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*तोषनिधि शृंगवेरपुर, सिंगरौर, ज़िला [[इलाहाबाद]]) के रहने वाले 'चतुर्भुज शुक्ल' के पुत्र थे। | *तोषनिधि शृंगवेरपुर, सिंगरौर, ज़िला [[इलाहाबाद]]) के रहने वाले 'चतुर्भुज शुक्ल' के पुत्र थे। | ||
*तोषनिधि ने संवत 1791 में 'सुधानिधि' नामक एक अच्छा बड़ा ग्रंथ रसभेद और भावभेद का बनाया। खोज में इनकी दो पुस्तकें और मिली हैं - | *तोषनिधि ने संवत 1791 में 'सुधानिधि' नामक एक अच्छा बड़ा ग्रंथ रसभेद और भावभेद का बनाया। खोज में इनकी दो पुस्तकें और मिली हैं - | ||
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*इनके काव्य में भावों का विधान सघन होने पर भी कहीं उलझन नहीं है। | *इनके काव्य में भावों का विधान सघन होने पर भी कहीं उलझन नहीं है। | ||
*[[बिहारी लाल|बिहारी]] के समान इन्होंने भी कहीं कहीं ऊहात्मक अत्युक्ति की है। | *[[बिहारी लाल|बिहारी]] के समान इन्होंने भी कहीं कहीं ऊहात्मक अत्युक्ति की है। | ||
<poem>भूषन भूषित दूषन हीन प्रवीन महारस मैं छबि छाई। | <blockquote><poem>भूषन भूषित दूषन हीन प्रवीन महारस मैं छबि छाई। | ||
पूरी अनेक पदारथ तें जेहि में परमारथ स्वारथ पाई | पूरी अनेक पदारथ तें जेहि में परमारथ स्वारथ पाई | ||
औ उकतैं मुकतै उलही कवि तोष अनोषभरी चतुराई। | औ उकतैं मुकतै उलही कवि तोष अनोषभरी चतुराई। | ||
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भीतर हू रहि जात नहीं, अंखियाँ चकचौंधि ह्वै जाति हैं राती | भीतर हू रहि जात नहीं, अंखियाँ चकचौंधि ह्वै जाति हैं राती | ||
बैठि रहौ, बलि, कोठरी में कह तोष करौं बिनती बहु भाँती। | बैठि रहौ, बलि, कोठरी में कह तोष करौं बिनती बहु भाँती। | ||
सारसीनैनि लै आरसी सो अंग काम कहा कढ़ि घाम में जाती? | सारसीनैनि लै आरसी सो अंग काम कहा कढ़ि घाम में जाती?</poem></blockquote> | ||
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09:47, 14 अक्टूबर 2011 के समय का अवतरण
- तोषनिधि रीति काल के एक प्रसिद्ध कवि हुए हैं।
- तोषनिधि शृंगवेरपुर, सिंगरौर, ज़िला इलाहाबाद) के रहने वाले 'चतुर्भुज शुक्ल' के पुत्र थे।
- तोषनिधि ने संवत 1791 में 'सुधानिधि' नामक एक अच्छा बड़ा ग्रंथ रसभेद और भावभेद का बनाया। खोज में इनकी दो पुस्तकें और मिली हैं -
- विनयशतक और
- नखशिख।
- तोषनिधि ने काव्यांगों के बहुत अच्छे लक्षण और सरस उदाहरण दिए हैं। कल्पना का अच्छा निर्वाह हुआ है।
- तोषनिधि की भाषा स्वाभाविक प्रवाह के साथ आगे बढ़ती है।
- तोषनिधि एक बड़े ही सहृदय और निपुण कवि थे।
- इनके काव्य में भावों का विधान सघन होने पर भी कहीं उलझन नहीं है।
- बिहारी के समान इन्होंने भी कहीं कहीं ऊहात्मक अत्युक्ति की है।
भूषन भूषित दूषन हीन प्रवीन महारस मैं छबि छाई।
पूरी अनेक पदारथ तें जेहि में परमारथ स्वारथ पाई
औ उकतैं मुकतै उलही कवि तोष अनोषभरी चतुराई।
होत सबै सुख की जनिता बनि आवति जौं बनिता कविताई
एक कहैं हँसि ऊधावजू! ब्रज की जुवती तजि चंद्रप्रभा सी।
जाय कियो कहँ तोष प्रभू! इक प्रानप्रिया लहि कंस की दासी
जो हुते कान्ह प्रवीन महा सो हहा! मथुरा में कहा मति नासी।
जीव नहीं उबियात जबै ढिग पौढ़ति हैं कुबिजा कछुआ सी
श्रीहरि की छबि देखिबे को अंखियाँ प्रति रोमहि में करि देतो।
बैनन को सुनिबे हित स्रौन जितै तित सो करतौ करि हेतो
मो ढिग छाँड़ि न काम कहूँ रहै तोष कहै लिखितो बिधि एतो।
तौ करतार इती करनी करिकै कलि में कल कीरति लेतो
तौ तन में रवि को प्रतिबिंब परे किरनै सो घनी सरसाती।
भीतर हू रहि जात नहीं, अंखियाँ चकचौंधि ह्वै जाति हैं राती
बैठि रहौ, बलि, कोठरी में कह तोष करौं बिनती बहु भाँती।
सारसीनैनि लै आरसी सो अंग काम कहा कढ़ि घाम में जाती?
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