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{{पुनरीक्षण}}मनोज कुमार अथवा हरिकिशन गिरि गोस्वामी (अंग्रेज़ी: Manoj Kumar अथवा  Harikrishna Giri Goswami) (जन्म- [[24 जुलाई]] 1937 अबोटाबाद, (अब [[पाकिस्तान]] में) फ़िल्म जगत के प्रसिद्ध भारतीय अभिनेता, निर्माता व निर्देशक हैं। अपनी फिल्मों के जरिए लोगों को देशभक्ति की भावना का गहराई से एहसास कराने वाले मनोज कुमार शहीद-ए-आजम भगत सिंह से बेहद प्रभावित हैं और इसी भावना ने उन्हें शहीद जैसी कालजई फिल्म में देश के इस अमर सपूत के किरदार को जीवंत करने की प्रेरणा दी थी। 1992 में मनोज कुमार को भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
बंदा सिहं बहादुर
==जन्म==
मनोज कुमार का जन्म [[24 जुलाई]] 1937 को पाकिस्तान के अबोटाबाद में हुआ था। उनका असली नाम हरिकिशन गिरि गोस्वामी है। देश के बंटवारे के बाद उनका परिवार [[राजस्थान]] के हनुमानगढ़ ज़िले में बस गया था।
==प्रमुख फ़िल्म==
मनोज ने अपने करियर में शहीद, उपकार, पूरब और पश्चिम और क्रांति जैसी देशभक्ति पर आधारित अनेक बेजोड़ फिल्मों में काम किया। इसी वजह से उन्हें भारत कुमार भी कहा जाता है।
==निर्देशक ==
शहीद के दो साल बाद उन्होंने बतौर निर्देशक अपनी पहली फिल्म उपकार का निर्माण किया। उसमें मनोज ने भारत नाम के किसान युवक का किरदार निभाया था जो परिस्थितिवश गांव की पगडंडियां छोड़कर मैदान-ए-जंग का सिपाही बन जाता है।
मनोज ने बताया कि जय जवान जय किसान के नारे पर आधारित वह फिल्म उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के विशेष आग्रह पर बनाई थी। उस फिल्म में गांव के आदमी के शहर की तरफ भागने, फिर वापस लौटने और उससे जुड़े सामाजिक रिश्तों की कहानी थी जिसमें उस वक्त के हालात को ज्यादा से ज्यादा समेटने की कोशिश की गई थी।
====उपकार ====
उपकार खूब सराही गई और उसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ कथा और सर्वश्रेष्ठ संवाद श्रेणी में फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था। फिल्म को द्वितीय सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार तथा सर्वश्रेष्ठ संवाद का बीएफजेए अवार्ड भी दिया गया।
====शहीद ====
मनोज को शहीद के लिए सर्वश्रेष्ठ कहानीकार का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया था। मनोज कुमार ने शहीद फिल्म में सरदार भगत सिंह की भूमिका को जीकर उस किरदार के फिल्मी रूपांतरण को भी अमर बना दिया था।
====फ़िल्म जगत====
हरिकिशन दिलीप कुमार से बेहद प्रभावित थे और उन्होंने अपना नाम फिल्म शबनम में दिलीप के किरदार के नाम पर मनोज रख लिया था। मनोज कुमार ने वर्ष 1957 में बनी फिल्म फैशन के जरिए बड़े पर्दे पर कदम रखा। प्रमुख भूमिका की उनकी पहली फिल्म कांच की गुडि़या (1960) थी। उसके बाद उनकी दो और फिल्में पिया मिलन की आस और रेशमी रुमाल आई लेकिन उनकी पहली हिट फिल्म हरियाली और रास्ता (1962) थी।


