"सिंहासन बत्तीसी तीस": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
('एक दिन रात के समय राजा विक्रमादित्य घूमने के लिए निक...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
No edit summary
 
(2 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
[[सिंहासन बत्तीसी]] एक [[लोककथा]] संग्रह है। [[विक्रमादित्य|महाराजा विक्रमादित्य]] भारतीय लोककथाओं के एक बहुत ही चर्चित पात्र रहे हैं। प्राचीनकाल से ही उनके गुणों पर [[प्रकाश]] डालने वाली कथाओं की बहुत ही समृद्ध परम्परा रही है। सिंहासन बत्तीसी भी 32 कथाओं का संग्रह है जिसमें 32 पुतलियाँ विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कथा के रूप में वर्णन करती हैं।
==सिंहासन बत्तीसी तीस==
<poem style="background:#fbf8df; padding:15px; font-size:14px; border:1px solid #003333; border-radius:5px">
एक दिन रात के समय राजा विक्रमादित्य घूमने के लिए निकला। आगे चलकर देखता क्या है कि चार चोर खड़े आपस में बातें कर रहे हैं।  
एक दिन रात के समय राजा विक्रमादित्य घूमने के लिए निकला। आगे चलकर देखता क्या है कि चार चोर खड़े आपस में बातें कर रहे हैं।  
 
उन्होंने राजा से पूछा: तुम कौन हो?  
''उन्होंने राजा से पूछा'': तुम कौन हो?  
राजा ने कहा: जो तुम हो, वहीं मैं हूं।  
 
''राजा ने कहा'': जो तुम हो, वहीं मैं हूं।  
 
तब चोरों ने मिलकर सलाह की कि राजा के यहां चोरी की जाय।  
तब चोरों ने मिलकर सलाह की कि राजा के यहां चोरी की जाय।  
 
एक ने कहा: मैं ऐसा मुहूर्त देखना जानता हूं कि जाएँ तो ख़ाली हाथ न लौटें।  
''एक ने कहा'': मैं ऐसा मुहूर्त देखना जानता हूं कि जाए तो खाली हाथ न लौटें।  
दूसरे ने कहा: मैं जानवरों की बोलियां समझता हूं।  
 
तीसरा बोला: मैं जहां चोरी को जाऊं, वहां मुझे कोई न देख सके, पर मैं सबको देख लूं।  
''दूसरे ने कहा'': मैं जानवरों की बोलियां समझता हूं।  
चौथे ने कहा: मेरे पास ऐसी चीज़ है कि कोई मुझे कितना ही मारे, मैं मरुं।
 
फिर उन्होंने राजा से पूछा तो उन्होंने कहा: मैं यह बता सकता हूं कि धन कहां गड़ा है।"
''तीसरा बोला'': मैं जहां चोरी को जाऊं, वहां मुझे कोई न देख सके, पर मैं सबको देख लूं।  
पांचों उसी वक्त राजा के महल में पहुंचे। राजा ने जहां धन गड़ा था, वह स्थान बता दिया। खोदा तो सचमुच बहुत-सा माल निकला। तभी एक [[गीदड़]] बोला, जानवरों की बोली समझने वाले चोर ने कहा, "धन लेने में कुशल नहीं है।" पर वे न माने। फिर उन्होंने एक धोबी के यहां सेंध लगाई। राजा को अब क्या करना था। वह उनके साथ नहीं गया।
 
''चौथे ने कहा'': मेरे पास ऐसी चीज है कि कोई मुझे कितना ही मारे, मैं ने मरुं।
 
''फिर उन्होंने राजा से पूछा तो उन्होंने कहा'': मैं यह बता सकता हूं कि धन कहां गड़ा है।"
 
पांचों उसी वक्त राजा के महल में पहुंचे। राजा ने जहां धन गड़ा था, वह स्थान बता दिया। खोदा तो सचमुच बहुत-सा माल निकला। तभी एक गीदड़ बोला, जानवरों की बोली समझने वाले चोर ने कहा, "धन लेने में कुशल नहीं है।" पर वे न माने। फिर उन्होंने एक धोबी के यहां सेंध लगाई। राजा को अब क्या करना था। वह उनके साथ नहीं गया।
 
अगले दिन शोर मच गया कि राजा के महल में चोरी हो गई। कोतवाल ने तलाश करके चोरों को पकड़कर राजा के सामने पेश किया। चोर देखते ही पहचान गये कि रात को उनके साथ पांचवां चोर और कोई नहीं, राजा था। उन्होंने जब यह बात राजा से कही तो वह हंसने लगा।  
अगले दिन शोर मच गया कि राजा के महल में चोरी हो गई। कोतवाल ने तलाश करके चोरों को पकड़कर राजा के सामने पेश किया। चोर देखते ही पहचान गये कि रात को उनके साथ पांचवां चोर और कोई नहीं, राजा था। उन्होंने जब यह बात राजा से कही तो वह हंसने लगा।  
 
उसने कहा: तुम लोग डरो मत। हम तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगड़ने देंगे। पर तुम कसम लो कि आगे से चोरी नहीं करोगे। जितना धन तुम्हें चाहिए, मुझसे ले लो।
''उसने कहा'': तुम लोग डरो मत। हम तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगड़ने देंगे। पर तुम कसम लो कि आगे से चोरी नहीं करोगे। जितना धन तुम्हें चाहिए, मुझसे ले लो।
 
राजा ने मुंहमांगा धन देकर विदा किया।
राजा ने मुंहमांगा धन देकर विदा किया।
 
पुतली बोली: हे राज भोज! है तुममें इतनी उदारता?
''पुतली बोली'': हे राज भोज! है तुममें इतनी उदारता?
 
