"ले चल वहाँ भुलावा देकर -जयशंकर प्रसाद": अवतरणों में अंतर

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ले चल वहाँ भुलावा देकर
ले चल वहाँ भुलावा देकर
मेरे नाविक ! धीरे-धीरे ।
मेरे नाविक ! धीरे-धीरे ।
                           जिस निर्जन में सागर लहरी,
                            
                        अम्बर के कानों में गहरी,
जिस निर्जन में सागर लहरी,
                    निश्छल प्रेम-कथा कहती हो-
अम्बर के कानों में गहरी,
                  तज कोलाहल की अवनी रे ।
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो-
                जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया,
तज कोलाहल की अवनी रे ।
              ढीली अपनी कोमल काया,
जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया,
          नील नयन से ढुलकाती हो-
ढीली अपनी कोमल काया,
        ताराओं की पाँति घनी रे ।
नील नयन से ढुलकाती हो-
 
ताराओं की पाँति घनी रे ।
                          जिस गम्भीर मधुर छाया में,
                        विश्व चित्र-पट चल माया में,
                    विभुता विभु-सी पड़े दिखाई-
                  दुख-सुख बाली सत्य बनी रे ।
              श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से
            जहाँ सृजन करते मेला से,
        अमर जागरण उषा नयन से-
      बिखराती हो ज्योति घनी रे !


                         
जिस गम्भीर मधुर छाया में,                       
विश्व चित्र-पट चल माया में,                   
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई-                 
दुख-सुख बाली सत्य बनी रे ।             
श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से           
जहाँ सृजन करते मेला से,       
अमर जागरण उषा नयन से-     
बिखराती हो ज्योति घनी रे !
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==संबंधित लेख==
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ले चल वहाँ भुलावा देकर -जयशंकर प्रसाद
जयशंकर प्रसाद
जयशंकर प्रसाद
कवि जयशंकर प्रसाद
जन्म 30 जनवरी, 1889
जन्म स्थान वाराणसी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 15 नवम्बर, सन् 1937
मुख्य रचनाएँ चित्राधार, कामायनी, आँसू, लहर, झरना, एक घूँट, विशाख, अजातशत्रु
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ

ले चल वहाँ भुलावा देकर
मेरे नाविक ! धीरे-धीरे ।
                           
जिस निर्जन में सागर लहरी,
अम्बर के कानों में गहरी,
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो-
तज कोलाहल की अवनी रे ।
जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया,
ढीली अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढुलकाती हो-
ताराओं की पाँति घनी रे ।

                           
जिस गम्भीर मधुर छाया में,
विश्व चित्र-पट चल माया में,
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई-
दुख-सुख बाली सत्य बनी रे ।
श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से
जहाँ सृजन करते मेला से,
अमर जागरण उषा नयन से-
बिखराती हो ज्योति घनी रे !

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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