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| [[ब्रह्म पुराण]] ने श्राद्ध की परिभाषा यों दी है, 'जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है।'<ref>देशे काले च पात्रे च श्रद्धया विधिना च यत्। पितृनुद्दिश्य विप्रभ्यों दत्तं श्राद्धमुदाह्रतम्।। ब्रह्मपुराण (श्राद्धप्रकाश, पृ. 3 एवं 6; श्राद्धकल्पलता, पृ. 3; परा. मा. 1|2, पृ. 299)। मिता. (याज्ञ. 1|217) में आया है–'श्राद्धं नाम्तदनीयस्य तत्स्यानीयसय वा द्रव्यस्य प्रेतोद्देशेन श्रद्धया त्याग:।'
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| श्राद्धकल्पतरु (पृ. 4) में ऐसा कहा गया है–'एतेन पितृनुद्दिश्य द्रव्योत्यागो ब्राह्मणस्वीकरणपर्यन्तं श्राद्धस्वरूपं प्रधानम्।' श्राद्धक्रियाकौमुदी (पृ. 3-4) का कथन है–'कल्पतरुलक्षणमय्यनुर्वादय सन्यासिनामात्मश्राद्धे देवश्राद्धे सनकादिश्राद्धे चाव्याप्ते:।' श्रीदत्तकृत पितृभक्ति में आया है–'अत्र कल्पतरुकार: पितृनुद्दिश्य द्रव्यपातो ब्राह्मणस्वीकरणपर्यन्ती हि श्राद्धमित्याह तदयुक्तम्।' दीपकलिका (याज्ञवल्क्यस्मृति 1|128) ने कल्पतरु की बात मानी है। श्राद्धविवेक (पृ. 1) ने इस प्रकार कहा है–'श्राद्धं नाम वेदवोधितपात्रम्भनपूर्वकप्रमीतपित्रादिदेवतोद्देश्यको द्रव्यत्यागविशेष:।' श्राद्धप्रकाश (पृ. 4) ने इस प्रकार कहा है–'अत्रापस्तम्बादिसकलवचनपर्यालोचनया प्रमीतमात्रोद्देश्यकान्नत्यागविशेषस्य ब्राह्मणद्यधिककरण प्रतिपत्त्ययंगकस्य श्राद्धपदार्थत्वं प्रतीययते।' श्राद्धविवेक का कथन है कि 'द्रव्यत्याग' वेद के शब्दों द्वारा विहित (वेदबोधत) है और त्यागी हुई वस्तु सुपात्र ब्राह्मण को (पात्रालम्भनपूर्वक) दी जाती है। श्राद्धप्रकाश में 'प्रतिपत्ति' का अर्थ है यज्ञ में प्रयुक्त किसी वस्तु की अन्तिम परिणति, जैसा कि दर्शपूर्णमास यज्ञ में 'सह शाखया प्रस्तरं प्रहरति' नामक वाक्य आया है। यहाँ 'शाखाप्रहरण' 'प्रतिपत्तिकर्म' है (जैमिनि. 4|2|10-13) न कि अर्थकर्म। इसी प्रकार आहिताग्नि के साथ उसके यज्ञपात्रों का दाह प्रतिपत्तिकर्म है (जहाँ तक यज्ञपात्रों का सम्बन्ध है)।</ref>
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| मिताक्षरा<ref>(याज्ञवल्क्यस्मृति 1|217)</ref> ने श्राद्ध को यों परिभाषित किया है, 'पितरों का उद्देश्य करके (उनके कल्याण के लिए) श्राद्धापूर्वक किसी वस्तु का या उससे सम्बन्धित किसी द्रव्य का त्याग श्राद्ध है।' कल्पतरु की परिभाषा यों है, 'पितरों का उद्देश्य करके (उनके लाभ के लिए) यज्ञिय वस्तु का त्याग एवं ब्राह्मणों के द्वारा उसका ग्रहण प्रधान श्राद्धस्वरूप है।' रुद्रधर के श्राद्धविवेक एवं श्राद्धप्रकाश ने मिताक्षरा के समान ही कहा है, किन्तु इनमें परिभाषा कुछ उलझ सी गयी है। याज्ञवल्क्यस्मृति<ref>याज्ञवल्क्यस्मृति (1|268=अग्निपुराण 163|40-41)</ref> का कथन है कि पितर लोग, यथा–वसु, रुद्र एवं आदित्य, जो कि श्राद्ध के देवता हैं, श्राद्ध से संतुष्ट होकर मानवों के पूर्वपुरुषों को संतुष्टि देते हैं। यह वचन एवं मनु<ref>मनु (3|284)</ref> की उक्ति यह स्पष्ट करती है कि मनुष्य के तीन पूर्वज, यथा–पिता, पितामह एवं प्रपितामह क्रम से पितृ-देवों, अर्थात् वसुओं, रुद्रों एवं आदित्य के समान हैं और श्राद्ध करते समय उनकों पूर्वजों का प्रतिनिधि मानना चाहिए। कुछ लोगों के मत से श्राद्ध से इन बातों का निर्देश होता है; होम, पिण्डदान एवं ब्राह्मण तर्पण (ब्राह्मण संतुष्टि भोजन आदि से); किन्तु श्राद्ध शब्द का प्रयोग इन तीनों के साथ गोण अर्थ में उपयुक्त समझा जा सकता है।
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| ==पिण्डदान का सिद्धान्त==