उन्होंने वो कौन थी, हिमालय की गोद में, गुमनाम, दो बदन, पत्थर के सनम, यादगार, शोर, सन्यासी, दस नम्बरी और क्लर्क जैसी अच्छी फिल्मों में काम किया। उनकी आखिरी फिल्म मैदान ए जंग (1995) थी।
लछमन दास, लछमन देव या माधो दास भी कहलाते हैं (ज़ – 1670, रजौरी, भारत; मृ-जून 1716, दिल्ली ) भारत के मुग़ल शासकों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने वाले पहले सिक्ख सैन्य प्रमुख, जिन्होंने सिक्खों के राज्य का अस्थायी विस्तार भी किया।
==पुरस्कार==
युवावस्था में उन्होंने पहले समन (योगी) बनने का निश्चय किया और 1708 में गुरु गोबिंद सिंह का शिष्य बनने तक वह माधो दास के नाम से जाने जाते रहे। सिक्ख बिरादरी में शामिल होने के बाद उनका नाम बंदा सिंह बहादुर हो गया और वह लोकप्रिय तो नहीं, सम्मानित सेनानी अवश्य बन गए, उनके तटस्थ, ठंडे और अवैयक्तिक स्व्भाव ने उन्हें उनके लोगों के बीच लोकप्रिय नहीं बनने दिया।
मनोज कुमार को वर्ष 1972 में फिल्म बेईमान के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और वर्ष 1975 में रोटी कपड़ा और मकान के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेयर अवार्ड दिया गया था। बाद में वर्ष 1992 में उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया। फालके रत्न पुरस्कार के कारण मनोज कुमार एक बार फिर सुर्खियों में हैं। मनोज कुमार उर्फ भारत कुमार।
बंदा सिंह ने 1709 में मुग़लों पर हमला करके बहुत बड़े क्षेत्र पर क़ब्ज़ा कर लिया। दक्कन क्षेत्र में उनके द्वारा लूटमार और क़त्लेआम से मुग़लों को उन पर पूरी ताकत से हमला करना पड़ा। 1715 में आठ महीनों की घेरेबंदी के बाद मुग़लों ने क़िलेबंद शहर गुरुदास नांगल पर क़ब्ज़ा कर लिया। बंदा सिंह और उनके साथियों को कैद करके दिल्ली ले जाया गया, जहां जहां छह महीने तक हर दिन उनके कुछ लोगों को मौत की सज़ा दी जाती रही। जब उनकी बारी आई, तो बंदा सिंह ने मुसलमान न्यायाधीश से कहा कि उनका यही हाल होना था, क्योंकि अपने प्यारे गुरु गोबिंद सिंह की इच्छाओं को पूरा करने में वह नाक़ाम रहे। उन्हें लाल गर्म लोहे की छड़ों से यातना देकर मार डाला गया।


मनोज कुमार जाने जाते हैं अपनी देशभक्तिपूर्ण फिल्मों की वजह से। आप दिलीप कुमार का नाम लेंगे तो इसके साथ ही आपके जेहन में उनकी अभिनीत फिल्में और भूमिकाएँ एकाएक याद आ जाएँगी। इसी तरह से राज कपूर को भी याद किया जा सकता है। राज कपूर अपनी फिल्मों की कथावस्तु के कारण ही नहीं, अपनी फिल्मों के गीत-संगीत के कारण ही नहीं, बल्कि अपने एक निर्दोष, भोले और दिल को छू जाने वाली सहज आत्मीयता और मानवीयता के कारण याद आ जाते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण उनका अभिनय ही है। लेकिन यही बात मनोज कुमार के बारे में नहीं की जा सकती।


बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी


लोग उन्हें भूल चुके थे लेकिन शाहरुख खान की हिट फिल्म ओम शांति ओम की वजह से वे फिर से सुर्खियों में आ गए थे। कारण यह था कि इस फिल्म में उनका मजाक उड़ाया गया था। यह विवाद कुछ दिनों तक चला और शाहरुख खान तथा फराह खान ने इसके लिए स्पष्टीकरण दिया था कि उनकी यह मंशा कतई नहीं थी। फिर उस विवाद पर धूल चढ़ गई और लोग भूल गए।
ब्रिटिश अधिवक्ता एवं प्राच्यविद सर विलियम जोन्स द्वारा 15 जनवरी 1784 को प्राच्य विद्याध्ययन को प्रोत्साहन देने के लिये गठित सभा।
संस्थापना दिवस के उपलक्ष्य में जोन्स ने अपने प्रसिध्द अभिभाषणों की श्रृंखला का पहला भाषण दिया।
इस सभा को तत्कालीन बंगाल के प्रथम गवर्नर-जनरल ( 1772-95 ) वॉरेन हेस्टिग्ज़ का सहयोग और प्रोत्साहन मिला। जोन्स की मृत्यु ( 1794 ) तक यह सभा हिंदू संस्कृति तथा ज्ञान के महत्त्व व आर्य भाषाओं में संस्कृत की अहम भूमिका जैसे उनके विचारों की संवाहक थी।


