की। अब्दाली को पानीपत में जो फ़तह मिली, उससे न तो वह स्वयं कोई लाभ उठा सका और न उसका साथ देने वाले मुसलमान सरदार। इस लड़ाई से वास्तविक फ़ायदा अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उठाया। इसके बाद कम्पनी को एक के बाद दूसरी सफलताएँ मिलती गयीं।
{{अंग्रेज़ गवर्नर जनरल और वायसराय सूची1}}
====<u>रेग्युलेटिंग एक्ट</u>====
बंगाल के साधनों से बलशाली होकर अंग्रेजों ने 1760 ई. में वाण्डीवाश की लड़ाई में फ्राँसीसियों को हरा दिया और 1762 ई. में उनसे [[पांडेचेरी]] ले लिया। इस प्रकार उन्होंने भारत में फ्राँसीसियों की राजनीतिक शक्ति समाप्त कर दी। 1764 ई. में अंग्रजों ने बक्सर की लड़ाई में [[बहादुर शाह प्रथम|बादशाह बहादुर शाह]] और [[शुजाउद्दौला|अवध के नवाब]] की सम्मिलित सेना को हरा दिया और 1765 ई. में बादशाह से बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी प्राप्त कर ली। इसके फलस्वरूप ईस्ट इंडिया कम्पनी को पहली बार बंगाल, उड़ीसा तथा बिहार के प्रशासन का क़ानूनी अधिकार मिल गया। कुछ इतिहासकार इसे भारत में ब्रिटिश राज्य का प्रारम्भ मानते हैं। 1773 ई. में ब्रिटिश पार्लियामेंट ने एक [[रेग्युलेटिंग एक्ट]] पास करके भारत में ब्रिटिश प्रशासन को व्यवस्थित रूप देने का प्रयास किया। इस एक्ट के अंतर्गत भारत में कम्पनी क्षेत्रों का प्रशासन गवर्नर-जनरल के अधीन कर दिया गया। उसकी सहायता के लिए चार सदस्यों की कॉउंसिल गठित की गयी। एक्ट में बंगाल के गवर्नर को गवर्नर-जनरल का पद प्रदान किया गया और कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट की भी स्थापना की गयी। [[वारेन हेस्टिंग्स]], जो उस समय बंगाल का गवर्नर था, 1773 ई. में पहला गवर्नर-जनरल बनाया गया।
1773 ई. से 1947 ई. तक का काल, जब भारत में ब्रिटिश शासन समाप्त हुआ और भारत स्वाधीन हुआ, दो भागों में बाँटा जा सकता है। पहला, कम्पनी का शासनकाल, जो 1858 ई. तक चला और दूसरा, 1858 से 1947 ई. तक का काल, जब भारत का शासन सीधे ब्रिटेन द्वारा होने लगा।
====<u>गवर्नर-जनरलों का समय</u>====
कम्पनी के शासन काल में भारत का प्रशासन एक के बाद एक बाईस [[गवर्नर-जनरल|गवर्नर-जनरलों]] के हाथों मे रहा। इस काल के भारतीय इतिहास की सबसे उल्लेखनीय घटना यह है कि कम्पनी युद्ध तथा कूटनीति के द्वारा भारत में अपने साम्राज्य का उत्तरोत्तर विस्तार करती रही। [[मैसूर]] के साथ [[मैसूर युद्ध|चार लड़ाइयाँ]], मराठों के साथ तीन, बर्मा ([[म्यांमार]]) तथा [[सिख|सिखों]] के साथ दो-दो लड़ाइयाँ तथा सिंध के अमीरों, गोरखों तथा [[अफ़ग़ानिस्तान]] के साथ एक-एक लड़ाई छेड़ी गयी। इनमें से प्रत्येक लड़ाई में कम्पनी को एक या दूसरे देशी राजा की मदद मिली। उसने जिन फ़ौजों से लड़ाई की उनमें से अधिकांश भारतीय सिपाही थे और लड़ाई का ख़र्च पूरी तरह भारतीय करदाता को उठाना पड़ा। इन लड़ाइयों के फलस्वरूप 1857 ई. तक सारे भारत पर सीधे कम्पनी का प्रभुत्व स्थापित हो गया। दो-तिहाई भारत पर देशी राज्यों का शासन बना रहा। परन्तु उन्होंने कम्पनी का सार्वभौम प्रभुत्व स्वीकार कर लिया और अधीनस्थ तथा आश्रित मित्र राजा के रूप में अपनी रियासत का शासन चलाते रहे।
