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{{सूचना बक्सा साहित्यकार
#REDIRECT [[मजाज़]]
|चित्र=Majaz.jpg
|चित्र का नाम=असरारुल हक़ मजाज़
|पूरा नाम=असरारुल हक़ मजाज़
|अन्य नाम= मजाज़ लखनवी
|जन्म=[[19 अक्तूबर]], [[1911]]
|जन्म भूमि=[[बाराबंकी]], [[उत्तर प्रदेश]]
|मृत्यु=[[5 दिसम्बर]], [[1955]]
|मृत्यु स्थान=
|अविभावक=चौधरी सिराज उल हक़ (पिता)
|पालक माता-पिता=
|पति/पत्नी=
|संतान=
|कर्म भूमि=
|कर्म-क्षेत्र=उर्दू शायर, वैचारिक लेखन
|मुख्य रचनाएँ=
|विषय=
|भाषा=[[उर्दू]], [[अरबी भाषा|अरबी]], [[हिंदी]]
|विद्यालय=
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|नागरिकता=भारतीय
|संबंधित लेख=
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|पाठ 1=
|अन्य जानकारी=असरारुल हक़ मजाज़ का शुमार [[एशिया]] के महानतम कवियों में किया जाता है। असरारुल हक़ मजाज़ की शायरी का अनुवाद [[हिंदी]], रूसी, [[अंग्रेज़ी]] आदि कई भाषाओं में हो चुका है।
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}
'''असरारुल हक़ मजाज़''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Asarar Ul Huq Majaaj'', जन्म: [[19 अक्तूबर]], [[1911]] – मृत्यु:[[5 दिसम्बर]], [[1955]] प्रसिद्ध [[शायर]] थे जिनका जन्म [[19 अक्तूबर]], [[1911]] को [[उत्तर प्रदेश]] के [[बाराबंकी]] जिले के रूदौली गांव में हुआ था। ये मजाज़ लखनवी के नाम अधिक प्रसिद्ध हैं।
==जीवन परिचय==
इनके वालिद का नाम चौधरी सिराज उल हक़ था। चौधरी सिराज उल हक़ अपने इलाके में पहले आदमी थे, जिन्होंने वकालत की डिग्री हासिल की थी। वे रजिस्ट्री विभाग में सरकारी मुलाजिम थे। वालिद चाहते थे कि उनका बेटा इन्जीनियर बने। इस हसरत से उन्होंने अपने बेटे असरार का दाखिला आगरा के सेण्ट जांस कालेज में इण्टर साइन्स में कराया। यह बात कोई 1929 की है। मगर असरार की लकीरों में तो शायद कुछ और ही लिखा था। आगरा में उन्हें फानी, जज्बी, मैकश अकबराबादी जैसे लोगों की सोहबत मिली। इस सोहबत का असर यह हुआ कि उनका रूझान बजाय इन्जीनियर बनने के गज़ल लिखने की तरफ हो गया। ‘असरार’ नाम के साथ ‘शहीद’ तख़ल्लुस जुड गया। कहा जाता है कि मजाज़ की शुरूआती ग़ज़लों को फानी ने इस्लाह किया। यह अलग बात है कि मजाज़ ने उनसे इस्लाह तो कराया, परन्तु उनकी ग़ज़लों का प्रभाव अपने ऊपर नहीं पडने दिया। यहाँ उन्होने गज़लगोई की बारीकियों और अरूज़ (व्याकरण) को सीखा । इस दौरान उनमें दार्शनिकता का पुट भी आया, जिसका उनमें अभाव था। बाद में मजाज़ लगातार निखरते गए।
==जीवन का निर्णायक मोड़==
[[आगरा]] के बाद वे [[1931]] में बी.ए. करने [[अलीगढ़]] चले गए। अलीगढ़ का यह दौर उनके जीवन का निर्णायक मोड़ साबित हुआ। इस शहर में उनका राब्ता मंटो, [[इस्मत चुगताई]], अली सरदार ज़ाफरी, सिब्ते हसन, जाँ निसार अख़्तर जैसे नामचीन शायरों से हुआ। इनकी सोहबत ने मजाज़ के कलम को और भी कशिश और वुसअत बख्शी। यहां उन्होंने अपना तखल्लुस ‘मजाज़’ अपनाया। इसके बाद मजाज़ गज़ल की दुनिया में बड़ा सितारा बनकर उभरे और उर्दू अदब के फलक पर छा गये। अलीगढ़ में मजाज़ की आत्मा बसती थी। कहा जाता है कि मजाज़ और अलीगढ़ दोनों एक दूसरे के पूरक थे। एक दूसरे के लिए बने थे। अपने स्कूली जीवन में ही मजाज़ अपनी शायरी और अपने व्यक्तित्व को लेकर इतने मकबूल हो गए थे कि हॉस्टल की लड़कियां मजाज़ के गीत गाया करती थीं और उनके साथ अपने सपने बुना करती थीं। अलीगढ़ की नुमाईश, यूनीवर्सिटी, वहां की रंगीनियों आदि को लेकर मजाज़ ने काफी लिखा-पढ़ा। मजाज़ की शायरी के दो रंग है-पहले रंग में वे इश्किया गज़लकार नजर आते हैं वहीं दूसरा रंग उनके इन्कलाब़ी शायर होने का मुज़ाहिरा करता है। अलीगढ़ में ही उनके कृतित्व को एक नया विस्तार मिला। वे प्रगतिशील लेखक समुदाय से जुड़ गये। ‘मजदूरों का गीत’ हो या ‘इंकलाब जिंदाबाद’, मजाज ने अपनी बात बहुत प्रभावशाली तरीके से कही।[[चित्र:Majaz-stamp.jpg|thumb|left|सम्मान में जारी [[डाक  टिकट]]]]
==तरक्कीपसन्द शायर==
अलीगढ़ का दौर उनकी जिन्दगी को नया मोड़ देने वाला रहा। आगरा में जहां वे इश्किया शायरी तक सीमित थे, अलीगढ़ में उस शायरी को नया आयाम मिला। आगरा से अलीगढ़ तक आते आते शबाब, इन्कलाब में तब्दील हो गया। 1930-40 का अन्तराल देश दुनिया में बड़ी तब्दीलियों का दौर था। राष्ट्रीय आंदोलन में प्रगतिशीलता का मोड़ आ चुका था। साहित्यकारों की बड़ी फौज़ इन्कलाब के गीत गा रही थीं। अलीगढ़ इससे अछूता कैसे रह सकता था। अलीगढ़ में भी इन विचारों का दौर आ चुका था। तरक्कीपसंद कहे जाने वाले तमाम कवि-लेखकों का अलीगढ़ आना-जाना हो रहा था। डॉ. अशरफ यूरोप से लौट आए थे, अख्तर हुसैन रामपुरी बी.ए. करने बाद आफ़ताब हॉस्टल में रह रहे थे । सब्त हसन भी अलीगढ़ में ही थे। सज्जाद जहीर ऑक्सफोर्ड में बहुत दिनों तक रहने के बाद अलीगढ़ आ गये थे। अंगे्रजी हुकूमत के दौरान कई तरक्कीपसन्द कही जाने वाली पत्र पत्रिकाएं प्रकाशित होकर ’जब्त ’ हो रही थीं, जाहिर है कि इन घटनाओं का असर मजाज़ और उनकी शायरी पर पडना लाजिमी थी। डॉ. अशरफ, अख्तर रायपुरी, सबत हसन, सरदार जाफरी, जज्बी और ऐसे दूसरे समाजवादी साथियों की सोहबत में मजाज भी तरक्की पसंद तथा इंकलाबी शायरों की सोहबत में शामिल हो गये। ऐसे माहौल में मजाज ने ’इंकलाब’ जैसी नज्म बुनी। इसके बाद उन्होंने रात और रेल, नजर, अलीगढ, नजर खालिदा, अंधेरी रात का मुसाफिर ,सरमायादारी, जैसे रचनाएं उर्दू अदबी दुनिया को दीं। मजाज़ अब बहुत मकबूल हो चुके थे। [[1935]] में वे आल इण्डिया रेडियो की [[पत्रिका]] ‘आवाज’ के सहायक संपादक हो कर मजाज़ [[दिल्ली]] आ गये। दिल्ली में नाकाम इश्क ने उन्हें ऐसे दर्द दिये कि जो मजाज़ को ताउम्र सालते रहे। यह पत्रिका बमुश्किल एक साल ही चल सकी, सो वे वापस लखनऊ आ गए। [[1939]] में सिब्ते हसन ,सरदार जाफरी और मजाज़ ने मिलकर ’नया अदब’ का सम्पादन किया जो आर्थिक कठिनाईयों की वजह से ज्यादा दिन तक नहीं चल सका।  इश्क में नाकामी से मजाज़ ने शराब पीना शुरू कर दिया। शराब की लत इस कदर बढ़ी कि लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि मजाज़ शराब को नहीं, शराब मजाज़ को पी रही है। दिल्ली से विदा होते वक्त उन्होंने कहा-
<blockquote>रूख्सत ए दिल्ली! तेरी महफिल से अब जाता हूं मैं
नौहागर जाता हूं मैं नाला-ब-लब जाता हूं मैं</blockquote>
==निधन==
[[5 दिसम्बर]] [[1955]] को [[लखनऊ]] में हुआ।
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
==बाहरी कड़ियाँ==
==संबंधित लेख==
{{उर्दू शायर}}
[[Category:उर्दू शायर]]
[[Category:कवि]][[Category:साहित्य कोश]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]] [[Category:चरित कोश]] [[Category:जीवनी साहित्य]]
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07:55, 26 नवम्बर 2013 के समय का अवतरण

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