फालके रत्न पुरस्कार के कारण मनोज कुमार एक बार फिर सुर्खियों में हैं। मनोज कुमार उर्फ भारत कुमार। अपनी फिल्मों में उन्होंने भारतीयता की खोज की। उन्होंने यह भी बताया कि देशप्रेम और देशभक्ति क्या होती है। उन्होंने आँसूतोड़ फिल्में बनाईं और मुनाफे से ज्यादा अपना नाम कमाया जिसके कारण वे भारत कुमार कहलाए।


यह किसी भी अभिनेता के लिए कितना दुर्भाग्यपूर्ण हो सकता है कि वह अपने अभिनय के कारण नहीं बल्कि अन्य कारणों से जाना जाए। मनोज कुमार ऐसे ही अभिनेता हैं जो अपनी देशभक्तिपूर्ण फिल्मों के कारण जाने जाते हैं, अपने अभिनय के कारण नहीं।
बरारी घाटी का युद्ध


दिलीप कुमार ट्रेजिडी किंग इसलिए कहलाए कि उन्होंने अपनी फिल्मों में एक उदास, दुःखी और हमेशा असफल, अवसाद से भरे प्रेमी की भूमिकाएँ की। एक बार हिंदी के ख्यात कवि विष्णु खरे ने उन्हें सन्नाटा बुनने वाला अभिनेता कहा था। यानी वे अपनी देहभाषा से, उठने-बैठने और देखने के खामोश तरीके से, अपने फेशियल एक्सप्रेशन से किसी खास मनःस्थिति को इतने भावपूर्ण ढंग से अभिव्यक्त करते थे कि संवाद की जरूरत नहीं थी। वे परदे पर अपनी खामोशी से ऐसा अभिनय करते थे कि सन्नाटा पसर जाता था जिसमें दर्शक एक प्रेमी के दुःख की तमाम आवाजें सुन लिया करते थे। अपने अभिनय कौशल और कल्पनाशीलता से, अपनी खास संवाद अदायगी से, अपनी आवाज के बेहतर इस्तेमाल से दिलीप कुमार से यह संभव कर दिखाया था।


लेकिन
(9 जन॰ 1760), भारतीय इतिहास में पतन की ओर अग्रसर मुग़ल साम्राज्य पर नियंत्रण के लिए मराठों पर की गई अफ़ग़ान विजयों में से एक, जिसने अंग्रजों को बंगाल में पैर जमाने का समय दे दिया। दिल्ली से 16 किमी उत्तर में यमुना नदी के बरारी घाट (नौका घाट ) पर पंजाब से अहमद शाह दुर्रानी की अफ़ग़ान सेना से पीछे हट रहे मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया पर ऊंचे उगे सरकंडों की आड़ में छिपे अफ़गान सिपाहियों ने नदी पार करके अचानक हमला कर दिया। दत्ताजी मारे गए और उनकी सेना तितर-बितर हो गई। उनकी पराजय से दिल्ली पर अफ़ग़ानों के अधिकार का मार्ग प्रशस्त हो गया।
मनोज कुमार का नाम लेंगे तो उनकी फिल्में याद आएँगी लेकिन उनके अभिनय के कारण नहीं, इसके कारण दूसरे होंगे। यानी मनोज कुमार अपने अभिनय के कारण नहीं बल्कि अपनी फिल्मों की कथावस्तु के कारण याद आते हैं। शहीद से लेकर उपकार तक, पूरब-पश्चिम से लेकर क्रांति तक।