====<u>ग़दर- प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम</u>====
{{seealso|झांसी की रानी लक्ष्मीबाई|तात्या टोपे|राजा राममोहन राय|सती प्रथा}}
[[चित्र:Tatya-Tope.jpg|thumb|[[तात्या टोपे]]]]
इस काल में [[सती प्रथा]] का अन्त कर देने के समान कुछ सामाजिक सुधार के भी कार्य किये गये। [[राजा राममोहन राय]] ने [[सती प्रथा]] जैसी अमानवीय प्रथा के विरुद्ध निरन्तर आन्दोलन चलाया। उनके पूर्ण और निरन्तर समर्थन का ही प्रभाव था, जिसके कारण [[लॉर्ड विलियम बैंण्टिक]] 1829 में सती प्रथा को बन्द कराने में समर्थ हो सका। अंग्रेज़ी के माध्यम से पश्चिम शिक्षा के प्रसार की दिशा में क़दम उठाये गये, अंग्रेजी देश की राजभाषा बना दी गयी, सारे देश में समान ज़ाब्ता दीवानी और ज़ाब्ता फ़ौजदारी क़ानून लागू कर दिया गया, परन्तु शासन स्वेच्छाचारी बना रहा और वह पूरी तरह अंग्रेज़ों के हाथों में रहा। 1833  के [[चार्टर एक्ट]] के विपरीत ऊँचे पदों पर भारतीयों को नियुक्त नहीं किया गया। भाप से चलने वाले जहाज़ों और रेलगाड़ियों का प्रचलन, ईसाई मिशनरियों द्वारा आक्षेपजनक रीति से [[ईसाई धर्म]] का प्रचार, [[लार्ड डलहौज़ी]] द्वारा ज़ब्ती का सिद्धांत लागू करके अथवा कुशासन के आधार पर कुछ पुरानी देशी रियासतों की ज़ब्ती तथा ब्रिटिश भारतीय सेना के भारतीय सिपाहियों की शिकायतें; इन सब कारणों ने मिलकर सारे भारत में एक गहरे असंतोष की आग धधका दी, जो 1857-58 ई. में ग़दर के रूप में भड़क उठी।
अन्तिम मुग़ल [[बहादुर शाह ज़फ़र]], [[लक्ष्मीबाई|झांसी की रानी लक्ष्मीबाई]], [[तात्या टोपे|तांत्या टोपे]] (रामचंन्द्र पांडुरंग), [[बिहार]] के बाबू कुँवरसिंह, [[महाराष्ट्र]] से [[नाना साहब|नाना साहिब]], इस प्रथम क्रान्ति के प्रयास के नायक थे किन्तु प्रयास विफल हो गया। अधिकांश देशी राजाओं ने अपने को ग़दर से अलग रखा। कम्पनी को बलपूर्वक ग़दर को कुचल देने में सफलता मिली, परन्तु ग़दर के बाद ब्रिटिश पार्लियामेंट ने भारत पर कम्पनी का शासन समाप्त कर दिया। भारत का शासन अब सीधे ब्रिटेन के द्वारा किया जाने लगा।
====<u>भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना</u>====
इस प्रकार भारत में ब्रिटिश शासन का दूसरा काल (1858-1947 ई.) आरम्भ हुआ। इस काल का शासन एक के बाद इकत्तीस गवर्नर-जनरलों के हाथों में रहा। गवर्नर-जनरल को अब [[वाइसराय]] (ब्रिटिश सम्राट का प्रतिनिधि) कहा जाने लगा। [[लार्ड कैनिंग]] पहला वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल नियुक्त हुआ। इस काल के भारतीय इतिहास की सबसे प्रमुख घटना है—भारत में राष्ट्रवादी भावना का उदय और 1947 ई. में भारत की स्वाधीनता के रूप में अंतिम विजय। 