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| [[चित्र:Kavitawali.JPG|right|thumb|250px|कवितावली]] | | #REDIRECT [[कवितावली -तुलसीदास]] |
| ''''कवितावली'''' [[गोस्वामी तुलसीदास]] की प्रमुख रचनाओं में है। 16वीं [[शताब्दी]] में रची गयी कवितावली में [[राम|श्री रामचन्द्र जी]] के इतिहास का वर्णन कवित्त, [[चौपाई]], [[सवैया]] आदि [[छंद|छंदों]] में की गई है।
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| ==बाल काण्ड ==
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| ऊँ श्रीसीतारामाभ्यां नमः
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| रेफ आत्मचिन्मय अकल, परब्रह्म पररूप।
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| हरि-हर- अज- वन्दित-चरन, अगुण अनीह अनूप।1।
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| बालकेलि दशरथ -अजिर, करत से फिरत सभाय।
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| पदनखेन्दु तेहि ध्यान धरि विरवत तिलक बनाय।2।
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| अनिल सुवन पदपद्यम्रज, प्रेमसहित शिर धार।
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| इन्द्रदेव टीका रचत, कवितावली उदार।3।
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| बन्दौं श्रीतुलसीचरन नख, अनूप दुतिमाल।
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| कवितावलि-टीका लसै कवितावलि-वरभाल।4।
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| ==बालरूप की झाँकी==
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| (बालरूप की झाँकी)
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| श्री अवधेसके द्वारें सकारें गई सुत गोद कै भूपति लै निकसे।
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| अवलोकि हौं सोच बिमोचनको ठगि-सी रही, जे न ठगे धिक-से।।
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| तुलसी मन-रंजन रंजित-अंजन नैन सुखंजन-जातक-से।।
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| सजनी ससिमें समसील उभै नवनील सरोरूह -से बिकसे।1।
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| पग नूपुर औ पहुँची करकंजनि मंजु बनी मनिमाल हिएँ।
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| नवनीत कलेवर पीत झँगा झलकै पुलकैं नृपु गोद लिएँ।
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| अरबिंदु से आननु रूप मरंदु अनंदित लोचन -भृंग पिएँ।
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| मनमो न बस्यौ अस बालकु जौं तुलसी जगमें फलु कौन जिएँ।2।
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| तनकी दुति स्याम सरोरूह लोचन कंजकी मंजुलताई हरैं।
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| अति सुंदर सोहत धूरि भरे छबि भूरि अनंगकी दुरि धरैं।
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| दमकैं दँतियाँ दुति दामिनि-ज्यों किलकैं कल बाल-बिनोद करैं।
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| अवधेस के बालक चारि सदा तुलसी-मन -मंदिर में बिहरैं।3।
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| ==बाललीला==
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| कबहूँ ससि मागत आरि करैं कबहूँ प्रतिबिंब निहारि डरैं।
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| कबहूँ करताल बजाइकै नाचत मातु सबै मन मोद भरैं।
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| कबहूँ रिसिआइ कहैं हठिकै पुनि लेत सोई जेहि लागि अरैं।
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| अवधेस के बालक चारि सदा तुलसी-मन -मंदिरमें बिहरैं।4।
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| बर दंतकी पंगति कुंदकली अधराधर-पल्लव खेलनकी।
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| चपला चमकैं घन बीच जगैं छबि मोतिन माल अमोलनकी।।
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| घुँघरारि लटैं लटकैं मुख ऊपर कुंडल लोल कपोलनकी।
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| नेवछावरि प्रान करैं तुलसी बलि जाउँ लला इन बोलनकी।5।
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| पदकंजनि मंजु बनीं पनहीं धनुहीं सर पंकज-पानि लिएँ।
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| लरिका सँग खेलत डोलत हैं सरजू-तट चौहट हाट हिएँ।
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| तुलसी अस बालक सों नहिं नेहु कहा जप जाग समाधि किएँ।
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| नर वे खर सूकर स्वान समान कहै जगमें फलु कौन जिएँ।6।
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| सरजू बर तीरहिं तीर फिरैं रघुबीर सखा अरू बीर सबै।
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| धनुही कर तीर , निषंग कसें कटि पीत दुकूल नवीन फबै।
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| तुलसी तेहि औसर लावनिता दस चारि नौ तीन दकीस सबै।
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| मति भारति पंगु भई जो निहारि बिचारि फिरी न पबै।7।
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| ==धनुर्यज्ञ==
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| छोनीमेंके छोनीपति छाजै जिन्हैं छत्रछाया,
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| छोनी -छोनी छाए छिति आए निमिराज के।
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| प्रबल प्रचंड बरिबंड बर बेष बपु ,
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| बरिबेकों बोले बैदेही बर काजके।।
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| बोले बंदी बिरूद बजाइ बर बजानेऊ,
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| बाजे-बाजे बीर बाहु धुनत समाजके।
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| तुलसी पुदित मन पुर नर-नारि जेते,
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| बार बार हेरैं मुख औध-मृगराजके।8।