फिर जब मैं मनोज कुमार को याद करता हूँ तो मुझे उनसे ज्यादा उनकी फिल्मों के दूसरे चरित्र ज्यादा याद आते हैं जो उनसे ज्यादा सशक्त दिखाई देते हैं। उनकी सबसे ज्यादा लोकप्रिय फिल्म उपकार का उदाहरण लीजिए। मैं जब भी उपकार को याद करता हूँ मुझे मनोज कुमार नहीं प्राण ज्यादा याद आते हैं। आप भी तुरंत याद कर सकते हैं। वह ईमानदार, भावुक, साहसी और अपंग चरित्र। यही अपंग चरित्र पूरी फिल्म में जेहन से अपंग लोगों को बताता है कि मानवीयता क्या होती है, मूल्य क्या होते हैं और रिश्तों का अर्थ क्या होता है?


इसी तरह से शोर में आपको मनोज कुमार से ज्यादा जया भादुड़ी का चरित्र याद आएगा। संन्यासी को याद करेंगे तो हेमा मालिनी या प्रेमनाथ याद आएँगे। पूरब-पश्चिम को याद करेंगे तो सायरा बानो याद आएँगी। रोटी कपड़ा मकान को याद करेंगे तो जीनत अमान याद आएँगी और क्रांति को याद करेंगे तो दिलीप कुमार याद आएँगे। मनोज कुमार शायद याद न आएँ।
बर्द्धमान ज़िला


मनोज कुमार याद क्यों नहीं आते, इसके कुछ और भी कारण हैं। जैसे उनकी फिल्मों का गीत-संगीत। आप उपकार की याद करिये तो मुझे मन्ना डे का वह कालजयी गाना याद आता है- कसमें वादे प्यार वफा सब, बातें हैं बातों का क्या... कितना ताकतवर बोल हैं, और कैसी कशिशभरी आवाज और क्या विरल धुन। और इसी फिल्म का वह गीत जो आजादी की हर वर्षगाँठ पर बजता है-मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती, मेरे देश की धरती। आपको महेंद्र कपूर याद आएँगे जो यह गाना गाकर हमेशा के लिए अमर हो गए।
बर्द्धमान ज़िला दो अलग क्षेत्रों में बंटा है। पूर्वी भाग एक निम्न जलोढ़ मैदान है, जो सघन जनसंख्यायुक्त और पानी से भरा व दलदली रहता है। पूर्व की प्रमुख फ़सलें चावल, मक्का, दलहन और तिलहन हैं। पश्चिमी क्षेत्र बंगाल के सर्वाधिक व्यस्त औधोगिक क्षेत्रों में से एक है, यहां रानीगंज के बढ़िया कोयला भंडार और पड़ोसी क्षेत्रों में कच्चा लोहा और दूसरे खनिज़ उपलब्ध हैं। दामोदर नदी तट पर विकसित दुर्गापुर और आसनसोल के औद्योगिक नगर व कुछ और नगर, जिन्हें सामुहिक तौर पर दुर्गापुर औद्योगिक पट्टी के नाम से जाना जाता है, कोलकाता के बाद बंगाल का सबसे महत्त्वपूर्ण औद्योगिक क्षेत्र हैं। इस ज़िले में बर्द्धमान विश्वविद्यालय से संबद्ध एक इंजीनियरिंग कॉलेज और अनेक महाविद्यालय हैं। दामोदर घाटी निगम सिंचाई, औद्योगिक क्षेत्रों में बिजली की आपूर्ति और बाढ़ नियंत्रण का काम करता है। पूर्व की प्रमुख फ़सलें चावल, मक्का, दलहन और तिलहन हैं। जनसंख्या (2001) शहर 2,85,871; ज़िला कुल 69,19,698।