1857 ई. में कलकत्ता ([[कोलकाता]]), मद्रास ([[चेन्नई]]) तथा बम्बई ([[मुम्बई]]) में विश्वविद्यालयों की स्थापना के बाद शिक्षा का प्रसार होने लगा तथा 1869 ई. में स्वेज़ नहर खुलने के बाद [[इंग्लैण्ड]] तथा [[यूरोप]] से निकट सम्पर्क स्थापित हो जाने से भारत में नये मध्यवर्ग का विकास हुआ। यह मध्य वर्ग पश्चिमी दर्शन शास्त्र, राजनीति शास्त्र तथा अर्थशास्त्र के विचारों से प्रभावित था और ब्रिटिश शासन में भारतीयों को जो नीचा दर्ज़ा मिला हुआ था, उससे रुष्ट था। ब्रिटिश में स्थापित शान्ति के फलस्वरूप यह वर्ग सारे भारत को एक देश तथा समस्त भारतीयों को एक क़ौम मानने लगा और ब्रिटेन की भाँति संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना उसका लक्ष्य बन गया। वह एक ऐसे संगठन की आवश्यकता महसूस करने लगा जो समस्त भारतीय राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर सके।
इसके फलस्वरूप 1885 ई. में बम्बई में [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] की स्थापना हुई जिसमें देश के समस्त भागों से 71 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन 1883 ई. में कलकत्ता में हुआ, जिसमें सारे देश से निर्वाचित 434 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस अधिवेशन में माँग की गयी कि भारत में केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधानमंडलों का विस्तार किया जाये और उसके आधे सदस्य निर्वाचित भारतीय हों। कांग्रेस हर साल अपने अधिवेशनों में अपनी माँगें दोहराती रही। [[लार्ड डफ़रिन]] ने कांग्रेस पर व्यंग्य करते हुए उसे ऐसे अल्पसंख्यक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था बताया जिसे सिर्फ़ ख़ुर्दबीन से देखा जा सकता है। [[लार्ड लैन्सडाउन]] ने उसके प्रति पूर्ण उपेक्षा की नीति बरती, [[लार्ड कर्ज़न]] ने उसका खुलेआम मज़ाक उड़ाया तथा [[लार्ड मिन्टो द्वितीय]] ने 1909 के इंडियन कॉउंसिल एक्ट द्वारा स्थापित विधानमंडलों में मुसलमानों को अनुचित रीति से अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व देकर उन्हें फोड़ने तथा कांग्रेस को तोड़ने की कोशिश की, फिर भी कांग्रेस जिन्दा रही।
====<u>प्रारम्भिक सफलता</u>====
कांग्रेस को पहली मामूली सफलता 1909 में मिली, जब इंग्लैण्ड में भारत मंत्री के निर्शदन में काम करने वाली भारत परिषद में दो भारतीय सदस्यों की नियुक्ति पहली बार की गयी, वाइसराय की एक्जीक्यूटिव काउंसिल में पहली बार एक भारतीय सदस्य की नियुक्ति की गयी तथा इंडियन काउंसिल एक्ट के द्वारा केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधानमंडलों का विस्तार कर दिया गया तथा उनमें निर्वाचित भारतीय प्रतिनिधियों का अनुपात पहले से अधिक बढ़ा दिया गया। इन सुधारों के प्रस्ताव लार्ड मार्ले ने हालाँकि भारत में संसदीय संस्थाओं की स्थापना करने का कोई इरादा होने से इन्कार किया, फिर भी एक्ट में जो व्यवस्थाएँ की गयीं थी, उनका उद्देश्य उसी दिशा में आगे बढ़ने के सिवा और कुछ नहीं हो सकता था। 1911 ई. में लार्ड कर्जन के द्वारा 1905 ई. में किया बंगाल का विभाजन रद्द कर दिया गया और भारत ने ब्रिटेन का पूरा साथ दिया। भारत ने युद्ध को जीतने के लिए ब्रिटेन की फ़ौजों से, धन से तथा समाग्री से मदद की। भारत आशा करता था कि इस राजभक्ति प्रदर्शन के बदले युद्ध से होने वाले लाभों में उसे भी हिस्सा मिलेगा।
