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'''पृथ्वीराज विजय''' एक प्राचीन [[संस्कृत]] ग्रंथ है। [[वर्ष]] 1191-93 ई. के बीच इस [[ग्रंथ]] की रचना कश्मीरी पण्डित 'जयानक' ने की। इस ग्रंथ के माध्यम से [[पृथ्वीराज तृतीय]] के विषय में जानकारी मिलती है। | |||
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13:59, 21 अप्रैल 2014 के समय का अवतरण
पृथ्वीराज विजय एक प्राचीन संस्कृत ग्रंथ है। वर्ष 1191-93 ई. के बीच इस ग्रंथ की रचना कश्मीरी पण्डित 'जयानक' ने की। इस ग्रंथ के माध्यम से पृथ्वीराज तृतीय के विषय में जानकारी मिलती है।
- इस पुस्तक की रचना संस्कृत के कवि जयानक ने 12वीं शताब्दी के आसपास की थी। इसकी विषय साम्रग्री ऐतिहासिक है।
- 'पृथ्वीराज विजय' में अलंकारों व उपमाओं की भरमार है। इसमें चौहान राजाओं के वंशक्रम का वर्णन किया गया है। यह उस समय की धार्मिक एवं सामाजिक स्थिति का बोध कराता है।
- सम्राट पृथ्वीराज चौहान के समकालीन कवि जयानक ने 'पृथ्वीराज विजय' नामक संस्कृत ग्रंथ में अजमेर नगर के सौंदर्य और वैभव का सुंदर वर्णन किया है।
- यह ग्रंथ पृथ्वीराज की मुहम्मद ग़ोरी से हुई युद्ध विजय के बाद लिखा गया था।
- महाकवि जयानक ने लिखा है- "अजमेर में बहुत से देवी-देवताओं के मंदिर हैं। अतः इसे देवी-देवताओं का स्थान कहा जाए तो अनुचित नहीं है। स्थान-स्थान पर हवन होते रहते हैं, जिससे पर्याप्त वर्षा होती है।"
- 'पृथ्वीराज विजय' के लेखक जयानक के अनुसार पृथ्वीराज चैहान ने जीवन पर्यन्त युद्धों के वातावरण में रहते हुए भी चैहान राज्य को साहित्य और सांस्कृतिक क्षेत्र में पुष्ट किया। तराइन के द्वितीय युद्ध के पश्चात् भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ आया। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं था कि इस युद्ध के बाद चैहानों की शक्ति समाप्त हो गई। लगभग आगामी एक शताब्दी तक चैहानों की शाखाएँ रणथम्भौर, जालौर, हाड़ौती, नाड़ौल तथा चन्द्रावती और आबू में शासन करती रहीं। और राजपूत शक्ति की धुरी बनी रहीं। इन्होंने दिल्ली सुल्तानों की सत्ता का समय-समय पर मुकाबला कर शौर्य और अदम्य साहस का परिचय दिया।"
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