फिर पूरब-पश्चिम का वह प्रेम गीत- कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे, तड़पता हुआ जब कोई छोड़ दे, तब तुम मेरे पास आना प्रिये, मेरा दर खुला है खुला ही रहेगा तुम्हारे लिए। आवाज है मुकेश की। एक दर्दीला गीत। जेहन में हमेशा ठहरा हुआ। और रोटी कपड़ा और मकान के गीत भी याद किए जा सकते हैं। हाय-हाय ये मजबूरी, ये मौसम और ये दूरी..., तेरी दो टकियों की नौकरी में मेरा लाखों का सावन जाए। और वह युगल गीत भी जिसके बोल हैं-मैं ना भूलूँगा, मैं ना भूलूँगी। इसके बाद शोर फिल्म को याद करिये। आपको याद आएँगे उसके बेहतरीन गीत। संतोष आनंद के लिखे गीत-एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है, जिंदगी और कुछ भी नहीं, तेरी-मेरी कहानी है। मनोजकुमार की फिल्मों के हिट गीतों की लंबी फेहरिस्त बनाई जा सकती है लेकिन उनकी लाजवाब भूमिकाओं की नहीं।


शायद इसीलिए मुझे मनोज कुमार याद नहीं आते। याद आते हैं तो सिर्फ इसलिए कि अभिनय के नाम पर वे अपना चेहरा छिपाते हैं।


भारतीय सिनेमा में देशभक्ति की कुछ सबसे बड़ी फ़िल्में बनाने वाले मनोज कुमार अब स्वंत्रतता सेनानी चंद्रशेखर आज़ाद पर फ़िल्म बनाने जा रहे हैं. फ़िलहाल वो इसकी पटकथा लिखने में व्यस्त हैं.
बरौनी


मनोज कुमार जिस अगली फ़िल्म का निर्देशन करने जा रहे हैं उसको उन्होंने नाम दिया है – आख़िरी गोली, द लास्ट बुलेट. बतौर निर्देशक उन्होंने अपनी अंतिम फ़िल्म ‘जय हिंद’ 1999 में बनाई थी.


उन्होंने बीबीसी को बताया कि आख़िरी गोली में प्रमुख किरदार चंद्रशेखर आज़ाद का होगा.


मनोज कुमार ने कहा, '' मैंने हाल ही में कहीं पढ़ा है कि कुछ पाठ्य पुस्तकों में चंद्रशेखर आज़ाद को आतंकवादी कहा गया है, मैं इस बात से बेहद दुखी हुआ.''
बसव


मनोज कुमार ने कहा कि वो अपनी फ़िल्म के लिए नए कलाकारों को ही लेंगे क्योंकि आजकल तो बड़े स्टार्स करोड़ों रुपए ले रहे हैं.
12वीं शताब्दी के धार्मिक सुधारक, उपदेशक, धर्म मीमांसक और चालुक्य राजा बिज्जला I (शासनकाल, 1156-67) के राजसी कोषागार के प्रबंधक, बसव हिंदू वीरशैव (लिंगायत) मत के पवित्र ग्रंथों में से एक, बसव पुराण के रचयिता हैं। परंपरा के अनुसार, वह वीरशैव के वास्तविक संस्थापक थे, परंतु चालुक्य अभिलेखों से पता चलता है कि उन्होंने वास्तव में पहले से मौजूद मत को पुनर्जीवित किया।
बसव ने वीरशैव संस्थाओं को सहायता देकर और वीरशैव मत की शिक्षा देकर प्रचार में सहायता दी थी। उनके चाचा प्रधानमंत्री थे और उन्होंने बसव को कोषागार प्रमुख के रूप में नियुक्त किया था। कई वर्ष तक उनके गुट को काफ़ी लोकप्रियता मिली, परंतु दरबार में अन्य गुट उनकी शक्तियों और उनकी शह में वीरशैल मत के प्रसार से क्षुब्ध थे। उनके द्वारा लगाए गए आरोपों के कारण वह राज्य छोड़ कर चले गए और शीघ्र ही उनकी मृत्यु हो गई। भगवान शिव की स्तुति में उनके रचित भजनों से उन्हें कन्नड़ साहित्य में प्रमुख स्थान तथा हिंदू भक्ति साहित्य में भी स्थान मिला।


शास्त्री पर फ़िल्म


वो पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की जीवन आधारित एक फ़िल्म की पटकथा भी लिख रहे हैं.
बाउल


मैंने हाल ही में कहीं पढ़ा है कि कुछ पाठ्य पुस्तकों में चंद्रशेखर आज़ाद को आतंकवादी कहा गया है, मैं इस बात से बेहद दुखी हुआ.
मनोज कुमार
मनोज कुमार ने बीबीसी को बताया कि लाल बहादुर शास्त्री के पुत्र अनिल और सुनील शास्त्री चाहते हैं कि वो ये कहानी लिखें.