====<u>द्वैधशासन प्रणाली</u>====
भारत के लिए स्वशासन की माँग करने में पहली बार भारतीय मुसलमान भी हिन्दुओं के साथ संयुक्त हो गये और अगस्त 1917 ई. में ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि भारत में ब्रिटेश शासन की नीति है कि शासन की प्रत्येक शाखा में भारतीयों को अधिकारिक स्थान दिया जाय तथा स्वायत्त शासन का क्रमिकरूप से विकास किया जाय, ताकि ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत भारत में उत्तरदायी सरकार की उत्तरोत्तर स्थापना हो सके। इस घोषणा के अनुसार 1919 का गवर्नमेण्ट आफ इंडिया एक्ट पास किया गया। इस एक्ट के द्वारा विधान मंडलों का विस्तार कर दिया गया और अब उनके बहुसंख्य सदस्य भारतीय जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि होने लगे। एक्ट के द्वारा केन्द्रीय तथा प्रान्तीय सरकारों के कार्यों का विभाजन कर दिया गया और प्रान्तों में द्वैधशासन प्रणाली लागू करके कार्यपालिका को आंशिक रीति से विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी बना दिया गया। इस एक्ट के द्वारा भारत ने सुनिश्चित रीति से प्रगति की। भारतीय के इतिहास में पहली बार एक ऐसी संस्था की स्थापना की गयी, जिसके द्वारा ब्रिटिश भारत के निर्वाचित प्रतिनिधि सरकारी आधार पर एकत्र हो सकते थे। पहली बार उनका बहुमत स्थापित कर दिया गया और अब वे सरकार के कार्यों की  निर्भयतापूर्वक आलोचना कर सकते थे।
====<u>असहयोग और सत्याग्रह</u>====
[[चित्र:Bhagat-Singh.gif|thumb|200px|सरदार [[भगतसिंह]]]]
इन सुधारों से पुराने कांग्रेसजन संतुष्ट हो गये, परन्तु नव युवकों का दल, जिसे [[मोहनदास करमचंद गाँधी]] के रूप में एक नया नेता मिल गया था, संतुष्ट नहीं हुआ। इन सुधारों के अंतर्गत केन्द्रीय कार्यपालिका को केन्द्रीय विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी नहीं बनाया गया था और वाइसराय को बहुत अधिक अधिकार प्रदान कर दिये गये थे। अतएव उसने इन सुधारों को अस्वीकृत कर दिया। उसके मन में जो आशंकाएँ थीं, वे ग़लत नहीं थी, यह 1919 के एक्ट के बाद ही पास किये गये [[रौलट एक्ट]] जैसे दमनकारी कानूनों तथा [[जलियाँवाला बाग़]] हत्याकांण्ड जैसे दमनमूलक कार्यों से सिद्ध हो गया। जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को 'रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी' की लंदन के 'कॉक्सटन हॉल' में बैठक में [[ऊधमसिंह]] ने माइकल ओ डायर पर गोलियाँ चला दीं। जिससे उसकी तुरन्त मौत हो गई। [[चंद्रशेखर आज़ाद]], [[राजगुरु]], [[सुखदेव]] और [[भगतसिंह]] जैसे महान क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश शासन को ऐसे घाव दिये जिन्हें ब्रिटिश शासक बहुत दिनों तक नहीं भूल पाए। कांग्रेस ने 1920 ई. में अपने नागपुर अधिवेशन में अपना ध्येय पूर्ण स्वराज्य