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| सियकें स्वयंबर समाजु जहाँ राजनिको,
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| राजनके राजा महाराजा जानै नाम को।
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| पवनु, पुरंदरू, कुसानु, भानु, धनदु-से,
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| गुनके निधान रूपधाम सोमु कामु को।।
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| बाल बलवान जातुधानप सरीखे सूर
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| जिन्हकें गुमान सदा सालिम संग्रामको।
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| तहाँ दसरत्थकें समत्थ नाथ तुलसीके,
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| चपरि चढ़ायौ चापु चंद्रमाललाम को।9।
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| महामहनु पुरदहनु गहन जानि
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| आनिकै सबैक सारू धनुष गढ़ायो है।
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| जनकसदसि जेते भले-भले भूमिपाल
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| किये बलहीन , बलु आपनो बढ़ायो है।
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| कुलिस-कठोर कूर्मपीठतें कठिन अति
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| हठि न पिनाकु काहूँ चपरि चढ़ायो है।
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| तुलसी सो रामके सरोज-पानि परसत ही
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| टूट्यो माने बारे ते पुरारि ही पढ़ायो है।10।
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| डिगति उर्वि अति गुर्वि सर्ब पब्बै समुद्र-सर।
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| ब्याल बधिर तेहि काल, बिकल दिगपाल चराचर।।
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| दिग्गयंद लरखरत परत दसकंधु मुकख भर।
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| सुर -बिमान हिमभानु भानु संघटत परसपर।।
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| चौंके बिरंचि संकर सहित, कोलु कमठु अहि कलमल्यौ।
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| ब्रह्मंड खंड कियो चंड धुनि जबहिं राम सिवधनु दलयौ। ।11।
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| लोचनाभिराम धनस्याम रामरूप सिसु,
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| सखी कहै सखीसों तूँ प्रेमपय पालि, री।
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| बालक नृपालजूकें ख्याल कही पिनाकु तोर्यो,
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| मंडलीक-मंडली-प्रताप-दासु दालि री।
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| जनकको, सियाको, हमारो, तेरे, तुलसी के,
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| सबको भावतो ह्वैहै, मैं जो कह्यो कालि, री।।
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| कौसिलाकी कोखिपर तोषि तन वारिये, री।
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| राय दशरत्थकी बलैया लीजै आलि री।12।
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| दूब दधि रोचनु कनक थार भरि भरि
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| आरति सँवारि बर नारि चलीं गावतीं।
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| लीन्हें जयमाल करकंज सोहैं जानकीके
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| पहिरसवो राधोजूको सखियाँ सिखावतीं।।
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| तुलसी मुदित मन जनकनगर-जन
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| झाँकतीं झरोखं लागीं सोभा रानीं पावतीं।
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| मनहुँ चकोरी चारू बैठीं निज नीड
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| चंदकी किरिन पीवैं पलकौ न लावतीं।13।
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| नगर निसान बर बाजैं ब्योम दुंदुभीं
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| बिमान चढ़ि गान कैके सुरनारि नाचहीं।
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| जयति जय तिहुँ पुर जयमाल राम उर
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| बरषैं सुमन सुर रूरे रूप राचहीं।
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| जनकको पनु जयो, सबको भावतो भयो
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| तुलसी मुदित रोम-रोम मोद माचहीं।
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| सावँरो किसोर गोरी सोभापर तृन तोरी
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| जोरी जिये जुग जुग जुवती-जन जाचहीं।14।
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| भले भूप कहत भलें भदेस भूपनि सों
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| लोक लखि बोलिये पुनीत रीति मारिषी।
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| जगदंबा जानकी जगतपितु रामचंद्र,
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| जानि जियँ जोहौ जो न लागै मुँह कारिखी।।
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| देखे हैं अनेक ब्याह, सुने हैं पुरान बेद
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| बूझे हैं सुजान साधु नर-नारि पारिखीं।
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| ऐसे सम समधी समाज न बिराजमान,
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| रामु -से न बर दुलही न सिय-सारिखी।15।
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| बानी बिधि गौरी हर सेसहूँ गनेस कही,
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| सही भरी लोमस भुसुंडि बहुबारिषो।
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| चारिदस भुवन निहारि नर-नारि सब