मनोज कुमार ने कहा,'' मैंने आजतक आधिकारिक तौर किसी के लिए फ़िल्म नहीं लिखी. मुझे ये बात अच्छी लगी की निर्माता एक महान प्रधानमंत्री पर फ़िल्म बना रहे हैं. दूसरा शास्त्री परिवार से मेरा बिल्कुल पारिवारिक संबंध है.''
बंगाल के धार्मिक गायकों के एक संप्रदाय के सदस्य, जो अपने अपारंपरित व्यवहार तथा रहस्यात्मक गीतों की सहजता एवं उन्मुक्तता के लिए जाने जाते है। इनके हिंदू ( मूल रूप से वैष्णव ) और मुसलमान ( आमतौर पर सूफ़ी ), दोनों है। इनके गीत अक्सर मनुष्य एवं उसके भीतर बसे इष्टदेव के बीच प्रेम से संबंधित होते हैं। इस संप्रदाय के विकास के बारे में बहुत कम जानकारी है, क्योंकि इनके गीतों का संकलन एवं लेखन 20 वीं सदी में ही शुरू हुआ। रबींद्रनाथ ठाकुर उन कई बांग्ला लेखकों में से एक थे, जिन्होंने बाउल गीतों से प्रेरणा लिए जाने की बात स्वीकार की।


मनोज कुमार ने कुछ बड़ी और सुपरहिट फ़िल्में बनाईं हैं और उनमें ख़ुद अभिनय भी किया था.


उपकार, पूरब और पश्चिम और रोटी कपड़ा और मकान में उन्होंने निर्देशक और अभिनेता दोनों की भूमिका निभाई थी.
दास


दरअसल 1967 में आई ‘उपकार’ लाल बहादुर शास्त्री के प्रसिद्ध नारे ‘जय जवान जय किसान’ से प्रेरित फ़िल्म थी
 
 
दस्यु भी कहा जाता है, भारत में आदिम समुदाय के लोग, जिनका यहां आ कर बसने वाले आर्यों के साथ टकराव हुआ, 1500 ई॰पू॰ में आर्यों ने इनका काली चमड़ी वाले, कटु भाषी लोगों के रूप में वर्णन किया है, जो लिंग की पूजा करते थे। इस प्रकार कई विद्वानों की यह धारणा बनी कि हिंदुओं के धार्मिक प्रतीक लिंगम की पूजा की यहां से शुरुआत हुई, हांलांकि हो सकता है कि इसका संबंध उनकी यौन क्रियाओं से रहा हो। वे क़िलेबंद स्थानों पर रहते थे जहां से वे अपनी सेनाएं भेजते थे। वे संभवत: मूल शूद्र या श्रमिक रहे होंगे, जो तीनों उच्च वर्गों, ब्राह्मणों (पुरोहित), क्षत्रियों (योध्दाओं) और वैश्यों ( व्यापारियों) की सेवा करते थे और जिन्हें उनके धार्मिक अनुष्ठानों से अलग रखा गया था।