की स्थापना घोषित कर दी और अपनी माँगों को मनवाने के लिए उसने अहिंसक असहयोंग की नीति अपनायी। चूंकि ब्रिटिश सरकार ने उसकी माँगें स्वीकार नहीं की और दमनकारी नीति के द्वारा वह [[असहयोग आंदोलन]] को दबा देने में सफल हो गयी। इसलिए कांग्रेस ने दिसम्बर 1929 ई. में लाहौर अधिवेशन में अपना लक्ष्य पूर्ण स्वीधीनता निश्चित किया और अपनी माँग का मनवाने के लिए उसने 1930 में [[नमक सत्याग्रह]] आंदोलन शुरू कर दिया।
====<u>द्वितीय विश्वयुद्ध</u>====
सरकार ने पहले की तरह आंदोलन को दबाने के लिए दमन और समझौते के दोनों रास्ते अख़्तियार किये और 1935 का गवर्नेण्ट आफ इंडिया एक्ट पास किया। इस एक्ट के द्वारा ब्रिटश भारत तथा देशी रियासतों के लिए सम्मिलित रूप से एक संघीय शासन का प्रस्ताव किया, केन्द्र में एक प्रकार के द्वैध शासन की स्थापना की गयी तथा प्रान्तों को स्वशासन प्रदान कर दिया गया। एक्ट का प्रान्तों से सम्बन्धित भाग लागू कर दिया गया तथा अप्रैल 1937 ई. में प्रान्तीय स्वशासन का श्रीगणेश कर दिया गया। परन्तु एक्ट के संघ सरकार से सम्बन्धित भाग के लागू होने से पहले ही सितम्बर 1939 ई. में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो गया जो 1945 ई. तक जारी रहा। यह विश्वव्यापी युद्ध था और ब्रिटेन को अपने सारे साधन उसमें झोंक देने पड़े। भारत ने ब्रिटेन का साथ दिया और भारत के पास जन और धन की जो विशाल शक्ति थी उससे लाभ उठाकर तथा [[संयुक्त राज्य अमरीका|अमरीका]] की सहायता से [[ब्रिटेन]] युद्ध जीत गया। [[गाँधी जी]] के अमित प्रभाव तथा अहिंसा में उनकी दृढ़ निष्ठा के कारण भारत ने यद्यपि ब्रिटिश सम्बन्ध को बनाये रखा, फिर भी यह स्पष्ट हो गया कि भारत अब ब्रिटिश साम्राज्य की अधीनता में नहीं रहना चाहता।
====<u>सम्प्रदायिक दंगे</u>====
कुछ ब्रिटिश अफ़सरों ने भारत को स्वाधीन होने से रोकने के लिए अंतिम दुर्राभ संधि की और मुसलमानों की भारत विभाजन करके पाकिस्तान की स्थापना की माँग का समर्थन करना शुरू कर दिया। इसके फलस्वरूप अगस्त 1946 ई. में सारे देश में भयानक सम्प्रदायिक दंगे शुरू हो गये, जिन्हें वाइसराय [[लार्ड वेवेल]] अपने समस्त फ़ौजी अनुभवों तथा साधनों बावजूद रोकन में असफल रहा। यह अनुभव किया गया कि भारत का प्रशासन ऐसी सरकार के द्वारा चलाना सम्भव नहीं है। जिसका नियंत्रण मुध्य रूप से अंग्रेजों के हाथों में हो। अतएव सितम्बर 1946 ई. में लार्ड वेवेल ने [[पंडित जवाहर लाल नेहरू]] के नेतृत्व में भारतीय नेताओं की एक अंतरिम सरकार गठित की। ब्रिटिश अधिकारियों की कृपापात्र होने के कारण मुस्लिम लीग के दिमाग़ काफ़ी ऊँचे हो गये थे। उसने पहले तो एक महीने तक अंतरिम सरकार से अपने को अलग रखा, इसके बाद वह भी उसमें सम्मिलित हो गयी।
====<u>स्वाधीनता</u>====
[[चित्र:Newspaper-15-August-1947.jpg|thumb|15 अगस्त 1947 का अख़बार<br /> Newspaper Of 15th August 1947]]
