"महाबत ख़ाँ": अवतरणों में अंतर

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'''महाबत ख़ाँ''' [[मुग़ल]] शासन की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण उपाधि थी। यह विविध समयों में विविध व्यक्तियों को प्रदान की गई, जिसे प्राप्त करने वाले एक व्यक्ति ने सबसे अधिक ख्याति और प्रतिष्ठा पाई, वह 'जमानबेग़' नामक योग्य सैनिक था। बादशाह [[जहाँगीर]] ने तख़्तनशीन होने के बाद ही 1605 ई. में उसे यह उपाधि प्रदान कर दी थी। जहाँगीर की मलिका [[नूरजहाँ]] का पिता [[मिर्ज़ा गियासबेग़]] और उसका भाई [[आसफ़ ख़ाँ]] सदैव ही महावत ख़ाँ के विरोधी रहे। महावत ख़ाँ कुछ समय तक [[शाहजहाँ]] का भी विश्वासपात्र रहा, किन्तु [[बीजापुर]] की एक पराजय ने उसे शाहजहाँ की नज़रों से गिरा दिया।
#REDIRECT [[महावत ख़ाँ]]
==स्वामिभक्त==
प्रारम्भ में महावत ख़ाँ बहुत ही स्वामिभक्त और योग्य सिपहसलार सिद्ध हुआ। उसे [[राणा अमर सिंह]] से युद्ध करने के लिए [[मेवाड़]] भेजा गया। उसने कई घमासान लड़ाइयों में उसे हराया। मेवाड़ से लौटने पर उसे दक्षिण भेजा गया। उसे वहाँ के बाग़ी सूबेदार ख़ानख़ाना को अपने साथ राजधानी लाने का काम सौंपा गया। यह कार्य उसने बड़े ही युक्ति कौशल के साथ सम्पन्न किया।
==नूरजहाँ का द्वेष==
जैसे-जैसे जहाँगीर पर [[नूरजहाँ]] का प्रभाव बढ़ता गया, वैसे-वैसे महाबत ख़ाँ पर जहाँगीर की कृपादृष्टि कम होती गई। मलका नूरजहाँ के पिता और भाई, दोनों महावत ख़ाँ के विरोधी थे। अगले बारह साल तक बादशाह ने महाबत ख़ाँ को कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं सौंपा। इससे वह हताश होने लगा। फिर भी शाहज़ादा 'ख़ुर्रम' (बाद में [[शाहजहाँ]]) ने जब जहाँगीर के ख़िलाफ़ बग़ावत की, तो महावत ख़ाँ उसे दबाने के लिए शाही फ़ौज लेकर गया। उसने बाग़ी शाहज़ादे को पहले दक्षिण में बिलोचपुर के युद्ध में और फिर [[इलाहाबाद]] के निकट डमडम की लड़ाई में हराया। इन विजयों से मलका नूरजहाँ का उसके प्रति विरोध भाव और बढ़ गया और उसे [[क़ाबुल]] की सूबेदारी से हटाकर [[बंगाल]] भेज दिया गया।
==बग़ावत==
क़ाबुल की सूबेदारी छिनने और अपने साथ इस प्रकार के व्यवहार से महावत ख़ाँ अपनी धैर्य खो बैठा। वह इतना अत्यधिक भड़क उठा कि उसने 1626 ई. में [[दिल्ली]] का तख़्त उलट देने की कोशिश की। [[जहाँगीर]] जिस समय क़ाबुल जा रहा था, वह उसे अपनी हिरासत में लेने में सफल हो गया। परन्तु नूरजहाँ महाबत ख़ाँ से अधिक चालाक थी। उसने शीघ्र ही महाबत ख़ाँ की हिरासत से जहाँगीर को छुड़ा लिया और इस वजह से दरबार में महाबत ख़ाँ का प्रभाव समाप्त हो गया।
==शाहजहाँ का विश्वासपात्र==
महाबत ख़ाँ हताश होकर शाहज़ादा ख़ुर्रम से मिल गया, जिसने 1626 ई. में बग़ावत कर दी। परन्तु उसके साथ जहाँगीर का कोई युद्ध नहीं हुआ। 1627 ई. में जहाँगीर की मृत्यु हो गई। [[शाहजहाँ]] के तख़्त पर बैठने पर महाबत ख़ाँ को उच्च पदों पर नियुक्त किया गया और उसे ख़ानख़ाना की पदवी दी गई। इस प्रकार महावत ख़ाँ शाहजहाँ का एक बहुत ही अच्छा विश्वासपात्र सिद्ध हुआ। महाबत ख़ाँ ने दिल्ली की गद्दी के लिए होने वाले उत्तराधिकार के युद्ध में भी शाहजहाँ का समर्थन किया। [[बुन्देलखण्ड]] में एक बग़ावत को कुचला, [[दौलताबाद]] पर घेरा डाला और उस पर दख़ल कर लिया। इस प्रकार से उसने [[अहमदनगर]] को पूरी तौर से [[मुग़ल साम्राज्य]] के अधीन बना दिया।
==मृत्यु==
अहमदनगर की विजय महाबत ख़ाँ की अन्तिम सफलता थी। वह मुग़लों का बहुत ही योग्य सिपहसलार था। उसने [[बीजापुर]] को भी जीतने की कोशिश की, परन्तु विफल रहा। उसकी इस विफलता के लिए बादशाह ने उसका बहुत ही अपमान किया। इस अपमान से वह बहुत ही दु:खी हुआ और अन्दर से टूट गया। अपने दु:ख भरे दिनों में ही 1634 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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<references/>
==संबंधित लेख==
{{मध्य काल}}
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09:49, 30 जून 2012 के समय का अवतरण

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