"सिंहासन बत्तीसी सात": अवतरणों में अंतर
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एक दिन राजा विक्रमादित्य सो रहा था। आधी रात बीत चुकी थी। अचानक उसे किसी के रोने की | [[सिंहासन बत्तीसी]] एक [[लोककथा]] संग्रह है। [[विक्रमादित्य|महाराजा विक्रमादित्य]] भारतीय लोककथाओं के एक बहुत ही चर्चित पात्र रहे हैं। प्राचीनकाल से ही उनके गुणों पर [[प्रकाश]] डालने वाली कथाओं की बहुत ही समृद्ध परम्परा रही है। सिंहासन बत्तीसी भी 32 कथाओं का संग्रह है जिसमें 32 पुतलियाँ विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कथा के रूप में वर्णन करती हैं। | ||
==सिंहासन बत्तीसी सात== | |||
<poem style="background:#fbf8df; padding:15px; font-size:16px; border:1px solid #003333; border-radius:5px"> | |||
एक दिन राजा विक्रमादित्य सो रहा था। आधी रात बीत चुकी थी। अचानक उसे किसी के रोने की आवाज़ सुनायी दी। राजा ढाल-तलवार लेकर, जिधर से आवाज़ आ रही थी, उधर चल पड़ा। चलते-चलते नदी पर पहुंचा। देखता क्या है कि एक बड़ी सुन्दर तरुण स्त्री धाड़े मार-मारकर रो रही है। राजा ने पूछा तो उसने कहा कि मेरा आदमी चोरी करता था। एक दिन कोतवाल ने उसे पकड़ लिया और सूली पर लटका दिया। मैं उसे प्यार से खाना खिलाने आयी हूं, पर सूली इतनी ऊंची है कि मेरा हाथ उसके मुंह तक नहीं पहुंच पाता। | |||
''राजा ने कहा:'' इसमें रोने की क्या बात है? तुम मेरे कन्धे पर चढ़कर उसे खिला दो। | ''राजा ने कहा:'' इसमें रोने की क्या बात है? तुम मेरे कन्धे पर चढ़कर उसे खिला दो। | ||
वह स्त्री थी डायन। राजा के कन्धे पर सवार होकर उस आदमी को खाने लगी। पेट भरकर वह नीचे उतरी। | वह स्त्री थी डायन। राजा के कन्धे पर सवार होकर उस आदमी को खाने लगी। पेट भरकर वह नीचे उतरी। | ||
''राजा से बोली:'' मैं तुमसे बहुत खुश हूं। जो चाहो सो मांगो। | ''राजा से बोली:'' मैं तुमसे बहुत खुश हूं। जो चाहो सो मांगो। | ||
''राजा ने कहा:'' अच्छा, तो मुझे अन्नपूर्णा दे दो। | ''राजा ने कहा:'' अच्छा, तो मुझे अन्नपूर्णा दे दो। | ||
''वह बोली:'' अन्नपूर्णा तो मेरी छोटी बहन के पास है। तुम मेरे साथ चलो, दे दूंगी। | ''वह बोली:'' अन्नपूर्णा तो मेरी छोटी बहन के पास है। तुम मेरे साथ चलो, दे दूंगी। | ||
वे दोनों नदी के किनारे एक मकान पर पहुंचे। वहां उस स्त्री ने ताली बजाई। बहन आयी। स्त्री ने उसे सब बात बताई और कहा कि इसे अन्नपूर्णा दे दो। बहन ने हंसकर उसे एक थैली दी और कहा, "जो भी खाने की चीज़ चाहोगे, इसमें से मिल जायगी।" राजा ने खुशी से उसे ले लिया और वहां से चल दिया। नदी पर जाकर उसने स्नान-ध्यान पूजा-पाठ किया। इतने में एक ब्राह्मण वहां आया। | |||
वे दोनों नदी के किनारे एक मकान पर पहुंचे। वहां उस स्त्री ने ताली बजाई। बहन आयी। स्त्री ने उसे सब बात बताई और कहा कि इसे अन्नपूर्णा दे दो। बहन ने हंसकर उसे एक थैली दी और कहा, "जो भी खाने की | |||
''उसने कहा:' भूख लगी है। | ''उसने कहा:' भूख लगी है। | ||
''राजा ने पूछा:'' क्या खाओगे? उसने जो बताया, वही राजा ने थैली में हाथ डालकर निकालकर दे दिया। | ''राजा ने पूछा:'' क्या खाओगे? उसने जो बताया, वही राजा ने थैली में हाथ डालकर निकालकर दे दिया। | ||
''ब्राह्मण ने पेट भरकर खाया, फिर बोला:'' कुछ दक्षिणा भी तो दो। | ''ब्राह्मण ने पेट भरकर खाया, फिर बोला:'' कुछ दक्षिणा भी तो दो। | ||
''राजा ने कहा:'' जो मांगोगे, दूगां। ब्राह्मण ने वही थैली मांग ली। राजा ने खुशी-खुशी दे दी और अपने घर चला आया। | ''राजा ने कहा:'' जो मांगोगे, दूगां। ब्राह्मण ने वही थैली मांग ली। राजा ने खुशी-खुशी दे दी और अपने घर चला आया। | ||