भारत का संविधान बनाने के लिए एक भारतीय संविधान सभा का आयोजन किया गया। 1947 ई. के शुरू में लार्ड वेवेल के स्थान पर [[लार्ड माउंटबेटेन]] वाइसराय नियुक्त हुआ। उसे पंजाब में भयानक सम्प्रदायिक दंगों का सामना करना पड़ा। जिनको भड़काने में वहाँ के कुछ ब्रिटिश अफसरों का हाथ था। वह प्रधानमंत्री [[एटली]] के नेतृत्व में ब्रिटेन की सरकार को यह समझाने में सफल हो गया कि भारत का भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन करके उसे स्वाधीनता प्रदान करने से शान्ति की स्थापना सम्भव हो सकेगी और ब्रिटेन भारत में अपने व्यापारिक हितों को सुरक्षित रख सकेगा। 3 जून 1947 को ब्रिटिश सरकार की ओर से यह घोषणा कर दी गयी कि भारत का; भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन करके उसे स्वाधीनता प्रदान कर दी जायगी। ब्रिटिश पार्लियामेंट ने 15 अगस्त 1947 को इंडिपेडंस आफ इंडिया  एक्ट पास कर दिया। इस तरह भारत उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त, [[बलूचिस्तान]], [[सिंध]], [[पश्चिमी पंजाब]], [[बांग्ला देश|पूर्वी बंगाल]] तथा [[पश्चिम बंगाल]] के मुसलिम बहुल भागों से रहित हो जाने के बाद, सात शताब्दियों की विदेशी पराधीनता के बाद स्वाधीनता के एक नये पथ पर अग्रसर हुआ।
====<u>गांधी जी की हत्या</u>====
[[चित्र:Mahatma-Gandhi-1.jpg|thumb|[[महात्मा गाँधी]]]]
स्वाधीन भारत को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ा, वे सरल नहीं थीं। उसे सबसे पहले साम्प्रदायिक उन्माद को शान्त करना था। भारत ने जानबूझकर धर्म निरपेक्ष राज्य बनना पसंद किया। उसने आश्वासन दिया कि जिन मुसलमानों ने पाकिस्तान को निर्गमन करने के बजाय भारत में रहना पसंद किया है उनको नागरिकता के पूर्ण अधिकार प्रदान किये जायेंगे। हालाँकि पाकिस्तान जानबूझकर अपने यहाँ से हिन्दुओं को निकाल बाहर करने अथवा जिन हिन्दुओं ने वहाँ रहने का फैसला किया था, उनको एक प्रकार से द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना देने की नीति पर चल रहा था। लॉर्ड माउंटबेटेन को स्वाधीन भारत का पहला गवर्नर जनरल बनाये रखा गया और [[पंडित जवाहर लाल नेहरू]] तथा अंतरिम सरकार में उनके कांग्रसी सहयोगियों ने थोड़े से हेरफेर के साथ पहले भारतीय मंत्रिमंडल का निर्माण किया। इस मंत्रिमंडल में सरदार पटेल तथा [[मौलाना अबुलकलाम आज़ाद]] का तो सम्मिलित कर लिया गया था, परन्तु नेताजी के बड़े भाई शरतचंद्र बोस को छोड़ दिया गया। 30 जनवरी 1948 ई. को [[नाथूराम गोडसे]] नामक हिन्दू ने [[राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी]] की हत्या कर दी। सारा देश शोक के सागर में डूब गया। नौ महीने के बाद, पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल मुहम्मद अली जिन्नाहकी भी मृत्यु हो गयी। उसी वर्ष लार्ड माउंटबेटेन ने भी अवकाश ग्रहण कर लिया और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी भारत के प्रथम और अंतरिम गवर्नर जनरल नियुक्त हुए।
====<u>रियासतों का विलय</u>====