अगले दिन राजा ने जैसे ही सिंहासन की ओर पैर बढ़ाया कि कौशल्या नाम की इकत्तीसवीं पुतली ने उसे रोक दिया।  
अगले दिन राजा ने जैसे ही सिंहासन की ओर पैर बढ़ाया कि कौशल्या नाम की इकत्तीसवीं पुतली ने उसे रोक दिया।  
बोली; हे राजा! पीतल [[सोना|सोने]] की बराबरी नहीं कर सकता। शीशा हीरे के बराबर नहीं होता, [[नीम]] [[चंदन]] का मुकाबला नहीं कर सकता तुम भी विक्रमादित्य नहीं हो सकते। लो सुनो:"


''बोली''; हे राजा! पीतल सोने की बराबरी नहीं कर सकता। शीशा हीरे के बराबर नहीं होता, नीम चंदन का मुकाबला नहीं कर सकता तुम भी विक्रमादित्य नहीं हो सकते। लो सुनो:"
;आगे पढ़ने के लिए [[सिंहासन बत्तीसी इकत्तीस]] पर जाएँ
 
</poem>


{{लेख प्रगति|आधार=आधार1|प्रारम्भिक= |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
{{संदर्भ ग्रंथ}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>
==बाहरी कड़ियाँ==
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{सिंहासन बत्तीसी}}
[[Category:सिंहासन बत्तीसी]]  
[[Category:सिंहासन बत्तीसी]]  
[[Category:कहानी]]   
[[Category:लोककथाएँ]]   
[[Category:कथा साहित्य]]   
[[Category:कथा साहित्य]]   
[[Category:कथा साहित्य कोश]]
[[Category:कथा साहित्य कोश]]
__INDEX__
__INDEX__

11:42, 26 फ़रवरी 2013 के समय का अवतरण

सिंहासन बत्तीसी एक लोककथा संग्रह है। महाराजा विक्रमादित्य भारतीय लोककथाओं के एक बहुत ही चर्चित पात्र रहे हैं। प्राचीनकाल से ही उनके गुणों पर प्रकाश डालने वाली कथाओं की बहुत ही समृद्ध परम्परा रही है। सिंहासन बत्तीसी भी 32 कथाओं का संग्रह है जिसमें 32 पुतलियाँ विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कथा के रूप में वर्णन करती हैं।

सिंहासन बत्तीसी तीस

एक दिन रात के समय राजा विक्रमादित्य घूमने के लिए निकला। आगे चलकर देखता क्या है कि चार चोर खड़े आपस में बातें कर रहे हैं।
उन्होंने राजा से पूछा: तुम कौन हो?
राजा ने कहा: जो तुम हो, वहीं मैं हूं।
तब चोरों ने मिलकर सलाह की कि राजा के यहां चोरी की जाय।
एक ने कहा: मैं ऐसा मुहूर्त देखना जानता हूं कि जाएँ तो ख़ाली हाथ न लौटें।
दूसरे ने कहा: मैं जानवरों की बोलियां समझता हूं।
तीसरा बोला: मैं जहां चोरी को जाऊं, वहां मुझे कोई न देख सके, पर मैं सबको देख लूं।
चौथे ने कहा: मेरे पास ऐसी चीज़ है कि कोई मुझे कितना ही मारे, मैं न मरुं।
फिर उन्होंने राजा से पूछा तो उन्होंने कहा: मैं यह बता सकता हूं कि धन कहां गड़ा है।"
पांचों उसी वक्त राजा के महल में पहुंचे। राजा ने जहां धन गड़ा था, वह स्थान बता दिया। खोदा तो सचमुच बहुत-सा माल निकला। तभी एक गीदड़ बोला, जानवरों की बोली समझने वाले चोर ने कहा, "धन लेने में कुशल नहीं है।" पर वे न माने। फिर उन्होंने एक धोबी के यहां सेंध लगाई। राजा को अब क्या करना था। वह उनके साथ नहीं गया।
अगले दिन शोर मच गया कि राजा के महल में चोरी हो गई। कोतवाल ने तलाश करके चोरों को पकड़कर राजा के सामने पेश किया। चोर देखते ही पहचान गये कि रात को उनके साथ पांचवां चोर और कोई नहीं, राजा था। उन्होंने जब यह बात राजा से कही तो वह हंसने लगा।
उसने कहा: तुम लोग डरो मत। हम तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगड़ने देंगे। पर तुम कसम लो कि आगे से चोरी नहीं करोगे। जितना धन तुम्हें चाहिए, मुझसे ले लो।
राजा ने मुंहमांगा धन देकर विदा किया।
पुतली बोली: हे राज भोज! है तुममें इतनी उदारता?
अगले दिन राजा ने जैसे ही सिंहासन की ओर पैर बढ़ाया कि कौशल्या नाम की इकत्तीसवीं पुतली ने उसे रोक दिया।
बोली; हे राजा! पीतल सोने की बराबरी नहीं कर सकता। शीशा हीरे के बराबर नहीं होता, नीम चंदन का मुकाबला नहीं कर सकता तुम भी विक्रमादित्य नहीं हो सकते। लो सुनो:"

आगे पढ़ने के लिए सिंहासन बत्तीसी इकत्तीस पर जाएँ


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख