"भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-130": अवतरणों में अंतर
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भागवत धर्म मिमांसा
7. वेद-तात्पर्य
साहित्य की भाषाएँ तो पाँच-छह सौ साल पहले बनी हैं। उसके पहले भी प्राकृत भाषा थी। मैं इस पर सोचता हूँ, तो लगता है कि ‘कर्म’ शब्द से प्राकृत ‘कम्म’ शब्द बना। फिर उस पर से मराठी ‘काम’ शब्द बना। ‘हस्त’ पर से प्राकृत ‘हथ्थ’ बना। उसी पर से हिन्दी में ‘हाथ’ और मराठी में ‘हात’ बना। उसी पर से अंग्रेजी ‘हैण्ड’ बना होगा। लेकिन सवाल आता है कि ‘हस्त’ का ‘हत्थ’ कैसे बना? मूल शब्द ‘हस्त’ है, तो माता-पिता अपने बच्चे को वही शब्द सिखायेंगे। बच्चा ‘हथ्थ’ कहेगा, तो मता-पिता सहन कैसे करेंगे? वैसे ही ‘कर्म’ का ‘कम्म’ कैसे बना? और फिर ‘कम्म’ का ‘काम’ कैसे बना? यी बीच में अनेक पीढ़ियाँ हुई होंगी। अनेक ‘माइग्रेशन’ (प्रवजन) हुए होंगे। बदले हुए स्थानों का उच्चारण पर प्रभाव पड़ा होगा। इसलिए इसमें ‘माइग्रेशन’ की ‘थिअरी’ (सिद्धान्त) आती है। एक ही माता-पिता के बच्चे अलग-अलग हजारों मील दूरी पर चले गये, इसलिए वाणी में फरक पड़ा, ऐसी कल्पा करनी पड़ती है। यदि एक ही जगह होते, तो फरक पड़ना संभव नहीं दीखता। कोई कहते हैं कि ‘वेद पाँच हजार साल पुराना है।’ लेकिन मैं कहता हूँ कि लाखों साल पुराना हो सकता है। बहुत-से ‘माइग्रेशन’ के बिना शब्दों का अपभ्रंश होना संभव नहीं दीखता। इसलिए सारा इतिहास शब्दों से ही निकालना पड़ता है। फिर सवाल आता है कि मूल में शब्द बना कैसे? एक कौआ ‘काँव्-काँव्’ करता है, तो सारे कौए एकदम इकट्ठे होते हैं। किसलिए? एक बैल मरा पड़ा दीखा, तो कौए ने अपने साथियों को बुलाया। कौआ समाज-परायण होता है। खतरा होता है, तो भी वही ‘काँव्-काँव्’ बोला जात है। तब सारे कौए भाग जाते हैं। लेकिन दोनों समय के ‘काँव्-काँव्’ में फरक होता है। एक में आनन्द होता है, तो दूसरे में डर। प्रीति, भय, आनन्द, अनेक प्रकार की भावनाएँ एक ही ‘काँव्-काँव्’ से प्रकट होती हैं। इसलिए आरम्भ में क्रिया देखकर शब्द बनाया होगा, ऐसा लगता है। संस्कृत में प्रत्येक शब्द धातुमूलक है। ऐसा लगता है कि सम्मिलित चिन्तन-स्वरूप शब्द बने होंगे। अनेक शब्द बनाये गये होंगे। यह सारी प्रक्रिया होने में लाखों साल लगे होंगे। इसलिए मानना पड़ता है कि परमात्मा की प्रेरणा से ही शब्द निकला। शब्द-ब्रह्म हमें प्रमाण है, यानी शब्दों को छोड़कर हम बोल ही नहीं पाते। शब्द का प्रयोग ही न करेंगे, तो कैसे बोलेंगे? अपनी-अपनी भावनाएँ हमें शब्दों में ही प्रकट करनी पड़ती हैं। हजारों शब्द ऐसे बने हैं। इसिलिए मानना पड़ता है कि जब शब्द बन रहे थे, तब उसी प्रक्रिया में ‘वेद-ग्रन्थ’ बना। शास्त्रज्ञों ने भी यह मान्य किया है कि जब वाणी की बनावट हो रही थी, तभी वेदग्रन्थ बना। वेद में वाणी के अलग-अलग स्तर दिखाई देते हैं। कुछ बहुत प्राचीन हैं, तो कुछ उसके बाद के। फिर कहते हैं कि वेद का तात्पर्य क्या है? भगवान् कहते हैं कि वेद मेरा ही अभिधान कर रहा है :
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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