अधिकांश देशी रियासतों ने , जिनके सामने भारत अथवा पाकिस्तान में विलय का प्रस्ताव रखा गया था, भारत में विलय के पक्ष में निर्णय लिया, परन्तु, दो रियासतों—[[कश्मीर]] तथा [[हैदराबाद रियासत|हैदराबाद]] ने कोई निर्णय नहीं किया। पाकिस्तान ने बलपूर्वक कश्मीर की रियासत पर अधिकार करने का प्रयास किया, परन्तु अक्टूबर 1947 ई. में कश्मीर के महाराज ने भारत में विलय की घोषणा कर दी और भारतीय सेनाओं को वायुयानों से भेजकर [[श्रीनगर]] सहित कश्मीरी घाटी तक जम्मू की रक्षा कर ली गयी। पाकिस्तानी आक्रमणकारियों ने रियासत के उत्तरी भाग पर अपना क़ब्ज़ा बनाये रखा और इसके फलस्वरूप पाकिस्तान से युद्ध छिड़ गया। भारत ने यह मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाया और संयुक्त राष्ट्र संघ ने जिस क्षेत्र पर जिसका क़ब्ज़ा था, उसी के आधार पर युद्ध विराम कर दिया। वह आज तक इस सवाल का कोई निपटारा नहीं कर सका है। हैदराबाद के [[निज़ामशाही वंश|निज़ाम]] ने अपनी रियासत को स्वतंत्रता का दर्जा दिलाने का षड़यंत्र रचा, परन्तु भारत सरकार की पुलिस कार्यवाही के फलस्वरूप वह 1948 ई. में अपनी रियासत भारत में विलयन करने के लिए मजबूर हो गये। रियासतों के विलय में तत्कालीन गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल की मुख्य भूमिका रही।
====<u>संघ राज्यों का विलय</u>====
[[भारतीय संविधान सभा]] के द्वारा 26 नवम्बर 1949 में संविधान पास किया गया। भारत का संविधान अधिनियम 26 जनवरी 1950 को लागू कर दिया गया। इस संविधान में भारत को लौकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया था और संघात्मक शासन की व्यवस्था की गयी थी। [[राजेन्द्र प्रसाद|डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद]] को पहला राष्ट्रपति चुना गया और बहुमत पार्टी के नेता के रूप  में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने प्रधान मंत्री का पद ग्रहण किया। इस पद पर वे 27 मई 1964 ई. में, अपनी मृत्यु तक बने रहे। नवोदित भारतीय गणराज्य के लिए उनका दीर्घकालीन प्रधानमंत्रित्व बड़ा लाभदायी सिद्ध हुआ। उससे प्रशासन तथा घरेलू एवं विदेश नीतियों में निरंतरता बनी रही। पंडित नेहरू ने वैदेशिक मामलों में गुट-निरपेक्षता की नीति अपनायी और [[चीन]] से राजनयिक सम्बन्ध स्थापित किये। [[फ्राँस]] ने 1951 ई. में [[चंद्रनगर]] शान्तिपूर्ण रीति से भारत का हस्तांतरित कर दिया। 1956 ई. में उसने अन्य फ्रेंच बस्तियाँ ([[पुदुचेरी|पांडिचेरी]], [[कारीकल]], [[माहे]] तथा [[युन्नान]]) भी भारत को सौंप दीं। [[पुर्तग़ाल]] ने फ्राँस का अनुसरण करने और शान्तिपूर्ण रीति से अपनी पुर्तग़ाली बस्तियाँ ([[गोवा]], [[दमन और दीव]]) छोड़ने से इंकार कर दिया। फलस्वरूप 1961 ई. में भारत को बलपूर्वक इन बस्तियों को लेना पड़ा<ref>1975 ई. में पुर्तग़ाली शासन ने वास्तविकता को समझकर इसको वैधानिक मान्यता दे दी है।</ref>। इस तरह भारत का एकीकरण पूरा हो गया।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/> [[Category:भारत पृष्ठ के साँचे]]  __NOTOC__</noinclude>

07:14, 18 जनवरी 2011 के समय का अवतरण