11:35, 14 मई 2013 के समय का अवतरण

बंदा सिहं बहादुर

लछमन दास, लछमन देव या माधो दास भी कहलाते हैं (ज़ – 1670, रजौरी, भारत; मृ-जून 1716, दिल्ली ) भारत के मुग़ल शासकों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने वाले पहले सिक्ख सैन्य प्रमुख, जिन्होंने सिक्खों के राज्य का अस्थायी विस्तार भी किया। युवावस्था में उन्होंने पहले समन (योगी) बनने का निश्चय किया और 1708 में गुरु गोबिंद सिंह का शिष्य बनने तक वह माधो दास के नाम से जाने जाते रहे। सिक्ख बिरादरी में शामिल होने के बाद उनका नाम बंदा सिंह बहादुर हो गया और वह लोकप्रिय तो नहीं, सम्मानित सेनानी अवश्य बन गए, उनके तटस्थ, ठंडे और अवैयक्तिक स्व्भाव ने उन्हें उनके लोगों के बीच लोकप्रिय नहीं बनने दिया। बंदा सिंह ने 1709 में मुग़लों पर हमला करके बहुत बड़े क्षेत्र पर क़ब्ज़ा कर लिया। दक्कन क्षेत्र में उनके द्वारा लूटमार और क़त्लेआम से मुग़लों को उन पर पूरी ताकत से हमला करना पड़ा। 1715 में आठ महीनों की घेरेबंदी के बाद मुग़लों ने क़िलेबंद शहर गुरुदास नांगल पर क़ब्ज़ा कर लिया। बंदा सिंह और उनके साथियों को कैद करके दिल्ली ले जाया गया, जहां जहां छह महीने तक हर दिन उनके कुछ लोगों को मौत की सज़ा दी जाती रही। जब उनकी बारी आई, तो बंदा सिंह ने मुसलमान न्यायाधीश से कहा कि उनका यही हाल होना था, क्योंकि अपने प्यारे गुरु गोबिंद सिंह की इच्छाओं को पूरा करने में वह नाक़ाम रहे। उन्हें लाल गर्म लोहे की छड़ों से यातना देकर मार डाला गया।


बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी

ब्रिटिश अधिवक्ता एवं प्राच्यविद सर विलियम जोन्स द्वारा 15 जनवरी 1784 को प्राच्य विद्याध्ययन को प्रोत्साहन देने के लिये गठित सभा। संस्थापना दिवस के उपलक्ष्य में जोन्स ने अपने प्रसिध्द अभिभाषणों की श्रृंखला का पहला भाषण दिया। इस सभा को तत्कालीन बंगाल के प्रथम गवर्नर-जनरल ( 1772-95 ) वॉरेन हेस्टिग्ज़ का सहयोग और प्रोत्साहन मिला। जोन्स की मृत्यु ( 1794 ) तक यह सभा हिंदू संस्कृति तथा ज्ञान के महत्त्व व आर्य भाषाओं में संस्कृत की अहम भूमिका जैसे उनके विचारों की संवाहक थी।


बरारी घाटी का युद्ध


(9 जन॰ 1760), भारतीय इतिहास में पतन की ओर अग्रसर मुग़ल साम्राज्य पर नियंत्रण के लिए मराठों पर की गई अफ़ग़ान विजयों में से एक, जिसने अंग्रजों को बंगाल में पैर जमाने का समय दे दिया। दिल्ली से 16 किमी उत्तर में यमुना नदी के बरारी घाट (नौका घाट ) पर पंजाब से अहमद शाह दुर्रानी की अफ़ग़ान सेना से पीछे हट रहे मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया पर ऊंचे उगे सरकंडों की आड़ में छिपे अफ़गान सिपाहियों ने नदी पार करके अचानक हमला कर दिया। दत्ताजी मारे गए और उनकी सेना तितर-बितर हो गई। उनकी पराजय से दिल्ली पर अफ़ग़ानों के अधिकार का मार्ग प्रशस्त हो गया।


बर्द्धमान ज़िला

बर्द्धमान ज़िला दो अलग क्षेत्रों में बंटा है। पूर्वी भाग एक निम्न जलोढ़ मैदान है, जो सघन जनसंख्यायुक्त और पानी से भरा व दलदली रहता है। पूर्व की प्रमुख फ़सलें चावल, मक्का, दलहन और तिलहन हैं। पश्चिमी क्षेत्र बंगाल के सर्वाधिक व्यस्त औधोगिक क्षेत्रों में से एक है, यहां रानीगंज के बढ़िया कोयला भंडार और पड़ोसी क्षेत्रों में कच्चा लोहा और दूसरे खनिज़ उपलब्ध हैं। दामोदर नदी तट पर विकसित दुर्गापुर और आसनसोल के औद्योगिक नगर व कुछ और नगर, जिन्हें सामुहिक तौर पर दुर्गापुर औद्योगिक पट्टी के नाम से जाना जाता है, कोलकाता के बाद बंगाल का सबसे महत्त्वपूर्ण औद्योगिक क्षेत्र हैं। इस ज़िले में बर्द्धमान विश्वविद्यालय से संबद्ध एक इंजीनियरिंग कॉलेज और अनेक महाविद्यालय हैं। दामोदर घाटी निगम सिंचाई, औद्योगिक क्षेत्रों में बिजली की आपूर्ति और बाढ़ नियंत्रण का काम करता है। पूर्व की प्रमुख फ़सलें चावल, मक्का, दलहन और तिलहन हैं। जनसंख्या (2001) शहर 2,85,871; ज़िला कुल 69,19,698।