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| नारदसों परदा न नारदु सो पारिखो।
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| तिन्ह कही जगमें जगमगति जोरी एक
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| दूजो को कहैया औ सुनैया चष चारिखो।
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| रमा रमारमन सुजान हनुमान कही
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| सीय-सी न तीय न पुरूष राम-सरीखो।16।
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| दूलह श्री रधुनाथु बने दुलहीं सिय सुंदर मंदिर माहीं।
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| गावति गीत सबै मिलि सुंदरि बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं।।
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| रामको रूप निहारति जानकी कंकनके नगकी परछाहीं।
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| यातें सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही, पलकें टारत नाहीं।17।
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| ==परशुराम-लक्ष्मण-संवाद==
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| भूपमंडली प्रचंड चंडीस-कोदंडु खंड्यौ,
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| चंड बाहुदंडु जाके ताहीसों कहतु हौं।
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| कठिन कुठार-धार धरिबेको धीर ताहि,
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| बीरता बिदित ताको देखिये चहतु हौं।
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| तुलसी समाजु राज तजि सो बिराजै आजु,
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| गाज्यौ मृगराजु गजराजु ज्यों गहतु हौं।।
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| छोनीमें न छाड्यो छप्यो छोनिपको छोना छोटो,
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| छोनिप छपन बाँको बिरूद बहतु हौं।18।
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| निपट निदरि बोले बचन कुठारपानि,
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| मानी त्रास औनिपनि मानो मौनता गही।
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| रोष माखे लखनु अकनि अनखोही बातैं,
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| तुलसी बिनीत बानी बिहसि ऐसी कही।।
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| सुजस तिहारें भरे भुअन भृगुतिलक,
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| प्रगट प्रतापु आपु कह्यो से सबै सही।।
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| टूट्यौ सो न जुरैगो सरासनु महेसजूको,
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| रावरी पिनाकमें सरीकता कहाँ रही।19।
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| गर्भ के अगर्भ काटनको पटु धार कुठारू कराल है जाको।
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| सोई हौं बूझत राजसभा ‘धनु को दल्यौ’ हौं दलिहौं बलु ताको।
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| लघु आनन उत्तर देत बड़े लरिहै मरिहैं करिहैं कछु साको।
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| गोरो गरूर गुमान भर्यौ कहै कौसिक छोटो-से ढोटो है काको।20।
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| मनु राखिबेके काज राजा मेरे संग दए,
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| दले जातुधान जे जितैया बिबुधेसके।
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| गौतमकी तीय तारी, मेटे अघ भूरि भार,
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| लोचन-अतिथि भए जनक जनेसके।।
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| चंड बाहुदंड-बल चंडीस-कोदंडु खंड्यौ,
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| ब्याही जानकी, जीते नरेस देस-देसके।
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| साँवरे -गोरे सरीर धीर महाबीर दोऊ,
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| नाम रामु लखनु कुमार कोसलेसके।21।
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| काल कराल नृपालन्हके धनुभंगु सुनै फरसा लिएँ धाए।
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| लक्खनु रामु बिलोकि सप्रेम महारिसतें फिरि आँखि दिखाए।
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| धीरसिरोमनि बीर बड़े बिनयी बिजयी रघुनाथु सुहाए।
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| लायक हे भृगुनायकु, से धनु-सायक सौंपि सुभायँ सिधाए।।22।।
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| ( इति बालकाण्ड)
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| </poem>
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| {{seealso|कवितावली -तुलसीदास}}
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| {{लेख प्रगति|आधार= |प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक=|पूर्णता=|शोध=}}
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| ==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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| <references/>
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| ==बाहरी कड़ियाँ==
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| ==संबंधित लेख==
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| {{तुलसीदास की रचनाएँ}}
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| [[Category:साहित्य_कोश]]
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| [[Category:सगुण भक्ति]]
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| [[Category:पद्य साहित्य]]
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| [[Category:तुलसीदास]]
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