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| कर्म, पुनर्जन्म एवं कर्मविपाक के सिद्धान्त में अटल विश्वास रखने वाले व्यक्ति इस सिद्धान्त के साथ कि पिण्डदान करने से तीन पूर्व पुरुषों की आत्मा को संतुष्टि प्राप्त होती है, कठिनाई से समझौता कर सकते हैं। पुनर्जन्म<ref>(देखिए बृहदारण्यकोपनिषद् 4|4|4 एवं भगवदगीता 2|22) अयमात्मेदं शरीरं निहत्याविद्यां गमयित्वान्यत्रवतरं कल्याणतरं रूपं कुरुते पित्र्यं वा मान्धर्व वा दैवं वा प्राजापत्यं वा ब्राह्मां वान्येषां वा भूतानाम्। बृह. उप. (4|4|4); तथा शरीरणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।। गीता (2|22)।</ref> के सिद्धान्त के अनुसार आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे नवीन शरीर में प्रविष्ट होती है। किन्तु तीन पूर्व पुरुषों के पिण्डदान का सिद्धान्त यह बतलाता है कि तीनों पूर्वजों की आत्माएँ 50 या 100 वर्षों के उपरान्त भी वायु में सन्तरण करते हुए चावल के पिण्डों की सुगन्धि या सारतत्व वायव्य शरीर द्वारा ग्रहण करने में समर्थ होती हैं। इसके अतिरिक्त याज्ञवल्क्यस्मृति, [[मार्कण्डेय पुराण]]<ref>(1|268=मार्कण्डेयपुराण 29|38)</ref>, [[मत्स्य पुराण]]<ref>मत्स्यपुराण (19|11-12)</ref> एवं [[अग्नि पुराण]]<ref>अग्निपुराण (163|41-42)</ref> में आया है कि पितामह लोग (पितर) श्राद्ध में दिये गये पिण्डों से स्वयं संतुष्ट होकर अपने वंशजों को जीवन, संतति, सम्पत्ति, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सभी सुख एवं राज्य देते हैं। मत्स्यपुराण<ref>मत्स्यपुराण (19|2)</ref> में ऋषियों द्वारा पूछा गया एक प्रश्न ऐसा आया है कि वह भोजन, जिसे ब्राह्मण (श्राद्ध में आमंत्रित) खाता है या जो कि अग्नि में डाला जाता है, क्या उन मृतात्माओं के द्वारा खाया जाता है, जो (मृत्युपरान्त) अच्छे या बुरे शरीर धारण कर चुके होंगे। मत्स्यपुराण<ref>मत्स्यपुराण (श्लोक 3-9)</ref> में यह उत्तर दिया गया है कि पिता, पितामह, प्रपितामह, वैदिक उक्तियों के अनुसार, क्रम से वसुओं, रुद्रों तथा आदित्यों के समान रूप माने गये हैं; कि नाम एवं गोत्र (श्राद्ध के समय वर्णित), उच्चरित मंत्र एवं श्रद्धा आहुतियों को पितरों के पास ले जाते हैं; कि यदि किसी के पिता (अपने अच्छे कर्मों के कारण) देवता हो गये हैं, तो श्राद्ध में दिया हुआ भोजन अमृत हो जाता है और वे उनके देवत्व की स्थिति में उनका अनुसरण करता है। यदि वे दैत्य (असुर) हो गये हैं तो वह (श्राद्ध में दिया गया भोजन) उनके पास भाँति-भाँति के आनन्दों के रूप में पहुँचता है। यदि वे पशु हो गये हैं तो वह उनके लिए घास हो जाता है और यदि वे सर्प हो गये हैं तो श्राद्ध भोजन वायु बनकर उनकी सेवा करता है, आदि-आदि। श्राद्धकल्पतरु<ref>श्राद्धकल्पतरु (पृ. 5)</ref> ने मत्स्यपुराण<ref>मत्स्यपुराण (19|5-9)</ref> के श्लोक मार्कण्डयपुराण में कहकर उदधृत किये हैं। विश्वरूप<ref>विश्वरूप (याज्ञ. 1|265)</ref> ने भी उपर्युक्त विरोध उपस्थित करके स्वयं कई उत्तर दिये हैं। एक उत्तर यह है–यह बात पूर्णरूपेण शास्त्र पर आधारित है। अत: जब शास्त्र कहता है कि पितरों को संतुष्टी मिलती है और कर्ता को मनोवांछित फल प्राप्त होता है, तो कोई विरोध खड़ा नहीं करना चाहिए। एक दूसरा उत्तर यह है–वसु, रुद्र आदि ऐसे देवता हैं, जो कि सभी स्थानों पर अपनी पहुँच रखते हैं, अत: पितर लोग जहाँ पर भी हों वे उन्हें संतुष्ट करने की शक्ति रखते हैं। विश्वरूप ने प्रश्नकर्ताओं को नास्तिक कहा है, जैसा कि कुछ अन्य लोगों एवं पश्चात्यकालीन लेखकों ने कहा है।
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