बरौनी


बसव

12वीं शताब्दी के धार्मिक सुधारक, उपदेशक, धर्म मीमांसक और चालुक्य राजा बिज्जला I (शासनकाल, 1156-67) के राजसी कोषागार के प्रबंधक, बसव हिंदू वीरशैव (लिंगायत) मत के पवित्र ग्रंथों में से एक, बसव पुराण के रचयिता हैं। परंपरा के अनुसार, वह वीरशैव के वास्तविक संस्थापक थे, परंतु चालुक्य अभिलेखों से पता चलता है कि उन्होंने वास्तव में पहले से मौजूद मत को पुनर्जीवित किया। बसव ने वीरशैव संस्थाओं को सहायता देकर और वीरशैव मत की शिक्षा देकर प्रचार में सहायता दी थी। उनके चाचा प्रधानमंत्री थे और उन्होंने बसव को कोषागार प्रमुख के रूप में नियुक्त किया था। कई वर्ष तक उनके गुट को काफ़ी लोकप्रियता मिली, परंतु दरबार में अन्य गुट उनकी शक्तियों और उनकी शह में वीरशैल मत के प्रसार से क्षुब्ध थे। उनके द्वारा लगाए गए आरोपों के कारण वह राज्य छोड़ कर चले गए और शीघ्र ही उनकी मृत्यु हो गई। भगवान शिव की स्तुति में उनके रचित भजनों से उन्हें कन्नड़ साहित्य में प्रमुख स्थान तथा हिंदू भक्ति साहित्य में भी स्थान मिला।


बाउल


बंगाल के धार्मिक गायकों के एक संप्रदाय के सदस्य, जो अपने अपारंपरित व्यवहार तथा रहस्यात्मक गीतों की सहजता एवं उन्मुक्तता के लिए जाने जाते है। इनके हिंदू ( मूल रूप से वैष्णव ) और मुसलमान ( आमतौर पर सूफ़ी ), दोनों है। इनके गीत अक्सर मनुष्य एवं उसके भीतर बसे इष्टदेव के बीच प्रेम से संबंधित होते हैं। इस संप्रदाय के विकास के बारे में बहुत कम जानकारी है, क्योंकि इनके गीतों का संकलन एवं लेखन 20 वीं सदी में ही शुरू हुआ। रबींद्रनाथ ठाकुर उन कई बांग्ला लेखकों में से एक थे, जिन्होंने बाउल गीतों से प्रेरणा लिए जाने की बात स्वीकार की।


दास


दस्यु भी कहा जाता है, भारत में आदिम समुदाय के लोग, जिनका यहां आ कर बसने वाले आर्यों के साथ टकराव हुआ, 1500 ई॰पू॰ में आर्यों ने इनका काली चमड़ी वाले, कटु भाषी लोगों के रूप में वर्णन किया है, जो लिंग की पूजा करते थे। इस प्रकार कई विद्वानों की यह धारणा बनी कि हिंदुओं के धार्मिक प्रतीक लिंगम की पूजा की यहां से शुरुआत हुई, हांलांकि हो सकता है कि इसका संबंध उनकी यौन क्रियाओं से रहा हो। वे क़िलेबंद स्थानों पर रहते थे जहां से वे अपनी सेनाएं भेजते थे। वे संभवत: मूल शूद्र या श्रमिक रहे होंगे, जो तीनों उच्च वर्गों, ब्राह्मणों (पुरोहित), क्षत्रियों (योध्दाओं) और वैश्यों ( व्यापारियों) की सेवा करते थे और जिन्हें उनके धार्मिक अनुष्ठानों से अलग रखा गया था।