''पुतली बोली:'' हे राजन्! विक्रमादित्य को देखो, इतनी मेहनत से पाई थैली ब्राह्मण को देते देर न लगी। तुम ऐसे दानी हो तो सिंहासन पर बैठो, नहीं तो पाप लगेगा। | ''पुतली बोली:'' हे राजन्! विक्रमादित्य को देखो, इतनी मेहनत से पाई थैली ब्राह्मण को देते देर न लगी। तुम ऐसे दानी हो तो सिंहासन पर बैठो, नहीं तो पाप लगेगा। | ||
राजा भोज सिंहासन पर बैठने को उतावला हो रहा था। अगले दिन जब वह सिंहासन पर बैठने को आगे बढ़ा कि पुष्पावती नाम की आठवी पुतली ने उसे रोक दिया। | राजा भोज सिंहासन पर बैठने को उतावला हो रहा था। अगले दिन जब वह सिंहासन पर बैठने को आगे बढ़ा कि पुष्पावती नाम की आठवी पुतली ने उसे रोक दिया। | ||
''पुतली बोली:'' इस पर बैठने की आशा छोड़ दो। | ''पुतली बोली:'' इस पर बैठने की आशा छोड़ दो। | ||
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09:40, 25 फ़रवरी 2013 के समय का अवतरण
सिंहासन बत्तीसी एक लोककथा संग्रह है। महाराजा विक्रमादित्य भारतीय लोककथाओं के एक बहुत ही चर्चित पात्र रहे हैं। प्राचीनकाल से ही उनके गुणों पर प्रकाश डालने वाली कथाओं की बहुत ही समृद्ध परम्परा रही है। सिंहासन बत्तीसी भी 32 कथाओं का संग्रह है जिसमें 32 पुतलियाँ विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कथा के रूप में वर्णन करती हैं।
सिंहासन बत्तीसी सात
एक दिन राजा विक्रमादित्य सो रहा था। आधी रात बीत चुकी थी। अचानक उसे किसी के रोने की आवाज़ सुनायी दी। राजा ढाल-तलवार लेकर, जिधर से आवाज़ आ रही थी, उधर चल पड़ा। चलते-चलते नदी पर पहुंचा। देखता क्या है कि एक बड़ी सुन्दर तरुण स्त्री धाड़े मार-मारकर रो रही है। राजा ने पूछा तो उसने कहा कि मेरा आदमी चोरी करता था। एक दिन कोतवाल ने उसे पकड़ लिया और सूली पर लटका दिया। मैं उसे प्यार से खाना खिलाने आयी हूं, पर सूली इतनी ऊंची है कि मेरा हाथ उसके मुंह तक नहीं पहुंच पाता।
राजा ने कहा: इसमें रोने की क्या बात है? तुम मेरे कन्धे पर चढ़कर उसे खिला दो।
वह स्त्री थी डायन। राजा के कन्धे पर सवार होकर उस आदमी को खाने लगी। पेट भरकर वह नीचे उतरी।
राजा से बोली: मैं तुमसे बहुत खुश हूं। जो चाहो सो मांगो।
राजा ने कहा: अच्छा, तो मुझे अन्नपूर्णा दे दो।
वह बोली: अन्नपूर्णा तो मेरी छोटी बहन के पास है। तुम मेरे साथ चलो, दे दूंगी।
वे दोनों नदी के किनारे एक मकान पर पहुंचे। वहां उस स्त्री ने ताली बजाई। बहन आयी। स्त्री ने उसे सब बात बताई और कहा कि इसे अन्नपूर्णा दे दो। बहन ने हंसकर उसे एक थैली दी और कहा, "जो भी खाने की चीज़ चाहोगे, इसमें से मिल जायगी।" राजा ने खुशी से उसे ले लिया और वहां से चल दिया। नदी पर जाकर उसने स्नान-ध्यान पूजा-पाठ किया। इतने में एक ब्राह्मण वहां आया।
उसने कहा:' भूख लगी है।
राजा ने पूछा: क्या खाओगे? उसने जो बताया, वही राजा ने थैली में हाथ डालकर निकालकर दे दिया।
ब्राह्मण ने पेट भरकर खाया, फिर बोला: कुछ दक्षिणा भी तो दो।
राजा ने कहा: जो मांगोगे, दूगां। ब्राह्मण ने वही थैली मांग ली। राजा ने खुशी-खुशी दे दी और अपने घर चला आया।
पुतली बोली: हे राजन्! विक्रमादित्य को देखो, इतनी मेहनत से पाई थैली ब्राह्मण को देते देर न लगी। तुम ऐसे दानी हो तो सिंहासन पर बैठो, नहीं तो पाप लगेगा।
राजा भोज सिंहासन पर बैठने को उतावला हो रहा था। अगले दिन जब वह सिंहासन पर बैठने को आगे बढ़ा कि पुष्पावती नाम की आठवी पुतली ने उसे रोक दिया।
पुतली बोली: इस पर बैठने की आशा छोड़ दो।
राजा ने पूछा: क्यों?
उसने कहा: लो सुनों।
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