"भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-3": अवतरणों में अंतर

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1. ईश्वर-प्रार्थना

1. व्येयं सदा परिभवध्नमभीष्टदोहं
तीर्थास्पदं शिव-विरिंचि-तुतं शरण्यम्।
भृत्यार्तिहं प्रणतपाल! भवाब्धिपोतं
वंदे महापुरुष! ते चरणारविंदम्।।
अर्थः
हे शरणागत-रक्षक पुरुषोत्तम! तुम्हारे चरण-कमलों की मैं वंदना करता हूँ। जो सर्वदा ध्यान करने योग्य, अवनतिनाशक और अभीष्ट दायक हैं। जो तीर्थों के स्थानरूप, ब्रह्मा, महेश आदि से स्तुत और शरण जाने योग्य हैं; भक्तों के दुःखों को हरण करने वाले और भवसागर पार करने के लिए नौकारूप हैं।
 
2. नताः स्म ते नाथ! पदारविंदं
बुद्धोद्रिय-प्राण-मनो-वचोभिः।
यत् चिंत्यतेऽतर्हृदि भावयुक्तैर्
मुमुक्षुभिः कर्ममयोरुपाशात्।।
अर्थः
हे नाथ! तुम्हारे चरण-कमल को बुद्धि, इंद्रिय, प्राण, मन और वाणी सहित हम लोग नमस्कार करते हैं। कर्मरूप सुदृढ़ पाशों से छुटकारा पाने के इच्छुक भक्तजन भक्तिभाव से अपने हृदय में जिसका चिंतन करते हैं।
 
3. त्वं मायया त्रिगुणयाऽऽत्मनि दुर्विभाव्यं
व्यंक्तं सृजस्यदसि लुंपसि तद्गुणस्यः।
नैतैर् भवान् अजित! कर्मबिरज्यते वै
यत् स्वे सुखेऽव्यवहितेऽभिरतोऽनवद्यः।।
अर्थः
तू माया के ( रज आदि ) गुणों में स्थित होकर उस त्रिगुणमयी माया द्वारा स्व-स्वरूप में यह अचिंत्य, नामरूपात्मक व्यक्त जगत् उत्पन्न करता है,क उसका पालन करता है और उसे नष्ट कर देता है। फिर भी हे अजेय परमेश्वर! सचमुच तुझे इन कर्मों के लेप नहीं लगता। कारण तू निर्मल है और अखंड आत्मसुख में रंग गया है।
 
4. शुद्धिर् नृणां न तु तथेड्य! दुराशयानां
विद्याश्रुताध्ययनदानतपः क्रियाभिः।
सत्वात्मनां ऋषभ! ते यशसि प्रवृद्ध
सत्-श्रद्धया श्रवण-संभृतया यथा स्यात्।।
अर्थः
हे सात्विक-श्रेष्ठ, हे स्तवनीय! तेरे यश के बार-बार श्रवण से बढ़ने वाली सात्विक श्रद्धा से दूषित हृदय मानवों की जैसी शुद्धि होगी, वैसी शुद्धि विद्यास वेदाध्ययन, दान, तप आदि कर्मों से नहीं होगी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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